संघ की संकल्पना : ‘सेवा उपकार नहीं, करणीय कार्य है’

हालाँकि, संघ के स्वयंसेवक जिस कार्य को हाथ में लेते हैं, उसे पूर्ण करके ही छोड़ते हैं। तब भी सरसंघचालक ने कहा कि अपने प्रयासों में सातत्य रहना चाहिए। हमें न तो ऊबना है और न ही थकना है। निरंतर कार्य करते रहता है। बल्कि उन्होंने कहा कि कोरोना के समाप्त होने के बाद भी संपूर्ण व्यवस्था को पुन: चलायमान बनाने के लिए भी अतिरिक्त कार्य की आवश्यकता होगी, उसकी भी तैयारी रहनी चाहिए। यह संघ की दूरदृष्टि है कि वह न केवल वर्तमान संकट से निपटने के लिए प्रयत्नशील है, बल्कि भविष्य में होने वाली कठिनाईयों की ओर भी देख रहा है।

देश के किसी भी हिस्से में, जब भी आपदा की स्थितियां बनती हैं, तब राहत/सेवा कार्यों में राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के कार्यकर्ता बंधु अग्रिम पंक्ति में दिखाई देते हैं। चरखी दादरी विमान दुर्घटना, गुजरात भूकंप, ओडिसा चक्रवात, केदारनाथ चक्रवात, केरल बाढ़ या अन्य आपात स्थितियों में संघ के स्वयंसेवकों ने पूर्ण समर्पण से राहत कार्यों में अग्रणी रहकर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। अब जबकि समूचा देश ही कोरोना जैसे महामारी से जूझ रहा है, तब भी संघ के स्वयंसेवक आगे आकर सेवाकार्यों में जुटे हुए हैं। आश्चर्य की बात है कि स्वयंसेवकों का आपदा के समय में राहत कार्य करने का कोई विशेष प्रशिक्षण भी नहीं होता, इसके बाद भी वे अपना जीवन दांव पर लगा कर समाज हित में आगे आते हैं। इसके पीछे का भाव क्या है? रहस्य क्या है?

स्वयंसेवकों के इस समर्पण भाव को समझने के लिए 26 अप्रैल, 2020 को सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के ऑनलाइन दिए गए उद्बोधन को सुनना और समझना चाहिए। सेवाकार्यों के संबंध में उन्होंने जो बातें कहीं, उसका सार यही है कि स्वयंसेवक के लिए सेवा उपकार नहीं है, उसके लिए यह ‘करणीय कार्य है’। इसलिए संघ का स्वयंसेवक अपना दायित्व मान कर सेवाकार्य करता है।

हम (संघ के स्वयंसेवक) सेवा कार्य क्यों करते हैं? इस प्रश्न की उन्होंने सुंदर व्याख्या की। सरसंघचालक ने कहा- “सेवा कार्यों की प्रेरणा के पीछे हमारा स्वार्थ नहीं है। हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवा-कार्य नहीं करना है। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं। स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है यह सेवा।”

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत

उनके इस वक्तव्य से उन लोगों को सीख लेनी चाहिए जो सिर्फ अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए सेवा कार्य करते हैं। इस क्रम में उन्होंने आगे जो कहा, वह और भी अधिक महत्व का है। वैसा कहने के लिए सामर्थ्य चाहिए। क्योंकि वर्तमान समय में तो अपने समाज और व्यक्ति का मानस ऐसा बन गया है कि जो किया है उसका श्रेय तो लेना ही है, जो नहीं किया उसका भी श्रेय लूटने का प्रयत्न करना चाहिए।

चारों और श्रेय लेने की होड़ लगी है। ऐसी स्थिति में वह स्वयंसेवकों को मार्गदर्शित करते हुए कहते हैं- “हमें निरहंकार वृत्ति से सेवा कार्य में जुटना चाहिए। हम जो कर रहे हैं, उसमें समाज की सहभागिता है, इसलिए उसका श्रेय स्वयं न लेकर दूसरों को देना चाहिए।” जब हम कोई कार्य प्रारंभ करते हैं तो बहुत उत्साह रहता है। लेकिन जब वह लंबा खिंचने लगता है तो कार्य के प्रति ऊब पैदा होने लगती है।

कोरोना संकट में सेवा कार्य अभी तो जोर-शोर से चल रहे हैं, लेकिन यह संकट लंबा भी चल सकता है इसलिए कार्य की गुणवत्ता और मात्रा में गिरावट न आए, इसके लिए भी सरसंघचालक स्वयंसेवकों को मार्गदर्शन देते हैं।

हालाँकि, संघ के स्वयंसेवक जिस कार्य को हाथ में लेते हैं, उसे पूर्ण करके ही छोड़ते हैं। तब भी उन्होंने कहा कि अपने प्रयासों में सातत्य रहना चाहिए। हमें न तो ऊबना है और न ही थकना है। निरंतर कार्य करते रहता है। बल्कि उन्होंने कहा कि कोरोना के समाप्त होने के बाद भी संपूर्ण व्यवस्था को पुन: चलायमान बनाने के लिए भी अतिरिक्त कार्य की आवश्यकता होगी, उसकी भी तैयारी रहनी चाहिए। यह संघ की दूरदृष्टि है कि वह न केवल वर्तमान संकट से निपटने के लिए प्रयत्नशील है, बल्कि भविष्य में होने वाली कठिनाईयों की ओर भी देख रहा है।

अक्सर राष्ट्रीय विचार के विरोधी लोग संघ के संदर्भ में दुष्प्रचार करते हैं कि आरएसएस मुसलमानों-ईसाईयों से भेद करता है। किंतु, यह वास्तविकता नहीं। यह एक झूठ है, जिसे वर्षों से बोला जा रहा है। वैसे तो संघ किसी का विरोध नहीं करता है, लेकिन उन लोगों के आचरण पर आपत्ति अवश्य करता है जिनकी गतिविधियां देश-समाज के हित में नहीं होती हैं, फिर वे चाहें किसी भी संप्रदाय से संबंध रखने वाले लोग हों। आपदा की स्थिति में तो संघ के लोग किसी के साथ भी भेद नहीं रखते।

सरसंघचालक जी ने कहा भी- “हमें सबके लिए काम करना है। कोई भेद नहीं करना है। जो-जो पीड़ित हैं, वे सब हमारे अपने हैं। भारत ने जिन दवाईयों के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाया हुआ था, दुनिया के हित के लिए उस प्रतिबंध को हटाकर और स्वयं थोड़ा नुकसान सह कर भी हमने दूसरे देशों को दवाइयाँ भेजी हैं। जो माँगेंगे, उनको देंगें, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है। हम मनुष्यों में भेद नहीं करते और ऐसे प्रसंगों (संकट काल) में तो बिल्कुल नहीं करते। सब अपने हैं। जो-जो पीड़ित हैं और जिस-जिस को आवश्यकता है, उन सबकी सेवा हम करेंगे। जितनी अपनी शक्ति है उतनी सेवा करेंगे। अपने कार्य का आधार है – अपनत्व की भावना। स्नेह और प्रेम अपने व्यवहार में दिखना चाहिये।”

देशभर से सेवाकार्यों की जो तस्वीरें और वीडियो आ रहे हैं, वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि संघ के स्वयंसेवक पीड़ित के प्रति अपनत्व का भाव रखकर उनकी सहायता कर रहे हैं। संघ के स्वयंसेवक एवं राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत समविचारी संगठनों के कार्यकर्ता प्रचंड रूप से सेवाकार्य चला रहे हैं। देश के प्रत्येक राज्य-जिले में संघ की प्रेरणा से भोजन पैकेट, राशन सामग्री, दवाएं, फल, सब्जियां, मास्क और अन्य आवश्यक सामग्री का वितरण किया जा रहा है। समाज के जिस वर्ग को सहायता की आवश्यकता है, वहाँ तक यह सहायता पहुँच रही है।

संघ अपने प्रारंभ से ही ‘प्रसिद्धिपंरागमुखता’ के सिद्धांत का पालन करता रहा है। इसलिए इसमें किसी को संदेह नहीं कि संघ अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवाकार्य करता है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने स्पष्ट भी किया- “जो लोग सहयोगी बनना चाहते हैं, उनको समुचित जानकारी हो इसलिये कुछ प्रसिद्धि भी करनी पड़ती है। अपने कार्य की रचना में हम सबको सविस्तार वृत्त ठीक-ठीक पता चले, इसलिये उसको प्रकाशित करना पड़ता है। लोगों को प्रेरणा मिले, इसलिये भी ऐसे कार्य में आने वाले अनुभवों का लेखन-प्रकाशन करना पड़ता है। परन्तु अपना डंका बजाने के लिये हम ये काम नहीं कर रहे हैं।” यानी संघ के सेवाकार्यों की जो जानकारी हमारे सामने मीडिया या सोशल मीडिया के माध्यम से आ रही है, उसका उद्देश्य की संघ की शक्ति का डंका नहीं बजाना है, बल्कि अन्य लोगों को प्रेरणा देना है।

राष्ट्रीय विचार के प्रति निरंतर दुष्प्रचार के कार्य में संलग्न व्यक्तियों/संस्थाओं को सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के उद्बोधन के उस हिस्से पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिसमें वे कह रहे हैं कि कुछ लोगों की भयवश, क्रोधवश या जानबूझकर की गई गलती के कारण उससे संबंध रखने वाले पूरे वर्ग से दूरी नहीं बनानी चाहिए। कुछ लोगों की गलती के लिए सारे समूह को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

उन्होंने स्पष्ट किया कि सब जगह दोष रखने वाले लोग होते हैं। उन्होंने उचित ही कहा कि ऐसे समय में सभी लोगों को यह सावधानी रखनी होगी कि यह अपने देशहित का विषय है और इसमें हमारी भूमिका सहयोग की ही होगी, कभी भी विरोध की नहीं होगी। भारत का 130 करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है, अपना बंधु है। इस बात को ध्यान में रखना चाहिये। भय और क्रोध दोनों तरफ से नहीं करना चाहिये। जो-जो अपने समूह के समझदार लोग हैं, उन्हें अपने-अपने समूह के लोगों को इससे बचाना चाहिये और भय या क्रोधवश होने वाले ऐसे कृत्यों  में  हम लोगों को शामिल नहीं रहना चाहिए।

संभवत: उनका संकेत जमात से जुड़े लोगों की अभद्रता और उपद्रव के कारण समाज में मुस्लिम संप्रदाय के प्रति बन रहे हेय वातावरण के प्रति था। नि:संदेह जमात से जुड़े और अन्य कुछ लोगों की हरकतों के कारण सामान्य लोगों के मन में मुस्लिम संप्रदाय से दूर रहने का विचार घर करने लगा है। इस संबंध में समाज का प्रबोधन आवश्यक है। किंतु, भारत विरोधी ताकतों ने इसे एक अवसर की तरह लिया और उन्होंने इसे ‘इस्लामोफोबिया’ का विशेषण देकर वैश्विक मीडिया और सोशल मीडिया में भारत के प्रति नकारात्मक वातावरण बनाने का प्रयास किया।

सरसंघचालक जी ने ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का कुविचार रखने वालों की धूर्तता से सावधान रहने की बात भी कही। उन्होंने कहा कि हमें उनके प्रोपोगंडा से बचना है। ये लोग हमारा कुछ बिगाड़ न सकें इतनी सावधानी और इतना बल जागृत रखना जरूरी है। लेकिन हमारे मन में इसके कारण प्रतिक्रियावश कोई खुन्नस या कोई दुश्मनी नहीं होनी चाहिए।

‘वर्तमान परिदृश्य और हमारी भूमिका’ विषय पर सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का यह ऑनलाइन प्रबोधन केवल स्वयंसेवकों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह शासन-प्रशासन, समाज की सज्जनशक्ति के लिए भी पाथेय था। कोरोना संकट के बीत जाने के बाद फिर से नये और आकांक्षावान भारत के निर्माण के लिए सबको मिलकर सामूहिक प्रयास करने का आह्वान उन्होंने किया है। इस उद्बोधन में उन्होंने स्वदेशी अर्थव्यवस्था, समाज के स्वावलंबन एवं पर्यावरण संरक्षण जैसे विषयों पर भी दिशा-सूत्र दिए। उनका यह उद्बोधन ‘संघ की बात’ एवं ‘संघ के विचार’ को समाज के सामने प्रस्तुत करता है, साथ ही संघ की वास्तविक छवि को भी प्रकट करता है।

संभव है कि इस उद्बोधन से अनेक लोगों के मन से संघ के प्रति बने/बनाए गए भ्रम दूर हुए होंगे। संघकार्य की स्पष्टता भी बनी होगी। संघ के संबंध में यह बात गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि यह विशाल संगठन समय के साथ कदमताल करता है, यह सिर्फ लकीर नहीं पीटता। समय की आवश्कता के अनुरूप अपना स्वरूप तय करता है और प्रत्येक परिस्थिति में समाज-देश की सेवा में जुट जाता है।

 (लेखक विश्व संवाद केंद्रमध्यप्रदेश के कार्यकारी निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)