‘जो समझौता लागू करने की हिम्मत राजीव गांधी नहीं दिखा सके, उसे मोदी सरकार ने लागू किया है’

भाजपा ने  असम में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान इसे बड़ा मुद्दा बनाया, क्योंकि शुरूआत से भाजपा देश में नागरिको के हितो की रक्षा हेतु  घुसपैठियों को शरण देने के विरुद्ध रही है, ऐसे में असम में पहली बार भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार आने के बाद इस मुद्दे पर सरकार ने तत्परता दिखाई। वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ। जैसा कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राज्यसभा में अपने वक्तव्य में कहा कि राजीव गांधी की सरकार द्वारा किया गया ‘असम समझौता’ ही  एनआरसी की आत्मा है एवं नरेंद्र मोदी की सरकार ने इसे लागू करने की हिम्मत दिखाई है।

असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के दूसरे  मसौदे को जारी कर दिया गया है। एनआरसी में शामिल होने के लिए आवेदन किए 3.29 करोड़ लोगों में से 2.89 करोड़ लोगों के नाम शामिल हैं और इसमें 40 लाख लोगों के नाम नहीं हैं। असम सरकार का कहना है कि जिनके नाम रजिस्टर में नहीं है, उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए एक महीने का समय दिया जाएगा। दरअसल अभी सिर्फ ड्राफ्ट जारी हुआ है, अंतिम सूची 31 दिसंबर, 2018 को आएगी। एनआरसी का पहला मसौदा गत 31 दिसंबर और एक जनवरी को जारी किया गया था, जिसमें 1.9 करोड़ लोगों के नाम थे।

क्या है एनआरसी?

दरअसल बांग्लादेश के अलग देश बनने के बाद से ही असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था। 1980 के दशक में यह राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका था। बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर करने के लिए एनसीआर को अपडेट करने की मांग के साथ असम में आंदोलन जोर पकड़ने लगा।

इसका नेतृत्व अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम गण परिषद ने किया। अगस्त, 1985 में केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार और आंदोलन के नेताओं के बीच ‘असम समझौता’ हुआ। समझौते में तय हुआ कि 1971 तक असम में घुसे बांग्लादेशियों को नागरिकता दी जाएगी तथा  बाकी को निर्वासित किया जाएगा।

एनआरसी को  अपडेट करने का काम वर्ष 2005 में शुरू हुआ था। उस समय केंद्र और राज्य में कांग्रेस की ही सरकार थी। ‘असम समझौते’ के दौरान भी राज्य में कांग्रेस की ही सरकार थी। भारत  के बंटवारे के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से घुसने वाले अवैध अप्रवासियों की पहचान के लिए असम में पहला नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) 1951 में बनाया गया था। इसमें राज्य के हर गांव में रहने वाले लोगों के नाम, उनकी संख्या, घर, संपत्तियों का विवरण था; किन्तु बांग्लादेश से भारत में घुसपैठ जारी रही। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद बड़ी तादाद में शरणार्थी असम पहुंचे।

असम आंदोलन के मुद्दे पर विधानसभा चुनावों में पहुंची असम गण परिषद और उसके मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने समझौते के ज्यादातर प्रावधानों को नजरअंदाज कर दिया था। वर्ष 2005 में एक बार फिर इसी मुद्दे को लेकर असम में आंदोलन हुआ और उसके बाद एनसीआर अपडेट करने का काम शुरू किया गया, लेकिन किसी भी सरकार ने इसमें तत्परता नहीं दिखाई। वर्ष 2013 में आसू और विभिन्न संगठनों ने इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर कीं।

भाजपा ने  असम में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान इसे बड़ा मुद्दा बनाया, क्योंकि शुरूआत से भाजपा देश में नागरिको के हितो की रक्षा हेतु  घुसपैठियों को शरण देने के विरुद्ध रही है, ऐसे में असम में पहली बार भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार आने के बाद इस मुद्दे पर सरकार ने तत्परता दिखाई। वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ। जैसा कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राज्यसभा में अपने वक्तव्य में कहा कि राजीव गांधी की सरकार द्वारा किया गया ‘असम समझौता’ ही  एनआरसी की आत्मा है एवं नरेंद्र मोदी की सरकार ने इसे लागू करने की हिम्मत दिखाई है।

गौरतलब है कि सूची में 40 लाख लोगों के नाम शामिल न होने से देश की राजनीति गरमाई हुई है। कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष का कहना है कि इस मुद्दे पर केंद्र सरकार राजनीतिक फायदे देख रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह दिया है कि सरकार के इस कदम से देश में गृहयुद्ध छिड़ सकता है।

लेकिन 2005 में खुद ममता बनर्जी ने बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को लेकर संसद में हंगामा किया था। उस दौरान उन्होंने स्पीकर पोडियम पर न केवल पेपर फेंका था, बल्कि इस मुद्दे पर लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देने की घोषणा भी की थी। हालांकि यह बात अलग है कि तब पश्चिम बंगाल में तृणमूल की नहीं बल्कि वामपंथियों की सरकार हुआ करती थी।

दरअसल अब ममता बनर्जी एनआरसी के मुद्दे पर तुष्टिकरण की राजनीती कर रही हैं, वह भाजपा पर आरोप लगा रही हैं कि वो लोगों को बांटने की कोशिश कर रही है। लेकिन एनआरसी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और अन्य ऐसे राज्य हैं जहां असम की भांति अवैध बांग्लादेशी रह रहे हैं। इस प्रक्रिया के जरिए उनकी पहचान की जाने की आवश्यकता है।

एक अनुमान के अनुसार अकेले पश्चिम बंगाल में एक करोड़ के आसपास बंग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। ममता बनर्जी  वोटबैंक  की राजनीति में  बंगाल की  जनता को भूल रही हैं। उन्हें इसकी फिक्र नहीं कि प्रदेश के संसाधनों का पूरा हिस्सा मूल जनता को नहीं मिल रहा है। ममता बनर्जी का एनआरसी विरोध दरअसल पश्चिम बंगाल के बेरोजगार युवाओं के अधिकारों पर चोट है, जिनके हक को घुसपैठिए हड़प रहे हैं।

असम के बाद पश्चिम बंगाल में भी एनआरसी वहा के लोगों की मांग है। किन्तु ममता बनर्जी अपने  राजनीतिक हित हेतु घुसपैठियों के समर्थन में खड़ी हैं, जबकि  वह विपक्ष में थीं, तब घुसपैठियों का विरोध और उनको देश से निकालने की बात करती थी।

भाजपा का स्पष्ट मानना है कि एनआरसी देश की सुरक्षा के लिए लाया गया है। अवैध घुसपैठ से देश की सुरक्षा को खतरा है और इसे किसी भी कीमत पर रोकना चाहिए। देश के हर राजनैतिक दल को देश की सुरक्षा के लिए अपना मत स्पष्ट करना चाहिए, क्योंकि वोट बैंक की राजनीती हेतु घुसपैठियों को बढ़ावा देकर किस प्रकार हम देश की सुरक्षा करेंगे? और वास्तव में घुसपैठियों को बढ़ावा देना देश की  आतंरिक सुरक्षा से खिलवाड़ है। लेकिन विपक्ष के आचरण से ऐसा लगता है जैसे उसे देश की नहीं बल्कि घुसपैठियों की चिंता है।

(लेखक कॉरपोरेट लॉयर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)