गीता जयंती विशेष : मनुष्य और परमात्मा का मूल्यवान संवाद है ‘गीता’

गीता ज्ञान की जिज्ञासा जगाने वाला ग्रंथ है। इसीलिए प्राचीन दर्शन परंपरा के विकास में इसकी अहम् भूमिका रही है। आदि शंकराचार्य से लेकर संत ज्ञानेश्वर, महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, बिनोबा भावे, डॉ. राधाकृष्णन, ओशो और प्रभुपाद जैसे अनेक मनीषी-चिंतकों ने गीता की युगानुरूप मीमांसा करते हुए, नई चिंतन परंपराओं के बीच नए तत्वों की खोजें  की हैं।

श्रीमद्भगवत् गीता देश का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं पवित्र ग्रंथ है। इसे विद्वानों ने परमात्मा का गीतभी कहा है। परंतु वास्तव में यह मनुष्य और प्रकृति के बीच ऐसा मूल्यवान संदेश है, जो ब्रह्मांडीय ज्ञान को विज्ञान से जोड़ने के साथ मनुष्य को अपने जीवन मूल्य और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युद्ध का प्रेरक संदेश भी देता है। इसलिए यह विज्ञान और युद्ध का ग्रंथ भी है।

वैसे भी भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद कुरुक्षेत्र के उस मैदान में हुआ था, जहां युद्ध का होना सुनिश्चित होने के पश्चात् भी अर्जुन संबंधियों के मायामोह में शस्त्र डालने की मानसिकता बना चुके थे। किंतु कृष्ण के प्रेरक संदेश से अभिप्रेरित होकर, उन्होंने रक्त संबंधियों से युद्ध की ठान ली। अतएव यह सत्य के यथार्थ का बोध कराने वाला संवाद भी है। ब्रह्मांड के खगोलीय ज्ञान का बोध कृष्ण-अर्जुन के पहले संवाद मार्गशीष शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथी से ही आरंभ हो जाता है।

कृष्ण कहते है कि मैं महीने में अगहन हूं। अर्थात इस संवाद के शुरू होने से पहले ही भारतीय ऋषियों ने काल-गणना को जान लिया था। इसीलिए गीता को चारों वेद, 108 उपनिषद् और सनातन हिंदू दर्शन के छह शास्त्रों के सार रूप में जाना जाता है। इसीलिए गीता को नई शिक्षा नीति के पाठ्यक्रम में शामिल करने और राष्ट्र ग्रंथ की श्रेणी में रखने की मांग उठ रही है।

गीता के मनीषी ज्ञानानंद महाराज ने इस दृष्टि से एक वर्णमाला भी तैयार की है, जिसमें से अनार और से आम के वनिस्वत से अर्जुन और से आर्यभट्ट पढ़ाया जाएगा। ये शब्द अर्जुन के रूप में एक समर्थ योद्धा और आर्यभट्ट के रूप में खगोल विज्ञानी से जुड़े हैं। साफ है, गीता का ज्ञान विज्ञान के सामथ्र्य से उपजा है।  

गीता ज्ञान का ऐसा दिव्य स्रोत है, जो स्वयं व्यक्ति से मैत्री का संदेश देता है। यह एक ऐसा मनोवैज्ञानिक संवाद है, जो अवसाद से घिरे मनुष्य को उबारने का काम करता है। मौलिक विचार प्रकट करते हुए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन के द्वारा अपने जन्म और मृत्यु रूपी बंधन से उद्धार करने की कोशिश करे। यही ज्ञान उसे दयनीयता से बाहर निकाल सकता है।

अर्जुन अपने संबंधियों को शत्रु के रूप में देख इसी निम्नता के बोध से घिरकर संग्राम से पलायन की मानसिकता बना बैठा था। कृष्ण कहते हैं कि मन के भीतर जो जीवात्मा है, वही आपकी सच्ची मित्र और शत्रु है।अतएव हीनता और अवसाद से घिरे मनुष्य को जीवात्मा से संवाद करने की जरूरत है। 

दुनिया के अनेक देशों में राष्ट्रीय झंडा, चिन्ह, पक्षी और पशु की तरह राष्ट्रीय ग्रंथ भी हैं।  अलबत्ता हमारे यहां धर्मनिरपेक्षएक ऐसा विचित्र शब्द है, जो राष्ट्र-बोध की भावना पैदा करने में अकसर रोड़ा अटकाने का काम करता है। गोया गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बना देने की घोषणाएं जरूर होती रही हैं, लेकिन ऐसा करना आसान नहीं है।

गीता जीवन जीने का तरीका सिखाती है, बावजूद संविधान में दर्ज धर्मनिरपेक्षताशब्द एक ऐसा आडंबर है, जो गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित  और इसे शालेय शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल करने में सबसे बड़ी बाधा है। हालांकि संविधान में व्यक्त न तो धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा स्पष्ट है और न ही उच्चतम न्यायालयों के विभिन्न न्यायाधीशों द्वारा धर्मनिरपेक्षता शब्द की, की गई व्याख्याओं में एकरूपता है।

इसलिए गीता को जब भी राष्ट्रीय महत्व देने की बात उठती है, तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी सेक्युलरिज्म की ओट में गीता का विरोध करने लगतेे हैं, क्योंकि यह बहुसंख्यक किंतु उदारवादी हिंदू धर्मावलंबियों का ग्रंथ है। दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के शिक्षा संस्थान में कुरान की आयतें, बाईबिल के संदेश अथवा अन्य मध्ययुगीन मजहबी किताबें पढ़ाई जाती रहें, तो मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और तथाकथित सेकुलर राजनीतिज्ञों को कोई आपत्ति नहीं होती ?

जबकि श्रीमद्भगवत गीता दुनिया का एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसकी रचना महाभारत युद्ध के दौरान एक विशेष कालखंड में राष्ट्रीयता, नैतिकता और मानवता के चरम तत्वों की प्राप्ति के लिए हुई थी। गोया यह मानव संघर्ष के बीच रचा गया युद्ध के संदेश का शास्त्र है। आज दुनिया आतंकवाद के संक्रमण काल से गुजर रही हैं, ऐसे में गीता का संदेश कर्म और उदात्त तत्वों को ग्रहण करने का एक श्रेष्ठ माध्यम बन सकता है। 

प्रत्यक्षतः दुनिया शांति और स्थिरता की बात करती है। लेकिन शासकों के पूर्वाग्रह, अंतर्द्वंद्व, आधुनिक विकास और सत्ता की प्रतिस्पर्धा ऐसी महत्वाकांक्षाएं जगाते हैं कि दुनिया कहीं ठहर न जाए ? इसलिए भीतर ही भीतर धर्म, संप्रदाय, जाति और नस्ल के भेद के आधार पर दुनिया को सुलगाए रखने का काम भी यही शासक करते हैं। परिणामस्वरूप दुनिया में संघर्ष और टकराव उभरते रहे हैं।

टकराव के एक ऐसे ही कालखंड में कर्मयोगी श्रीकृष्ण के मुख से अर्जुन को कर्तव्यपालन के प्रति आगाह करने के लिए गीता का सृजन हुआ। इसीलिए इसे संघर्ष-शास्त्र भी कहा गया है। गीता का संदेश है, उठो और चुनौतियों के विरूद्ध लड़ो। क्योंकि अर्जुन अपने परिजनों, गुरूजनों और मित्रों का संहार नहीं करना चाहते थे। वे युद्ध से विमुख हो रहे थे। यदि इस मानव-संघर्ष में अर्जुन धनुष-बाण धरा पर धर देते तो सत्ताधारी कौरव जिस अनैतिकता व अराजकता के चरम पर थे, वह जड़ता टूटती ही नहीं ? यथास्थिति बनी रहती है।

परंपरा में चले आ रहे तमाम ऐसे तत्व शामिल होते हैं, जो वाकई अप्रासंगिक हो चुके होते हैं। मूल्य-परिवर्तनशील समय में शाश्वत बने रहें, इसलिए परंपरा में परिवर्तन जरूरी हैं। गीता में परिवर्तन के क्रम में प्रासंगिक कर्म की व्याख्या की गई है। इसीलिए यह युगांतरकारी ग्रन्थ है। 

दुनिया के प्रमुख ग्रंथों में गीता ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसका अध्ययन व्यक्ति में सकारात्मक सोच के विस्तार के साथ उसका बौद्धिक दायरा भी बढ़ाता है। फलतः गीता के विभिन्न लोग एक सौ से भी ज्यादा भाष्य लिख चुके हैं। अन्य धर्म-ग्रंथों की तो व्याख्या ही निषेध है। हालांकि कोई धर्म ग्रन्थ चाहे वह किसी भी धार्मिक समुदाय का हो, दुनिया के सभी देशों के बीच उनका सम्मान करने की एक अघोषित सहमति होती है।

गीता विलक्षण इसलिए है, क्योंकि यह सनातन धर्मावलंबियों का आध्यात्मिक ग्रंथ होने के साथ दार्शनिक ग्रंथ भी है। इसमें मानवीय प्रबंधन के साथ समस्त जीव-जगत व जड़-चेतन को एक कुटुंब के रूप में देखा गया है और उनकी सुरक्षा की पैरवी की गई है। इसीलिए भारतीय प्रबंधकीय शिक्षा में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश और गीता के सार को स्वीकार किया गया है। जब प्रबंधन की शिक्षा गीता के अध्ययन से दिलाई जा सकती है, तो शिक्षा में गीता का पाठ क्यों शामिल नहीं किया जा सकता ? जबकि ईसाई मिशनरियों और इस्लामी मदरसों में धर्म के पाठ, धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ खूब पढ़ाए जाते हैं। 

गीता ज्ञान की जिज्ञासा जगाने वाला ग्रंथ है। इसीलिए प्राचीन दर्शन परंपरा के विकास में इसकी अहम् भूमिका रही है। आदि शंकराचार्य से लेकर संत ज्ञानेश्वर, महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, बिनोबा भावे, डॉ. राधाकृष्णन, ओशो और प्रभुपाद जैसे अनेक मनीषी-चिंतकों ने गीता की युगानुरूप मीमांसा करते हुए, नई चिंतन परंपराओं के बीच नए तत्वों की खोजें  की हैं।

यही नहीं मुगल बादशाह  दाराशिकोह और महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन तक को एकेश्वरवाद पर आधारित इस ग्रंथ ने भीतर तक प्रभावित किया था। दाराशिकोह ने गीता का फारसी भाषा में अनुवाद भी किया था। तय है, व्यक्ति और समाज की रचनात्मकता में गीता का अतुलनीय योगदान रहा है। कालजयी नायकों में गीता के स्वाध्याय से उदात्त गुणों की स्थापना हुई है। इसीलिए ये महापुरूष कर्म की श्रेष्ठता को प्राप्त हुए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)