नितीश कुमार के संघमुक्त भारत का सच

अरविन्द जयतिलक 

7 साल तक भाजपायुक्त रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब संघ मुक्त भारत का राग-प्रलाप कर एक किस्म से अपने महत्वाकांक्षायुक्त होने का ही सबूत दे रहे हैं। उन्होंने गैर-भाजपा दलों से आह्नन किया है कि वे संघ मुक्त भारत के लिए एक मंच पर आएं अन्यथा भाजपा सबका बुरा हाल कर देगी। उनकी इस भययुक्त अपील का सियासी दलों पर कितना असर होगा, यह तो वहीं जाने पर इतना भी समझना कठिन नहीं कि उनके राग-प्रलाप का एक कोण यह भी है कि वे बिहार की सत्ता के साझीदार राजद की कार्यशैली से नाराज हैं और अब उनका ख्वाब बिहार की चौहद्दी से बाहर निकल मोदी विरोधी खेमे का चौधरी बनना है।

वर्षों तक भाजपा के सहयोग से सत्ता में रहने वाले नितीश कुमार अब जब संघ मुक्त भारत की बात करते हैं तो13012801_1714201422162594_382380755094220597_n हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न होती है। नितीश कुमार ने जब यह बयान दिया तो सोशल मीडिया में उनकी खूब किरकिरी हुई और किरकिरी की वजह बनी एक तस्वीर जिसमे वे तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के साथ संघ के एक कार्यक्रम में द्वितीय सर संघ चालक गुरु गोलवलकर की तस्वीर के समक्ष खड़े होकर दीप प्रज्ज्वलन करते नजर आ रहे हैं। गोधरा-२००२ के बाद की एक तस्वीर के सहारे भी उनकी खूब खिंचाई की गयी जिसमे वे नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करते हुए उनकी तारीफ़ किये थे। अब जब नितीश कुमार संघमुक्त भारत की बात करते हैं तो समाज इसे महज अवसरवादी राजनीति के तौर पर देख रहा है। लोग कहना शुरू कर दिए हैं कि संघ-मुक्त की बजाय अपराध-मुक्त बिहार की बात नितीश को करना चाहिए। उनको जनादेश संघमुक्ति का नहीं बिहार से अपराध मुक्ति का मिला है: मॉडरेटर

दरअसल अल्प समय में ही नीतीश को भान हो गया है कि बिहार में लालू से सत्ता की साङोदारी और वफादारी दोनों साथ संभव नहीं है। लालू अपने बेटों को स्थापित करने के लिए हर हथकंडा अपनाएंगे चाहे नीतीश को रास आए या नहीं। उनकी दिली ख्वाहिश है कि उनका लाल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। उधर सत्ता का एकांत भोग लगाने के आदी रहे नीतीश को भी यह पसंद नहीं कि उनके कामों में लालू या उनके
सिपाहसलार हस्तक्षेप करें। लेकिन कहते हैं न कि राजनीति में वैसा होता नहीं जैसा सोचा जाता है। फिलहाल सत्ता का अंकगणित और जनगणित दोनों लालू के साथ है। नीतीश चाहकर भी उन्हें किनारे नहीं लगा सकते। ऐसे में नीतीश के पास सिर्फ दो ही विकल्प मौजूद हैं। एक यह कि वह लालू के साथ मिलकर सत्ता संचालन के लिए अपनी आदत उस दबी बिल्ली की तरह बनाएं जो उदारतापूर्वक चूहों से कान कुतरवाती है। या तो दूसरा रास्ता यह है कि वे अपना रुख दिल्ली की ओर करें, जहां पहले से ही राहुल गांधी मोदी विरोध का झंडा लहरा रहे हैं और अभी से 2019 में अपनी स्वीकार्यता का मंसूबा पाल रखे हैं।

बहरहाल नीतीश ने संघ मुक्त भारत का आह्नन कर साफ कर दिया है कि उनका रुख दिल्ली की ओर ही है। जाहिर है कि फिर वे राहुल गांधी से बढ़त लेने के लिए संघ पर हमला बोलेंगे ही। उन्हें पता है कि जिस भाजपा और नरेंद्र मोदी पर राहुल नित नए वार कर रहे हैं, अब उन पर हमला बोलकर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। मोदी की घेराबंदी से जितना लाभ मिलना था वह बिहार में मिल चुका। अब चूंकि बिहार से उड़ान दिल्ली के लिए भरनी है तो प्रतिरोध की प्रस्तावना भी मजबूत करनी होगी। लिहाजा उन्होंने संघ मुक्त भारत के शब्दों की कारीगरी और बाजीगरी से सियासी ध्रुवीकरण के बीज रोप दिए हैं। नीतीश को विश्वास है कि इस दांव से वे सेक्युलर चैंपियन बनकर उभरेंगे और शायद मोदी विरोधी खेमे की ठेकेदारी भी उनके हाथ लग जाए। दरअसल जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नीतीश कुमार के पांव जमीन पर नहीं हैं। वे जदयू को जार्ज फर्नाडीज और शरद यादव मुक्त करने के बाद स्वयं को प्रधानमंत्रीयुक्त देखना चाहते हैं। संघ पर हमला इसी रणनीति का हिस्सा है। लेकिन मौजूं सवाल यह है कि क्या उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा होगा? क्या वे कांग्रेस और राहुल गांधी को अपने शामियाने में लाने में सफल होंगे? क्या गैर-भाजपा दल सपा, बसपा, तृणमूल, बीजद, द्रमुक, लेफ्ट, एआइएडीएमके उनकी अगुवाई को स्वीकार करेंगे? थोड़ी देर के लिए मान लें कि यह अनहोनी हो भी जाए तो क्या इससे संघ मुक्त भारत का सपना आसान हो जाएगा? शायद नीतीश और उन जैसे सियासतदान भूल रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1925 से भारतवर्ष की सेवा कर रहा है। वह एक सामाजिक संगठन है, न कि राजनीतिक दल जिसे सत्ता से बेदखल करना आसान होगा।

जिस मैदान में प्रतिदिन संघ की शाखा लगती थी वहीं शाम को गांधी जी की प्रार्थना सभा भी होती थी। उन दिनों दिल्ली समेत पूरे देश में दंगे हो रहे थे। गांधी जी ने 16 सितंबर, 1947 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों से मिलने की इच्छा व्यक्त की और स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। जमनालाल बजाज मुङो शिविर में ले गए थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ। तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्म-त्याग से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘संघ एक सुसंगठित एवं अनुशासित संस्था है। संघ के खिलाफ जो भी आरोप लगाए जाते हैं, उसमें कितनी सचाई है, यह मैं नहीं जानता।

भाजपा का उदय भी नहीं हुआ था तब से संघ का अस्तित्व है और वह आज 40 हजार से अधिक शाखाओं के माध्यम से देश के प्रत्येक राय और प्रत्येक जिले में मौजूद है। संघ के लाखों स्वयंसेवक उपेक्षा, उपहास, विरोध और अवरोध के बावजूद भी अपने सामाजिक-सांस्कृतिक लक्ष्यों की ओर अग्रसर हैं। संघ राजनीतिक इकाई नहीं बल्कि एक देशव्यापी देशभक्त, अनुशासित चरित्रवान व नि:स्वार्थ सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन है जहां स्वयंसेवकों को राष्ट्रीय व सामाजिक गुणों से लैस किया जाता है। आजादी के उपरांत देश के प्रधानमंत्री पंडित
जवाहर लाल नेहरू ने भी भारत को संघ मुक्त करने की कल्पना की थी। लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध में वे संघ की भूमिका से इतना अधिक प्रभावित हुए कि 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में संघ को सम्मिलित होने का निमंत्रण दे दिया। महात्मा गांधी और डा.लोहिया की माला जपने वाले नकली झंडाबरदारों को यह भी ज्ञान होना चाहिए कि वे जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिटाने की बात कर रहे हैं उसके बारे में गांधी जी की सोच कितनी, व्यापक सकारात्मक और श्रद्धापूर्ण थी। भारत विभाजन के उपरांत दिल्ली के जिस मैदान में प्रतिदिन संघ की शाखा लगती थी वहीं शाम को गांधी जी की प्रार्थना सभा भी होती थी। उन दिनों दिल्ली समेत पूरे देश में दंगे हो रहे थे। गांधी जी ने 16 सितंबर, 1947 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों से मिलने की इच्छा व्यक्त की और स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। जमनालाल बजाज मुङो शिविर में ले गए थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ। तब से संघ काफी बढ़ गया है। मैं तो हमेशा से मानता आया हूं कि जो भी सेवा और आत्म-त्याग से प्रेरित है, उसकी ताकत बढ़ती ही है।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘संघ एक सुसंगठित एवं अनुशासित संस्था है। संघ के खिलाफ जो भी आरोप लगाए जाते हैं, उसमें कितनी सचाई है, यह मैं नहीं जानता। संघ को चाहिए कि वह अपने सुसंगत कामों से इन आरोपों को झूठा साबित कर दे।’ महत्वपूर्ण बात यह कि इन 91 सालों में संघ ने अपने पर लगने वाले हर आरोप को झूठा साबित किया है। संघ के इतिहास और विचारधारा पर फब्तियां कसने वाले वोटबैंक के ठेकेदारों को जानना चाहिए कि संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार उन गिने-चुने क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश शासन से भारत की मुक्ति के लिए संघर्ष किया। वे 1921 में कांग्रेस आंदोलन में भी शामिल हुए।

1920 में लोकमान्य तिलक के निधन के बाद तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं द्वारा राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा से तंग आकर 1925 में राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। आजादी के दौरान या बाद कभी भी कोई ऐसा पुख्ता सुबूत देखने को नहीं मिला, जिसको लेकर यह दावा किया जाए कि संघ का आचरण राष्ट्रहित के खिलाफ है। यह हजारों बार साबित हो चुका है कि जिन बातों को लेकर संघ की कार्यप्रणाली पर संदेह जताया जाता है, वे राष्ट्रवाद से जुड़े हैं। समाजवाद का ठेका उठा रखे छद्म समाजवादियों को ज्ञात होना चाहिए कि 1966 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कठिन परिश्रम और कार्यकुशलता के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भरपूर तारीफ की। अकसर वामपंथी और तथाकथित सेक्यूलर लेखकों द्वारा दुष्प्रचार किया जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों और ईसाइयों के विरुद्ध है। जबकि यह पूर्णतया असत्य और बुनियादहीन है।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य संपूर्ण समाज को संगठित कर हिंदू जीवन दर्शन के प्रकाश में समाज का सर्वागीण विकास करना है। भारत में रहने वाले मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में संघ की सोच और समझ क्या है वह 30 जनवरी 1971 को प्रसिद्ध पत्रकार सैफुद्दीन जिलानी और गुरुजी से कोलकाता में हुए वार्तालाप, जिसका प्रकाशन 1972 में हुआ, से पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है। सच तो यह है कि कांग्रेस, तथाकथित सेक्युलर दल और छद्म बुद्धिजीवियों का एक वर्ग एक साजिश के तहत संघ को मुस्लिम व ईसाई विरोधी बताता रहा है और नीतीश कुमार उन्हीं पर डोरा डालने के लिए संघ मुक्त भारत का प्रलाप कर रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित है)