विपक्षी एकता की कवायदों में नीति, नेतृत्व और नीयत का अभाव

विपक्षी एकता के लिए हो रही कवायदों की भावना महज चुनावी है। इससे जनसरोकार का कोई जुड़ाव नहीं है। संभव है कि आगामी लोकसभा चुनाव का परिणाम एक बार फिर अपने स्वहित के लिए बनाई गई विपक्षी एकता की असफलता का नवीनतम उदाहरण बन जाए।

भारतीय राजनीति में समय-समय पर सत्ता पक्ष के खिलाफ विपक्षी दलों द्वारा एका बनाने की कवायदें होती रही हैं। हालांकि इंदिरा गांधी के शासन में लगे आपातकाल के बाद विपक्षी दलों की जो एकजुटता 1977 के चुनावों में दिखी थी, वैसी एकता फिर कभी नहीं दिखाई दी।  2024 के लोकसभा चुनावों में अब जबकि साल भर का समय शेष है तब एक बार फिर से विपक्षी दलों ने, उनके नेताओं ने आपस में किस्सा कुर्सी का शुरू कर दिया है।

2014 के लोकसभा चुनावों से ही अपने पूर्ण प्रयासों के बावजूद विपक्षी दल अपनी परिणिति तक, अपने परिणाम तक, अपने लक्ष्य तक पहुँच नहीं पा रहे हैं। सवाल उठता है कि विपक्षी एकता के नाम पर जुटे दलों का हश्र प्रायः एक जैसा ही क्यों होता है? इस प्रश्न के उत्तर में हमारे सामने तीन बिंदु आते हैं। आइये, उन्हें एक-एक कर समझने का प्रयास करते हैं।

नीति   

सबसे पहले विपक्षी दलों में जिस प्रमुख तत्व का अभाव है वह नीति है। महागठबंधन अथवा भाजपा विरोधी दलों को एक मंच पर कर के केंद्र की सत्ता में आने की हसरत पाले कई नेताओं जैसे नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और उनके पुत्र तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, ममता बैनर्जी, अरविन्द केजरीवाल आदि के पास देशव्यापी नीति का अभाव है। यदि गौर करें तो इन नेताओं/दलों का उभार क्षेत्रीय/स्वहित मुद्दों को लेकर हुआ था। इनकी महत्वकांक्षाएँ सत्ता की चौखट पर पहुँचने की होती है।

विचार करें तो देश के आंतरिक और बाहरी विषय से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णयों को लेकर इन नेताओं अथवा दलों के पास केंद्र सरकार के अंधविरोध के अलावा कुछ नहीं है। चाहे सर्जिकल स्ट्राइक हो, एयर स्ट्राइक हो या कोरोना की विषम परिस्थितियां हों, इन दलों के नेताओं की राजनीति मोदी विरोध में देश विरोध तक कर जाने की रही है।

देश की आर्थिक नीति कैसी हो, गरीबी का उन्मूलन कैसे हो, देश की रक्षा नीति को सुदृढ़ बनाने के लिए क्या आवश्यक कदम उठाए जाएं, विदेश में भारत से जुड़े विषयों पर क्या कूटनीति अपनाई जाए, ऐसे तमाम प्रश्नों पर क्षेत्रीय दलों का अपना कोई मौलिक विचार नहीं है। विपक्षी एकता के अधिकांश दलों की राजनीति का आधार क्षेत्रीय और जातिगत रहा है तथा वर्तमान में इनके जुटान का उद्देश्य भाजपा को हराना मात्र है। इनके पास देश के विकास का कोई विजन नहीं है।

साभार : Lokmat Times

नेतृत्व

नयति इति नायकः, अर्थात ऐसा व्यक्ति जो वैचारिक आधार पर जनमानस का नेतृत्व करे। उस व्यक्ति में नेतृत्व का गुण हो, दृष्टि हो, सामर्थ्य हो। विपक्ष के लगभग सभी नेताओं में राष्ट्रीय स्तर पर देश का, देश के नागरिकों का, देश की नीतियों को नेतृत्व देने का कोई माद्दा नहीं है।

सबसे बड़ी बात यह है कि इन दलों के बीच, इनके नेताओं के बीच ही कोई ऐसा नेता नहीं है जो इन दलों में ही सर्वमान्य हो और जिसको सभी स्वीकार कर सकें। आम आदमी पार्टी को कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार नहीं होगा। केजरीवाल किसी भी कीमत पर राहुल गांधी को अपना नेता नहीं मान सकते हैं। वहीं कांग्रेस का हाल ये है कि वो राहुल गांधी के अतिरिक्त किसी को नेता स्वीकार नहीं कर सकती।

उसी प्रकार सपा-बसपा का एक प्रयोग 2019 के लोकसभा चुनावों में हुआ था लेकिन यह पूरी तरह से असफल रहा। लालू और नीतीश की पार्टी में भी नेतृत्व को लेकर विवाद तय है। ये साथ मिलकर बिहार में भले सरकार चला रहे हों, लेकिन जब केंद्र की बात आएगी तो ‘नेता कौन’ के सवाल पर इनमे सिरफुटौव्वल की पूरी संभावना है। ममता बैनर्जी और वामपंथी दल भी एक साथ एक मंच पर आने में परहेज करेंगे।

इसके पीछे कारण यही है कि इन दलों ने कहीं न कहीं एक दूसरे का विरोध कर के अपनी-अपनी राजनीति को स्थापित किया है। इसलिए यदि यह दल एक होते हैं (जो कि अभी असंभव सा प्रतीत होता है) तो सबसे ज्यादा मुश्किल इन दलों को अपने राज्यों में, अपने कार्यकर्ताओं के बीच होगी।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिलहाल सभी समान विचारधारा (मोदी विरोध) के दलों के पास पहुँच रहे हैं। यह संभव है कि इस भागादौड़ी में वह अपनी दावेदारी का टोह भी ले रहे हैं। पिछले दिनों वे राहुल गांधी से मिले तो हाल ही में ममता बनर्जी से भी उन्होंने मुलाकात की है। हालाँकि हर जगह वह यही कह रहे हैं कि वे प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं। मगर उनके इस कथन का वास्तविकता से कितना संबंध है, ये समझना कोई मुश्किल बात नहीं है।

नीयत

अंतिम और सर्वाधिक ध्यान देने योग्य तथ्य है नीयत। विपक्ष के नेताओं की नीयत है येन केन प्रकारेण सत्ता की प्राप्ति। ध्यान दें तो विपक्षी एकता की चर्चा केवल वही नेता करते हैं जिन्हें सत्ता की प्राप्ति करनी है। यह दल और इनके नेता अलग-अलग समय पर अलग-अलग दलों से गठबंधन करते हैं। 2014 के चुनावों से ही ऐसे दलों का एक लक्ष्य है सत्ता की चौखट। लेकिन यह दल लगातार हार रहे हैं, तो इसका कारण है यही है कि जनता समझती है कि इन दलों में और इनके नेताओं में देश के विकास की कोई नीयत नहीं है।

साफ़ है कि विपक्षी एकता की भावना महज चुनावी है। इससे जनसरोकार का कोई जुड़ाव नहीं है। संभव है कि आगामी लोकसभा चुनाव का परिणाम एक बार फिर अपने स्वहित के लिए बनाई गई विपक्षी एकता की असफलता का नवीनतम उदाहरण बन जाए।

(प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं।)