बस प्रकरण : लोगों की ‘सेवा’ का दावा कर रही कांग्रेस की मंशा पर उठते हैं गहरे सवाल

देखने-सुनने में तो प्रियंका गांधी की बसें चलाने की बात अच्छी लगती है, लेकिन इस विषय पर ठहर कर सोचने और सामने आए तथ्यों के बाद यह प्रियंका गांधी के द्वारा उनकी पार्टी की झूठ और भ्रष्टाचार से पटी सियासत की विरासत को आगे बढ़ाने और मजदूरों के नाम पर राजनीति की रोटियां सेंकने के छल के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्रतीत होता।

भारतीय राजनीति में एक समय तक चुनावी वादों को महज छलावा समझा जाता रहा है। आजादी के बाद जो राजनीतिक रवायत चली उसमें पार्टियाँ लगातार चुनाव के समय वादें करती और बाद में उन्हीं को अगले चुनावों में भी इस्तेमाल किया जाता। इस तरह यह एक सामान्य प्रक्रिया बन गयी और चुनावी वादे महज छलावा। हमने इंदिरा गांधी का दौर देखा कि किस तरह भारत में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे दिए गए लेकिन उसके बाद भी उन्हीं की पार्टी की कई बार सरकारें रहीं मगर देश में गरीबों की स्थिति और गरीबी यथावत बनी रही।

कुल मिलाकर जो बात कहनी थी वह यह है कि सत्तारूढ़ दल द्वारा कही गयी बातों की कोई जवाबदेही नहीं रहती थी लेकिन नरेंद्र मोदी के शासन के बाद से अब इस आदत को भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में बदलने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन लगता है कि कांग्रेस पार्टी की यह आदत अभी भी ख़त्म नहीं हुई है। मौजूदा संकट के समय में प्रियंका गांधी के एक हज़ार बसों से मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की बातों के साथ भी ऐसा ही कुछ होता हुआ नज़र आ रहा है।

कोरोना के इस भीषण समय में बड़े-बड़े महानगरों से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर श्रमिकों का पलायन बड़ी मात्रा में जारी है। ऐसी स्थिति में मजदूरों के दर्द साझा करने के क्रम में, उनको सहूलियत देने की बात प्रियंका गांधी ने कही और ऐलान किया कि वे उन्हें कांग्रेस पार्टी की तरफ से एक हज़ार बसें मुहैया कराएंगी जिससे उन मजदूरों को उनके घर पहुँचाया जाएगा।

साभार : IndiaTv

असल में मजदूरों के नाम पर राजनीति यहीं से शुरू हुई। उनके इस बयान के बाद पूरी मीडिया में यह खबर फ़ैल गयी। जैसा पहले ज़िक्र किया जा चुका है कि कुछ भी कह देने की आदत और उसके बाद उस बात पर जवाबदेही न होना यहां की राजनीतिक आदत में शमिल है। हो सकता है प्रियंका गांधी का यह दांव ऐसा ही रहा हो।

चूंकि प्रियंका गांधी ने यह ऐलान किया, ताकि इससे बात यह सामने आए कि सरकार और सत्ता में न रहते हुए भी कांग्रेस पार्टी मजदूरों के हितों का ख़याल कर रही है, जब सत्ताएं मजदूरों को साधन मुहैया नहीं करा पा रही हैं। इस तरह कांग्रेस पार्टी मसीहा बन कर सामने आती। उन्हें लगा कि उत्तर प्रदेश सरकार इस पर चुप्पी साध लेगी, बैकफुट पर आ जायेगी  और इसी बहाने इनकी राजनीति सफल रहेगी।

प्रियंका गांधी का आरोप था कि हम एक हज़ार बसों के साथ तैयार हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार हमें अनुमति नहीं दे रही है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से तुरंत पत्र लिखकर यह कहा गया कि हम इसके लिए तैयार हैं। आप हमें उन एक हज़ार बसों के विवरण, उनके फिट होने का प्रमाण, उनके चालकों का विवरण मुहैया कराएँ, ताकि हम इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकें।

यह कहने की देर थी कि प्रियंका गांधी और उनकी पार्टी में एक तरह की हलचल देखने को मिली कि शायद उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार से ऐसे उत्तर और सहयोग की उम्मीद नहीं थी। अब जवाबदेही का समय प्रियंका गांधी का था, जिन पर जल्द से जल्द एक हज़ार फिट बसों को उनके चालकों के साथ मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी थी। जब उत्तर प्रदेश सरकार को एक हज़ार बसों की लिस्ट सौंपी गयी तो कुछ अलग ही तथ्य उजागर हुए।

शायद प्रियंका गांधी की परिभाषा के अनुसार चार पहिए का एम्बुलेंस, चार पहिए वाली कार, तीन पहिए वाला ऑटो रिक्शा, सामान ढोने वाली गाड़ियों को बस कहा जाता है इसलिए उनके द्वारा दी गयी एक हज़ार बसों की सूची में ये वाहन भी शामिल पाए गए। आरटीओ विभाग के द्वारा लखनऊ पुलिस कमिशनर को सौंपी रिपोर्ट के मुताबिक़ कांग्रेस द्वारा मुहैया कराई गयी 1049 वाहनों की सूची में 879 ही बसें हैं, जबकि बाकी वाहन ट्रक, ऑटो, एम्बुलेंस आदि हैं। इससे जाहिर है कि बिना वाहनों के समुचित प्रबंध के ही प्रियंका गांधी घोषणा करती घूम रही थीं। क्या इसे मजदूरों के नाम पर होने वाली राजनीति न कहा जाए?

एक तरफ राहुल गांधी यह बयान देते हैं कि यह महामारी का समय राजनीति  भूल कर एक साथ काम करने का है, लेकिन फिर यह क्या है? क्या राहुल गांधी का वह बयान भी महज़ राजनीति से प्रेरित था? कांग्रेस पार्टी को इसका मुकम्मल जवाब देना चाहिए।

साभार : dailyhunt

सबसे महत्वपूर्ण बात एक हज़ार बसों के ऐलान के बाद प्रियंका गांधी की मंशा पर है। जिन बसों की कतारें मीडिया दिखा रही है जो कथित रूप से कांग्रेस पार्टी द्वारा मजदूरों को घर भेजने के लिए खड़ी हैं, उनमें राजस्थान सरकार के परिवहन विभाग की बसें भी शामिल हैं। यदि आपको यह कार्य करना था तो राजस्थान से जो बसें यहाँ कतारबद्ध की गयीं थी, उनमें राजस्थान से श्रमिकों को क्यों लेकर नहीं आया गया?

यदि ऐसी पहल पहले उन्होंने की होती तो जिन मजदूरों की जान राजस्थान से आने के क्रम में हुई शायद वह दुर्घटना न हुई होती। यदि आपको सच में यह करना था तो मुंबई में लाखों की संख्या में मजदूर फँसे हुए हैं, वहां पर आपकी ही पार्टी की मिली जुली सरकार है, वहां यह पहल क्यों नहीं की गयी?क्या वहां एक बार भी इस बारे में चर्चा भी करना ज़रुरी समझा गया? जबकि मुंबई में आज फिर झूठी ट्रेन के अफवाह पर पांच हज़ार से अधिक श्रमिक रेलवे स्टेशन पर जुट गए।

यदि वास्तव में प्रियंका गांधी को मजदूरों के हित के लिए कार्य करना था तो उन्हें बहस को उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं करना चाहिए था, अपितु उससे पूर्व महाराष्ट्र में जितने पूर्वांचल के श्रमिक अपने घर-गाँव वापस लौटने के लिए छटपटा रहे थे, उनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए था।

समग्रतः देखने-सुनने में तो यह एक शानदार पहल लगती है, लेकिन इस विषय पर ठहर कर सोचने के बाद यह प्रियंका गांधी के द्वारा उनकी पार्टी की झूठ और भ्रष्टाचार से पटी सियासत की विरासत को आगे बढ़ाने और मजदूरों के नाम पर रोटी सेंकने के छल के अतिरिक्त और कुछ नहीं प्रतीत होता।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)