मुस्लिम औरतों का हक़ छिनकर इस्लाम की कौन-सी शान बढ़ाएंगे, मिस्टर मौलाना ?

नेशनल लॉ कमीशन की प्रश्नावली पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का रवैया दुर्भाग्यपूर्ण है। लॉ कमीशन ने नागरिकों के विचार के लिए सिर्फ़ एक प्रश्नावली रखी है। उसने इस प्रश्नावली में यह भी नहीं कहा है कि समान नागरिक संहिता लागू कर ही दी जाएगी, बल्कि उसने इस पर एक स्वस्थ चर्चा की बुनियाद डालने का प्रयास किया है। इस प्रश्नावली का पहला सवाल है- “क्या आप जानते हैं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में यह उपबंधित है कि राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा?” इसमें पांचवां सवाल है- “क्या एक समान नागरिक संहिता वैकल्पिक होनी चाहिए?” इसमें प्रंदहवां सवाल है- “क्या एक समान सिविल संहिता किसी व्यक्ति के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार उल्लंघन करती है?”

क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग पाकिस्तान के कट्टरपंथियों से भी अधिक कट्टरपंथी, दकियानूसी और स्त्री विरोधी है? जिस तीन तलाक के मुद्दे पर यह बोर्ड देश में गृहयुद्ध छेड़ने की धमकी दे रहा है, उस तीन तलाक को तो मजहब की बुनियाद पर बने इस्लामिक देश पाकिस्तान में भी नहीं माना जाता। तीन तलाक की कुरीति को सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, भारत के पड़ोसी देशों अफगानिस्तान और बांग्लादेश में भी फॉलो नहीं किया जाता। इनके अलावा ईरान, मिस्र, इंडोनेशिया, तुर्की, ट्यूनीशिया जैसे करीब बीस मुस्लिम देश और हैं, जिन्होंने इस्लामी समाज में व्याप्त इस कुरीति को खत्म करने के लिए अपने निकाह कानून में बदलाव किए हैं।

इन चंद सवालों से ज़ाहिर है कि मंशा कॉमन सिविल कोड थोपने की नहीं, बल्कि इसपर एक विचार-विमर्श की शुरुआत करने भर की है। और विचार-विमर्श की शुरुआत भी कोई इसलिए नहीं कि यह बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में है या नरेंद्र मोदी सरकार को अपनी तथाकथित विफलताओं से ध्यान हटाने के लिए रातों-रात कोई सपना आया। विचार-विमर्श इसलिए कि खुद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार से जवाब-तलब किया है। और सुप्रीम कोर्ट की इस पहल के पीछे भी किसी समुदाय को निशाना बनाने की मंशा नहीं है। एक तो संविधान का अनुच्छेद 44 है, जो कहता है कि राज्य भारत के समस्त नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू कराने का प्रयास करेगा और दूसरा, जब सुप्रीम कोर्ट के सामने अलग-अलग धर्मों-संप्रदायों को मानने वाले लोगों के मामले पहुंचते हैं, तो एक समुदाय के मामले में उसके सामने कोई और कानून होता है, दूसरे समुदाय के मामले में कोई और कानून होता है।

मनमाने तरीके से कानून मानना या न मानना अलग-अलग समुदायों को अच्छा या बुरा लग सकता है, लेकिन न्याय के लिहाज से इसे बिल्कुल भी ठीक नहीं कहा जा सकता, कि हिंदू महिलाओं के लिए अलग कानून हो, मुस्लिम महिलाओँ के लिए अलग कानून हो और किसी और जाति या संप्रदाय की महिलाओं के लिए अलग कानून। नेशनल लॉ कमीशन ने जब कॉमन सिविल कोड पर चर्चा छेड़ी है, तो उससे कहीं भी यह संकेत नहीं मिलता कि यह सिविल कोड देश के किसी भी नागरिक की पूजा पद्धति, आस्था या उपासना की स्वतंत्रता को रेगुलेट करेगा, बल्कि इसे पारिवारिक कानूनों तक सीमित रखने की बात कही गई है, जिसका सीधा-सीधा संबंध महिलाओँ के अधिकारों से है। इसमें हिंदू महिलाओँ के अधिकारों से जुड़े सवालों पर भी चर्चा आमंत्रित की गई है औऱ ज़ाहिर तौर पर मुस्लिम और ईसाई महिलाओँ के अधिकारों से जुड़े मामलों पर भी राय मांगी गई है।

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नेशनल लॉ कमीशन की प्रश्नावली में आठवां सवाल है कि “क्या यह सुनिश्चित किये जाऩे के लिए उपाय किए जाने चाहिए कि हिंदू स्त्री अपने उस संपत्ति अधिकार का बेहतर ढंग से प्रयोग करने में समर्थ है, जो प्रायः पुत्रों को रूढ़िजन्य प्रथाओं के अधीन वसीयत में दिया जाता है।” लोगों को मालूम होना चाहिए कि हिंदू धर्म के अनुयायियों में भी कुछ साल पहले तक बेटियों को पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं था। एक कानून के तहत उन्हें यह अधिकार दिया भी गया, लेकिन ज्यादातर मामलों में इसे व्यावहारिक तौर पर लागू नहीं किया जा सका है।

इसी तरह से इस प्रश्नावली में नौवां सवाल यह है कि “क्या आप सहमत हैं कि विवाह विच्छेद को अंतिम रूप देने के लिए दो वर्ष की प्रतीक्षा अवधि से क्रिश्चियन स्त्री के समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है?” जाहिर तौर इस प्रश्नावली में सातवां सवाल यह भी है कि

“क्या तीन बार तलाक की प्रथा को

(क) पूर्णतः समाप्त कर दिया जाना चाहिए

(ख) रूढ़ि को बने रहने दिया चाहिए

(ग) उपयुक्त संशोधनों के साथ बने रहने देना चाहिए?”

इन सवालों से दो बातें बिल्कुल साफ़ हैं कि समान नागरिक संहिता की बात महज पारिवारिक और उसमें भी विशेषकर महिलाओँ के अधिकारों से जुड़े मुद्दों को लेकर की गई है। इसमें हिंदू समाज में प्रचलित रूढ़ियों पर भी सवाल पूछे गये हैं और ईसाई समाज में प्रचलित रूढ़ियों पर भी सवाल पूछे गए हैं। दूसरा- मुस्लिम समाज में प्रचलित तीन तलाक की रुढ़ि पर सवाल तो पूछे गए हैं, लेकिन कहीं यह नहीं कहा गया है, कि इसे खत्म ही कर दिया जाएगा। समाज से यह पूछा गया है कि वो इसे खत्म करना चाहते हैं, बनाए रखना चाहते हैं या इसमें संशोधन चाहते हैं।

प्रश्नावली का छठा सवाल भी उल्लेखनीय है, जिसमें पूछा गया है कि “क्या निम्नलिखित प्रथाओं पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए और उन्हें भी नियमित किया जाना चाहिए।”

(क) बहु विवाह

(ख) बहुपति प्रथा

(ग) अन्यत्र मैत्री करार

अक्सर मुस्लिम समाज में बहुविवाह प्रथा पर ऊंगली उठने पर विरोध के स्वर उठने लगते हैं, लेकिन इस सवाल में जहां बहु-विवाह प्रथा पर राय मांगी गई है, वहीं अन्यत्र मैत्री करार पर भी जवाब मंगाए गए हैं, जो कि गुजरात के हिंदुओं से जुड़ी हुई प्रथा है।

ऐसे में कोई संगठन अगर इसमें अपने धर्म के ख़िलाफ़ कोई साजिश देख रहा है, तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है? उसपर भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव वली रहमानी का यह कहना कि सरकार मुसलमानों के खिलाफ युद्ध छेड़ना चाहती है, या लॉ कमीशन के सवाल मुसलमानों के खिलाफ हैं, या कोई धोखा है- यह अपने आप में समूचे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की समझदारी पर सवाल खड़े करती है। जब सवाल दूसरे समुदायों की रूढ़ियों को लेकर भी हैं, तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के भीतर ही यह बेचैनी क्यों? सवालों के बहिष्कार का ऐलान क्यों?

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड धार्मिक आजादी की बात कर रहा है, लेकिन कुरीतियों को समाज का हिस्सा बनाए रखना कौन सी आजादी है। क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग पाकिस्तान के कट्टरपंथियों से भी अधिक कट्टरपंथी, दकियानूसी और स्त्री विरोधी है? जिस तीन तलाक के मुद्दे पर यह बोर्ड देश में गृहयुद्ध छेड़ने की धमकी दे रहा है, उस तीन तलाक को तो मजहब की बुनियाद पर बने इस्लामिक देश पाकिस्तान में भी नहीं माना जाता। तीन तलाक की कुरीति को सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, भारत के पड़ोसी देशों अफगानिस्तान और बांग्लादेश में भी फॉलो नहीं किया जाता। इनके अलावा ईरान, मिस्र, इंडोनेशिया, तुर्की, ट्यूनीशिया जैसे करीब बीस मुस्लिम देश और हैं, जिन्होंने इस्लामी समाज में व्याप्त इस कुरीति को खत्म करने के लिए अपने निकाह कानून में बदलाव किए हैं।

सवाल उठता है कि भारत के मुसलमान कब तक शरीयत के नाम पर इस बुराई को अपनी महिलाओँ के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करते रहेंगे? तीन तलाक जैसी कुरीति को चुनौती देने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले लोग कोई हिंदू या ईसाई नहीं हैं, बल्कि इनमें ज्यादातर हमारी मुस्लिम बहनें ही हैं। कई ऐसे मामले भी अदालतों में पहुंचे हैं, जिनमें पति ने चिट्ठी लिखकर, ईमेल करके, फोन करके या व्हाट्स ऐप मैसेज करके तीन बार तलाक लिख या बोल दिया, तो महिला अपने मासूम बच्चों के साथ सड़क पर आ गई। सवाल है कि धर्म के नाम पर हमारी मुस्लिम मांओं-बहनों के ऊपर कब तक इस तरह के अत्याचार किए जाते रहेंगे? आज ज़रुरत इस बात की है कि मुस्लिम समाज ठंडे दिमाग से बिना धर्म और राजनीति को बीच में लाए अपनी मांओं-बहनों के बारे में सोचे। धर्म सिर्फ मर्दों का नहीं होता, सिर्फ मर्दों से कोई समाज भी नहीं बनता। धर्म के नाम पर अपनी आधी आबादी पर अत्याचार करते रहना उस धर्म को भी कलंकित करना है।

एक बात और। अगर मोदी के विरोध के नाम पर कोई समाज अपनी महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखना चाहता है, तो यह तो और अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। मुझे यह कहते हुए अफ़सोस है कि तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दकियानूसी और स्त्री-विरोधी रवैये से भारत के मुसलमानों की छवि तालिबानियों जैसी बन जाएगी।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)