कांग्रेस मुक्त हुई उत्तर प्रदेश विधान परिषद

उत्तर प्रदेश में अब तो यह स्थिति हो गई है कि कांग्रेस अपने कार्यालयों का किराया और बिजली बिल नहीं चुका पा रही है। कभी गांधी-नेहरू परिवार की धुरी रहे प्रयागराज में तो पार्टी का ऐतिहासिक जवाहर स्क्वायर ऑफिस किराया ना चुका पाने के कार बंदी की कगार पर पहुंच गया है।

6 जुलाई 2022 को उत्तर प्रदेश विधान मंडल के उच्च सदन में कांग्रेस के एकमात्र सदस्य दीपक सिंह के कार्यकाल पूरा होने के साथ ही विधान परिषद के 135 साल के इतिहास में पहली बार कांग्रेस का कोई सदस्य नहीं रह गया। उल्लेखनीय है कि पांच जनवरी 1887 को प्रांत की पहली विधान परिषद गठित हुई थी और आठ जनवरी 1887 को इलाहाबाद में संयुक्त प्रांत की पहली बैठक हुई थी। तब से अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ जब विधान परिषद में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व न रहा हो लेकिन 7 जुलाई को उच्च सदन में कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया।

आजादी के बाद से 1989 तक विधान परिषद में नेता सदन का आसन कांग्रेस के पास ही रहा। इसका अपवाद 1977-80 का दौर रहा जब नेता सदन जनता पार्टी के पास रहा। 1989 के बाद प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार कम होता गया। 2022 की 18वीं विधान सभा में पार्टी के सिर्फ 2 सदस्य ही चुनाव जीत सके। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के लिए अपने किसी सदस्य को विधान परिषद में पहुंचाना संभव नहीं रहा।

उत्तर प्रदेश विधान सभा में भी कांग्रेस तेजी से शून्य की ओर अग्रसर हो रही है। पिछले 37 वर्षों में वह 269 से 2 सदस्य पर जा पहुंची है। 1985 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने 269 सीटें जीती थी। उसके बाद शुरू हुई मंडल-कमंडल की राजनीति ने कांग्रेस को पीछे धकेल दिया। 1989 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस 95 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद 1993 के विधान सभा चुनावों में 28 सीटें मिली तो 1996 में कांग्रेस को 33 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा।

2004 में केंद्र में कांग्रेस ने सत्ता हासिल की तो उसे उम्मीद जगी कि प्रदेश में प्रदर्शन सुधरेगा लेकिन 2007 के विधान सभा चुनाव में पार्टी सिर्फ 22 सीट जीत पाई। 2012 में यह आंकड़ा 28 तक ही पहुंच पाया। 2017 में कांग्रेस ने अपने धुर विरोधी समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया। कांग्रेस प्रदेश में कुल 114 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन जीती सिर्फ सात। 2022 के विधान सभा में पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी ने कमान अपने हाथ में ली थी। प्रदेशव्यापी दौरे और लोकलुभावन चुनावी वायदे के बावजूद पार्टी सिर्फ दो सीट जीत पाई। यदि पार्टी ने अपने प्रदर्शन में सुधार नहीं किया तो जल्दी ही उत्तर प्रदेश विधान सभा भी कांग्रेस मुक्त हो जाएगी।

उत्तर प्रदेश में अब तो यह स्थिति हो गई है कि कांग्रेस अपने कार्यालयों का किराया और बिजली बिल नहीं चुका पा रही है। कभी गांधी-नेहरू परिवार की धुरी रहे प्रयागराज में तो पार्टी का ऐतिहासिक जवाहर स्क्वायर ऑफिस किराया ना चुका पाने के कार बंदी की कगार पर पहुंच गया है।

उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति कांग्रेस कई और राज्यों में झेल रही है। कांग्रेस के कुशासन से त्रस्त होकर जिन-जिन राज्यों में क्षेत्रीय नेताओं ने अलग पार्टी बनाई वहां-वहां कांग्रेस सिमटती गई जैसे असम, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा। कांग्रेस की यह दुर्गति एक दिन में नहीं हुई। कांग्रेस ने सदैव वोट बैंक और परिवारवाद की राजनीति किया। राज्यों में किसी नेता का जनाधार मजबूत नहीं होने दिया गया ताकि कोई गांधी-नेहरू परिवार को चुनौती देने वाला न पैदा हो जाए।

देखा जाए तो कांग्रेसी सरकारों और हाईकमान ने कभी जनभावनाओं का सम्मान नहीं किया। उसके चुनावी वायदे अगले चुनावों तक भुला दिए जाते थे। उदाहरण के लिए पिछले सत्तर वर्षों से कांग्रेसी सरकारें गरीबी हटाओ का नारा लगाती रही लेकिन गरीबी खत्‍म नहीं हुई।

दूसरी ओर मोदी सरकार मात्र आठ वर्षों में बिजली, सड़क, पेयजल, बैंक, बीमा, रसोई गैस, शौचालय,  बीज, उर्वरक, सिंचाई, उपज की बिक्री, अस्‍पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं को आम आदमी तक बिना किसी भेदभाव तक पहुंचाया। सबसे बढ़कर हर स्‍तर पर बिचौलिया मुक्‍त पारदर्शी शासन व्‍यवस्‍था की स्‍थापना हुई जिससे करोड़ों लोग गरीबी से बाहर निकले।

इसका नतीजा यह हुआ कि जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा और परिवारवाद पर आधारित कांग्रेस की चुनावी रणनीति औंधे मुंह गिरी और परिवार तक सिमट कर रह गई। सबसे बड़ी विडंबना यह हुई कि कांग्रेस पार्टी अपने घटते जनाधार का विश्लेषण कर उसकी कमियों को सुधारने के बजाए छद्म धर्मनिरपेक्षता, तुष्टीकरण, परिवारवाद की लकीर पीटती रही। यदि यही रवैया बरकरार रहता है तो कभी देश के हर गांव-कस्बे से नुमाइंदगी दर्ज कराने वाली कांग्रेस पार्टी गांधी-नेहरू परिवार तक सिमटकर रह जाएगी।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)