बोफोर्स घोटाला : अगर सब पाक साफ़ है, तो सीबीआई की अपील से कांग्रेस इतनी असहज क्यों है !

सबसे पहले इस पर बात की जाए कि वर्ष 2005 में जब दिल्‍ली हाई कोर्ट कोर्ट इस मामले में निर्णय दे चुका है तो अब इतने साल बाद सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की क्‍या आवश्‍यक्‍ता पड़ गई। हाई कोर्ट ने अपनी सुनवाई में आरोपियों पर लगे सारे आरोप खारिज कर दिए थे। कहने की कोई आवश्‍यक्‍ता नहीं है कि उस समय केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। प्रधानमंत्री के पद पर मनमोहन सिंह बहुत समर्पण के साथ कांग्रेस के प्रति अपने दायित्‍व पूरे कर रहे थे। उस समय यूपीए सरकार ने इतने बड़े मुद्दे को, जिसने राजीव गांधी की सरकार को हिला दिया था, बड़ी सहजता से “संभाल” लिया।

बहुचर्चित बोफोर्स मामला एक बार फिर चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट में इस मसले पर, अभी इस बिंदु पर, निर्णय होना शेष है कि यह प्रकरण दोबारा चलाया जाना चाहिये या नहीं। इधर, बोफोर्स मामले के फिर से सुर्खियों में आते ही कांग्रेस असहज होने लगी है जो स्‍वाभाविक है। असल में यह केस सदा से कांग्रेस को भयभीत करता आया है। जब वर्ष 1987 में स्‍वीडिश कंपनी बोफोर्स ने तोप खरीदी का सौदा प्राप्‍त करने के लिए दलाली दी थी, तब भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्‍वीडन की कंपनी बोफोर्स और उसके सौदे की दलाली में इटली के कारोबारी अतावियो क्‍वात्रोची का होना, राजीव गांधी का प्रधानमंत्री होना, कांग्रेस का शासन होना और सोनिया गांधी का इटली से कनेक्‍शन होना, ये सारे तथ्‍य कांग्रेस को सवालों के कठघरे में लाने के लिए पर्याप्‍त रहे हैं।

यह सौदा कोई छोटा-मोटा सौदा नहीं था, यह पूरी 400 तोपों की डील थी, जिसकी लागत उस समय के मान से एक से डेढ़ अरब डॉलर के बीच थी। सौदे का मध्‍यस्‍थ क्वात्रोची उस दौरान नेहरू-गांधी परिवार का खास बताया जाता था और चूंकि एक मामला पकड़ में आ गया इसलिए उसका नाम भी सामने आ गया, अन्‍यथा संभव है कि ऐसे और भी मामले हों, जिनमें उसकी भूमिका रही होगी, क्‍योंकि अस्‍सी के दशक में वह कई बड़े सौदों में शामिल था। पूरे मामले में कांग्रेस की भूमिका इसलिए भी संदिग्‍ध रही, क्‍योंकि स्‍वयं तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ही इस घोटाले की जांच को शिथिल कर दिया था। कहा जाता है कि ऐसा उन्‍होंने अतावियो क्‍वात्रोची को बचाने के लिए ही किया था।

सांकेतिक चित्र

अब वर्तमान पर लौटते हैं। सबसे पहले इस पर बात की जाए कि वर्ष 2005 में जब दिल्‍ली हाई कोर्ट कोर्ट इस मामले में निर्णय दे चुका है तो अब इतने साल बाद सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की क्‍या आवश्‍यक्‍ता पड़ गई। हाई कोर्ट ने अपनी सुनवाई में आरोपियों पर लगे सारे आरोप खारिज कर दिए थे। कहने की कोई आवश्‍यक्‍ता नहीं है कि उस समय केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। प्रधानमंत्री के पद पर मनमोहन सिंह बहुत समर्पण के साथ कांग्रेस के प्रति अपने दायित्‍व पूरे कर रहे थे। उस समय यूपीए सरकार ने इतने बड़े मुद्दे को, जिसने राजीव गांधी की सरकार को हिला दिया था, बड़ी सहजता से “संभाल” लिया।

अब चूंकि 13 साल बाद सीबीआई ने पुनः साक्ष्य जुटाकर उस आदेश को चुनौती दी है, ऐसे में अब यह केस फिर से प्रासंगिक और महत्‍वपूर्ण हो गया है। हालांकि यह भी कानूनी व तकनीकी रूप से आसान नहीं था क्‍योंकि बकौल अटार्नी जनरल वेणुगोपाल, मामला एक दशक से अधिक पुराना होने के कारण दोबारा विशेष जांच की याचिका निरस्‍त भी हो सकती थी। अब जांच एजेंसी के पास कुछ अहम दस्‍तावेज होने की बात सामने आ रही है, जिस कारण यह मामला दोबारा कोर्ट में गया है।

यहां यह उल्‍लेख करना ज़रूरी होगा कि बोफोर्स जैसा बड़ा राजनीतिक मुद्दा 2005 में जब साइड लाइन कर दिया गया था, तब भाजपा ने इसके खिलाफ मोर्चा खोला था और न्‍यायपालिका को इसमें बनाए रखा। दिल्‍ली हाई कोर्ट ने तो बोफोर्स घोटाले के तमाम आरोपियों को बरी कर दिया था, लेकिन भाजपा नेता अजय अग्रवाल ने इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। उस समय यह दायित्‍व सीबीआई का था, लेकिन केंद्र की कठपुतली बनी सीबीआई ने पहल नहीं की, ऐसे में देशहित एवं जनहित को ध्‍यान में रखते हुए स्‍वयं अजय अग्रवाल आगे आए और हाई कोर्ट के आदेश को उच्‍च न्‍यायालय में चुनौती दी। यह भी बहुत आश्‍चर्य की बात है कि एक केंद्रीय जांच एजेंसी, जिसे निष्‍पक्ष होकर काम करना चाहिये था, वह येन-केन-प्रकारेण सत्‍तारूढ़ दल के दबाव में आकर अपने दायित्वों को भूल गयी।

अब चूंकि केंद्र में सरकार बदल चुकी है, ऐसे में सीबीआई को ‘देर आए, दुरुस्‍त आए’ की तर्ज पर अपने अधिकार, अपने शक्तियां एवं दायित्वों का बोध हुआ। फिर उसने नए सिरे से साक्ष्य संग्रह कर सर्वोच्च अदालत में अपील दायर की। अब चूंकि मामला दोबारा सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पहुंचा है, ऐसे में उम्‍मीद की जा सकती है कि इस मामले में अधूरा पड़ा न्‍याय पूरा होगा और दोषियों को उनके किए की कड़ी सजा मिलेगी। चूंकि, यह देश के रक्षा सौदे का मामला है, ऐसे में इसमें अब और अधिक विलंब की अपेक्षा नहीं की जा सकती। निश्‍चित ही, जल्‍द से जल्‍द फैसला आना चाहिए और आरोपियों को सज़ा मिलनी ही चाहिये।

इस मामले सहित इन दिनों कांग्रेस के बड़े नेता सीबीआई की रडार पर हैं, जिसकी खीझ वो मोदी सरकार पर सीबीआई के दुरूपयोग का फिजूल आरोप लगाते हुए निकाल रही है। कांग्रेस को समझना चाहिए कि हर सरकार उसीकी तरह सीबीआई का राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ दुरूपयोग करने वाली नहीं होती। अब बोफोर्स मामले को हो लें तो अगर इस मामले को उठवाने में मोदी सरकार की कोई राजनीतिक बदले की भावना होती तो वो सत्ता में आने के बाद साढ़े तीन साल तक प्रतीक्षा क्यों करती ? अतः कांग्रेस को सरकार पर फिजूल का आरोप लगाने की बजाय न्यायालय में जाकर अपना पक्ष रखने की तैयारी करनी चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)