भाषा की ताकत जाननी हो तो पाकिस्तान का यह इतिहास पढ़ लीजिये !

जिन्ना ने सोचा भी नहीं होगा कि जिस मुल्क को उन्होंने मजहब के नाम पर खड़ा किया, वह बनने के 25 साल के बाद जुबान के सवाल पर ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा। आपको पता है कि ईस्ट पाकिस्तान बंगाल के बंटने के चलते सामने आया था। पहले तो वह बंगाल का ही भाग था। पाकिस्तान की कुल आबादी का 56 फीसद ईस्ट पाकिस्तान से आता था। वहां की जनता बांग्ला को उर्दू के बराबर दर्जा ना दिए जाने से खफा थी। ईस्ट पाकिस्तान बांग्ला को उर्दू वाला दर्जा देने की ही मांग कर रहा था। इससे कम उसे कुछ भी नामंजूर ही था।

पाकिस्तान के लिए दो तारीखें अहम हैं।  24 मार्च, 1940 और 21 फरवरी,1952। आप कह सकते हैं कि 24 मार्च, 1940 को पाकिस्तान की स्थापना की बुनियाद रखी गई थी। और 21 मार्च, 1948 को उसी पाकिस्तान को दो भागों में बांटने की जमीन तैयार की गई। संयोग देखिए कि इन दोनों तारीखों से एक खास शख्स जुड़ा है। इसका नाम है मोहम्मद अली जिन्ना।

दरअसल 24 मार्च, 1940 को लाहौर की बादशाही मस्जिद के ठीक आगे बने मिन्टो पार्क (अब इकबाल पार्क) में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग का प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव मशहूर हुआ पाकिस्तान प्रस्ताव के नाम से। इसमें कहा गया था कि वे (अखिल भारतीय मुस्लिम लीग) मुसलमानों के लिए पृथक राष्ट्र का ख्वाब देखती है। वह इसे पूरा करके ही रहेगी। प्रस्ताव के पारित होने से पहले मोहम्मद अली जिन्ना ने अपनी दो घंटे लंबी चली बेहद आक्रामक तकरीर में कहा था- “हिन्दू–मुसलमान दो अलग मजहब हैं। दो अलग विचार हैं। दोनों की परम्पराएं और इतिहास अलग है। दोनों के नायक अलग हैं। इसलिए दोनों कतई साथ नहीं रह सकते।“

मोहम्मद अली जिन्ना

जिन्ना ने अपनी तकरीर के दौरान लाला लाजपत राय से लेकर चितरंजन दास तक को कोसा। उनके भाषण के दौरान  मुस्लिम लीग के एक प्रतिनिधि मलिक बरकत अली ने ‘लाला लाजपत राय को राष्ट्रवादी हिन्दू कहा।‘ जवाब में जिन्ना ने कहा, ‘कोई हिन्दू नेता राष्ट्रवादी नहीं हो सकता। वह पहले और अंत में हिन्दू ही है।‘ और वक्त का पहिया कैसे घूमा कि लाहौर प्रस्ताव पारित होने के सात साल के भीतर पाकिस्तान विश्व मानचित्र पर आ गया। इतने कम समय में तो हमारे इधर उत्तराखंड, झारखंड या तेलगांना भी नहीं बने थे। इन राज्यों के लिए सालों-दशकों लंबी लड़ाई लड़ी गई।

खैर, 14 अगस्त, 1947 पाकिस्तान का उदय हो गया। भारत का बंटवारा हो गया। पाकिस्तान का ख्वाब पूरा हो जाता है, उसके कुछ महीनों के बाद जिन्ना देश के पहले गवर्नर जनरल के रूप में ढाका पहुंचते हैं। पूर्वी पाकिस्तान के अवाम को उम्मीद थी कि वे उनके हक में कुछ अहम घोषणाएं करेंगे। जिन्ना ने 21 मार्च, 1948 को ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक सार्वजिनक सभा को संबोधित किया। जिन्ना ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी। हालांकि वे खुद उर्दू नहीं जानते थे। उन्होंने बेहद कठोर अंदाज में कहा कि ‘सिर्फ उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा रहेगी जो इससे अलग तरीक से सोचते हैं, वे मुसलमानों के लिए बने मुल्क के शत्रु हैं।’

पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में उर्दू को थोपे जाने का विरोध हो ही रहा था, इस घोषणा से तो जनता में गुस्से की लहर दौड़ गई। जिनकी मातृभाषा बांग्ला थी, वे जिन्ना के आदेश को मानने के लिए तैयार नहीं थे। जाहिर तौर पर उन्होंने पृथक मुस्लिम राष्ट्र का हिस्सा बनने का तो फैसला किया था, पर वे अपनी बांग्ला संस्कृति और भाषा से दूर जाने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे।

पर जिन्ना ने सोचा भी नहीं होगा कि जिस मुल्क को उन्होंने मजहब के नाम पर खड़ा किया, वह बनने के 25 साल के बाद जुबान के सवाल पर ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा। आपको पता है कि ईस्ट पाकिस्तान बंगाल के बंटने के चलते सामने आया था। पहले तो वह बंगाल का ही भाग था। पाकिस्तान की कुल आबादी का 56 फीसद ईस्ट पाकिस्तान से आता था। वहां की जनता बांग्ला को उर्दू के बराबर दर्जा ना दिए जाने से खफा थी। ईस्ट पाकिस्तान बांग्ला को उर्दू वाला दर्जा देने की ही मांग कर रहा था। इससे कम उसे कुछ भी नामंजूर ही था।

ढाका क्यों नहीं बना राजधानी

बांग्ला की अनदेखी के सवाल के बाद तो ईस्ट पाकिस्तान की जनता का पाकिस्तान से मोहभंग होने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कराची को ढाका से छोटा होने के बाद भी देश की राजधानी क्यों बनाया गया। सेना और सरकारी नौकरियों में ईस्ट पाकिस्तान की कम नुमाइंदगी भी अहम असंतोष की वजहें थीं। ईस्ट पाकिस्तान को यह भी लग रहा था कि जूट के एक्सपोर्ट से मुल्क को जो आय होती है, उसे भी ईस्ट पाकिस्तान को नहीं दिया जाता।

इस बीच, जिन्ना का इंतकाल हो चुका था। ईस्ट पाकिस्तान में उर्दू को थोपने का विरोध जारी था। इसी सवाल पर 21 फरवरी,1952 को ढाका यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी, गणित विभाग के आगे प्रदर्शन कर रहे थे। बस, तब ही पाकिस्तानी  रेंजर्स ने उन पर अंधाधुंध गोलीबारी करनी शुरू कर दी। उस दिल-दलहाने वाली घटना में दर्जनों छात्र मारे गए। इस घटना के बाद तो ईस्ट पाकिस्तान कभी मन से पाकिस्तान का हिस्सा रहा ही नहीं। छात्रों पर गोलीबारी की उस घटना ने मुस्लिम लीग की टू नेशन थ्योरी को धूल में मिलाकर रख दिया। और इसके साथ ही इस्लाम के नाम पर बना मुल्क टूट की तरफ बढ़ने लगा।

 बांग्ला का अपमान

एक बात साफ है कि जिन्ना से लेकर पाकिस्तान के दूसरे शासकों ने बांग्लाभाषियों के अपनी मातृभाषा को लेकर प्रेम और सम्मान के जज्बे को कभी महसूस ही नहीं किया। अगर किया होता तो पाकिस्तान शायद ना बिखरता। भाषा का सवाल मुस्लिम लीग के लिए पहले से ही एक बड़ा गंभीर रूप ले चुका था। अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के लखनऊ में 1937 में हुए सम्मेलन में बंगाल के प्रतिनिधियों ने आगाह किया था कि पृथक मुस्लिम राष्ट्र बनने की हालत में वे अपने सूबे में किसी अन्य जुबान को थोपे जाने का पुरजोर विरोध  करेंगे। बहरहाल, आज (21 फरवरी) सारी दुनिया विश्व मातृभाषा दिवस मना रही  है। पर क्या पाकिस्तान में कोई उन सवालों के जवाब खोजने की चेष्टा कर रहा होगा जिनके चलते पाकिस्तान बिखरा ?

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)