आपदा की इस घड़ी में तो अपनी वोटबैंक की संकीर्ण राजनीति से बाज आए कांग्रेस!

जो सोनिया गांधी कह रही हैं कि 1947 के बंटवारे के बाद लॉकडाऊन में देश ने पहली बार ऐसा दिल दहलाने वाला मंजर देखा है, वे यह भूल रही हैं कि दोनों घटनाओं के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्‍मेदार है। यदि देश विभाजन कांग्रेस की मुस्‍लिम तुष्‍टीकरण की नीतियों का नतीजा था तो मजदूरों का पलायन कांग्रेस के लगभग पचास-पचपन सालों के एकछत्र राज पर तमाचा है।

घर लौट रहे मजदूरों को किराया देने की घोषणा कर वाहवाही लूटने का उतावलापन दिखाने वाली कांग्रेस की अंतरिम अध्‍यक्षा सोनिया गांधी को पहले यह बताना चाहिए कि केंद्र व राज्‍यों में पचास साल तक कांग्रेस के एकछत्र शासन के बावजूद देश का संतुलित विकास क्‍यों नहीं हुआ? करोड़ों लोगों को दो वक्‍त की रोटी के लिए देश के नगरों में दड़बेनुमा कमरों में गुजारा करने को क्‍यों विवश होना पड़ रहा है? 

कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी (साभार : OrissaPost)

दुनिया की सबसे उर्वर जमीन वाले गंगा-यमुना के मैदान आज मजदूरों की आपूर्ति करने वाली मंडी क्‍यों बन गए हैं? जिस झारखंड-उड़ीसा के खनिजों और कोयला से दक्षिण व पश्‍चिमी भारत में विकास की नई गाथा लिखी गई उसी झारखंड-उड़ीसा में आज गरीबी-बेकारी का घटाटोप अंधियारा क्‍यों छाया हुआ है? 

देखा जाए तो सिमटते जनाधार के बावजूद कांग्रेस पार्टी आज भी वोट बैंक की राजनीति से अपने को मुक्‍त नहीं कर पाई है। मजदूरों की वापसी का किराया देने का दावा कर वह मजदूरों और उनके परिजनों का मसीहा बनने की कवायद में जुटी है ताकि वोट बैंक की राजनीति का पाया मजबूत बने। कांग्रेस के लिए सत्‍ता ऑक्‍सीजन का काम करती है। जिस प्रकार प्राणी बिना ऑक्‍सीजन के जीवित नहीं रह सकता उसी प्रकार कांग्रेस सत्‍ता रूपी ऑक्‍सीजन के सहारे जिंदा है। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि कांग्रेस के लिए सत्‍ता साधन न होकर साध्‍य है। इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस शासित राज्‍यों में गरीबी, बेकारी, असमानता, दंगों की फसल खूब लहलहाई। 

कांग्रेस की सत्‍ता लोभी राजनीति को बिहार-उत्‍तर प्रदेश के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। आजादी के बाद से ही कांग्रेस ने इन दोनों सूबों में एकछत्र राज किया लेकिन विकास के नाम पर उपहार दिया तो पिछड़ेपन का। यही कारण है कि 1990 के दशक में इन दोनों सूबों से कांग्रेस सत्‍ता से बाहर हो गई। 

1990 के दशक में जब पुणे, बंगलोर, हैदराबाद, चेन्‍नई में साफ्टवेयर उद्योग की नींव पड़ रही थी तब उत्‍तर प्रदेश-बिहार में कांग्रेस की विरासत पर जातिवादी ताकतें वर्चस्‍व स्‍थापित करने में जुटी थीं। भाजपा को मजबूत बनने से रोकने को संकल्‍पबद्ध कांग्रेस पार्टी परोक्षअपरोक्ष रूप से इस जातिवादी राजनीति को खाद-पानी दे रही थी। 

इसका परिणाम यह हुआ कि जहां बिहार-उत्‍तर प्रदेश विकास की दौड़ में पिछड़ते गए वहीं दक्षिण भारतीय राज्‍यों और देश के महानगरों ने बाजी मार ली। इसके बाद उत्‍तर प्रदेश व बिहार से दक्षिण भारत और महानगरों की ओर कुशल-अकुशल कामगारों का पलायन शुरू हुआ। 

इस दौर में केंद्र में कांग्रेस की या उसके समर्थन से चलने वाली गठबंधन सरकारों ने उत्‍तर प्रदेश-बिहार को पिछड़ेपन से उबारने की योजना बनाने के बजाय यहां से लंबी दूरी की रेलगाड़ियां चलाई ताकि कुशल-अकुशल कामगारों के पलायन को बढ़ावा मिले। इसका नतीजा यह हुआ कि एक ओर महानगरों में भीड़ बढ़ी तो दूसरी ओर इन राज्‍यों के गांव वीरान होते गए। 

जाति की राजनीति करने वाली ताकतों ने इसे अपने मुफीद मानकर वर्ग संघर्ष को बढ़ावा दिया ताकि उनकी सत्‍ता बनी रहे। इस प्रकार जो काम कांग्रेस ने धर्म के आधार पर किया था, वही काम उत्‍तर प्रदेश-बिहार में जातिवादी ताकतों ने जाति की राजनीति करके किया। 

वोट बैंक की राजनीति ने देश से भारी कीमत वसूल की है। ऐसे में, आज  कांग्रेस पार्टी को कम से कम आपदा की इस घड़ी में तो बांटने के बजाए जोड़ने वाली राजनीति करनी चाहिए। इससे न सिर्फ कोरोना से लड़ने में मदद मिलेगी बल्‍कि संभव है कि कांग्रेस के प्रति देश की सोच भी बदले।

(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)