आतंकवाद के खिलाफ पूर्णतः असहिष्णु होने का समय

हाल में जब उड़ी पर हमले हुए तो मीडिया ब्रेकिंग न्यूज़ और प्राइम टाइम इसीसे भरे दिखने लगे। हर और एक ही शोर था, सख्त से सख्त कदम उठाये जाएँ ! पाकिस्तानी सेना को करारा जवाब दो ! कोई युद्ध छेड़ने की बात कर रहा था, किसी को आर्थिक पाबंदियां लगानी थी, तो कोई पाकिस्तानी कलाकारों को भी भारत में प्रतिबंधित कर देने की वकालत कर रहा था। आख़िरकार, मैंने सोचा ! हालांकि कलाकारों पर पाबन्दी मुझे थोड़ी ज्यादा सख्ती लगी, लेकिन आख़िरकार मुझे लग रहा था कि आम जनता में कड़े क़दमों के प्रति सहमति  बन रही है। कम से कम जबतक हमलों की खबर ताजा थी, यही बात हमारे सारे समाचार चैनल भी कह रहे थे। फिर अचानक ये परिदृश्य बदला – जो समाचार चैनल कल तक सख्त कदम उठाने की बात कर रहे थे, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ठोस निर्णय लेने की बात करने वालों को “भक्त” घोषित करना शुरू कर दिया। ये सुरक्षा की दीवार तथाकथित “उदारवादी वाम” की खड़ी की हुई थी। वो लोकतंत्र पर भीड़तंत्र के हावी होने के खतरे गिनाते हुए बता रहे थे कि युद्ध समस्या का हल नहीं है। कोई कह रहा था कि क्या हम इतना नीचे आ जायेंगे कि सिन्धु नदी के पानी को लड़ाई के लिए इस्तेमाल करेंगे ? संगीत और कला के सीमाओं से परे होने की भी चर्चा होने लगी। सीना ठोकते राष्ट्रवादियों पर युद्धोन्माद और वैमनस्य भड़काने का भी अभियोग लगाया जाने लगा।

सचमुच ऐसा था क्या ?

फेड्रिक विलियम नीत्से (15 अक्टूबर 1844 – 25 अगस्त 1900) जर्मन दार्शनिक थे। वे “नैतिकता की वंशावली” (Genealogy of Morals) के लिए भी जाने जाते हैं। इसमें वो गुलाम मानसिकता और हुक्मरान या आकाओं की मानसिकता की बात करते हैं, जो मध्ययुग में उभार पर थी। शासक वर्ग के हमलों और दबाव का यूरोप से लेकर भारत तक पर प्रभाव पड़ा और इन समाजों में अपनी एक गुलाम मानसिकता का विकास हुआ। इस मानसिकता के हिसाब से क्षमा करना दैवीय गुण था। युद्ध की स्थिति में भी अहिंसक रहना सदाचारियों का लक्षण था। क्यों ? क्योंकि माफ़ करने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। हमारे पास ना तो हिम्मत थी, ना ताकत न ही ऐसे स्रोत जिनके भरोसे लड़ा जा सके। अहिंसक रहो, क्योंकि तुम गुलाम हो और निष्क्रिय रहकर प्रतिरोध करना ही आपका इकलौता हथियार है।

पाकिस्तान, उसके पोषित आतंकियों और आतंकियों के रहनुमाओं के खिलाफ आवाज उठाने वाले कोई नवोदित नाज़ी नहीं हैं, जो सूई के गिरने की आवाजों पर भी तलवारें खींच लेते हों। चाहे वो ट्विटर और सोशल मीडिया हो या फिर सड़क, मानवता हिन्दुस्तानियों की जीवन पद्धति  रही है। लेकिन, अब इस मानवता को आतंकियों और अलगाववादी ताकतों की ढाल बनने नहीं दिया जा सकता। इतनी बातों के बाद मेरा ख़याल है कि अगर आप अब भी मुझे जुमलेबाज और भक्त ही बुलाना चाहते हैं तो ठीक है। मुझे एक भक्त के तौर पर पहचाने जाने में आपत्ति भी नहीं है।

नीत्से के शब्दों में कहें तो लड़ने में असमर्थ, अपने आप से ही लड़ता हुआ व्यक्ति मानसिक रूप से बीमार हो जाएगा। वो अपने असली स्वरुप को ही पापपूर्ण और घृणास्पद मानने लगेगा। इन मनोभावों से खुद को छुड़ा पाने की कठिनाइयों का सामना होने पर वो और जोर लगाएगा ताकि इन मनोभावों को पालतू बनाया जा सके, दबा कर रखा जा सके। नीत्से का मानना था कि मनुष्य इच्छा ना करने के बदले कुछ ना हो जाने की इक्छा करने लगता है। कुछ ऐसी ही विचारधारा थी जिसने 19वीं शताब्दी में कांग्रेस के नर्म दल की राजनीती को दिशा दी। आगे चलकर इसी को, स्वतंत्रता संग्राम में, गांधी का नेतृत्व मिला। जब हम भारत पर राज करने वाले ब्रिटिश शासन के साथ मिलकर इसे देखेते हैं, तो दर्शन के ये सिद्धांत उतने भी अव्यावहारिक नहीं लगते। दुसरे विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप जो आर्थिक संकट आये उनकी वजह से बड़े उपनिवेशों का शासन संभालना व्यावहारिक नहीं रह गया था। जैसे बाकी के दक्षिण एशिया को 40 और 50 के दशक में और अफ्रीका के हिस्सों को 60 के दशक में मिली, वैसे ही भारत को भी आजादी दे दी गई थी।

लेकिन आजाद होने के बाद, स्वतंत्रता मिलने पर भी, ये औपनिवेशिक मानसिकता की राजनीति  जारी रही। पाकिस्तान के मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ में जाना औपनिवेशिक गुलामी की मानसिकता से ग्रस्त कांग्रेसी सरकारों का तरीका बना ये दिखाने का कि देखो कितने “महान” और “नेकदिल” हैं हम ! अगली बार फिर जब 1971 में युद्धबंदियों को वापिस करने की बात आई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने “दरियादिली” दिखाने की सोची। उसवक्त जब सीमाओं का ढंग से निपटारा हो सकता था तो इंदिरा जी को “क्षमा” की महत्ता सूझी ! आज के हालात में ये और नए रंग में दिखती है। यहाँ घर में ही उपजे आतंकी हमारे लिए शहीद हैं। आज़ादी के नारे भारत को तोड़ने के लिए लगते हैं तो वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो जाती है। जिन पत्रकारों को निर्भया कांड के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की बात करनी चाहिए थी, वो उसके अपराधियों पर डॉक्यूमेंट्री बनाते, उसकी माँ के आंसुओं से सहानुभूति बटोरने की कोशिश करते हैं। इसी में एक कदम आगे बढ़ते हुए, जब कोई चैनल पाकिस्तान के खिलाफ कड़े कदम उठाने की बात करता है तो उसे “भक्त” की उपाधि देना शुरू हुआ है।

atankwad

ये क्या है ? इसका जवाब बरसों पुरानी गुलाम मानसिकता में ही छुपा है। इस गुलामी वाली नैतिकता का बोझ हम अपने कन्धों पर उठाये घूम रहे हैं। हम एक ऐसा राष्ट्र हो गए हैं जो अपनी ही शक्तियों से भयभीत है। सही कदम उठाने पर क्या होगा ये सोच कर ही हमें घबराहट होने लगती है। हाल के दिनों में कई लोगों ने कहा है कि वो “भक्त” नाम की इस नयी प्रजाति से भयभीत हैं। उन्हें लगता है कि भक्त बड़े शक्तिशाली हैं, लेकिन उनके विभाजनकारी नीतियों से डर लगता है ! जो धर्म के नाम पर आतंक का सहारा ले रहे हैं, उनके खिलाफ लड़ना, विरोध में आवाज उठाना विभाजनकारी कब से हो गया ? जातीय और धार्मिक पहचान के आधार पर होने वाली वोट बैंक की राजनीति से विभाजन नहीं होता तो इस से कैसे हो जाता है ? एक इल्जाम ये भी रहता है कि भक्त, घृणा फैलाते हैं ! क्या असहज कर देने वाला सच बोल देना घृणा फैलाना है ? सच्चाई ये है कि अभिजात्य वर्ग की अंग्रेजी मीडिया आतंक के सच को तुष्टिकरण की नीति से ढकना तो “नेकी” समझते हैं, लेकिन उनके लिए अन्याय के खिलाफ खड़े भक्त गलत हो जाते हैं।

राष्ट्रहित में ये गुलाम नैतिकता का बोझ कंधे से उतार कर फेंकिये और अपनी तकदीर के खुदमुख्तार बनिए। अपनी शक्तियों को पहचानिए। ये हमारे लिए चेतावनी का समय है। पाकिस्तान, उसके पोषित आतंकियों और आतंकियों के रहनुमाओं के खिलाफ आवाज उठाने वाले कोई नवोदित नाज़ी नहीं हैं, जो सूई के गिरने की आवाजों पर भी तलवारें खींच लेते हों। चाहे वो ट्विटर और सोशल मीडिया हो या फिर सड़क, मानवता हिन्दुस्तानियों की जीवन पद्धति  रही है। लेकिन, अब इस मानवता को आतंकियों और अलगाववादी ताकतों की ढाल बनने नहीं दिया जा सकता। इतनी बातों के बाद मेरा ख़याल है कि अगर आप अब भी मुझे जुमलेबाज और भक्त ही बुलाना चाहते हैं तो ठीक है। मुझे एक भक्त के तौर पर पहचाने जाने में आपत्ति भी नहीं है।