संघ प्रमुख के उद्बोधन के निहितार्थ बहुत गहरे हैं

संघ के स्वयंसेवक देशभर में 55 हजार से अधिक स्थानों पर तीन लाख से अधिक की संख्या में  सेवा कार्य में लगे हुए हैं। संघ प्रमुख ने उनका उत्साहवर्धन करते हुए कहा कि अपने लोगों की सेवा उपकार नहीं, वरन हमारा कर्तव्य है, जबतक हम इस लड़ाई को जीत नहीं जाते तबतक सावधानी नहीं छोड़नी है, भविष्य में राहत कार्य के साथ समाज को दिशा देने का कार्य भी हमें करना होगा।

देश में कभी भी कोई बड़ा मामला आता है अथवा कोई विमर्श खड़ा होता है, तो देश का एक बड़ा तबका यह जानने के लिए उत्सुक रहता है कि इस विषय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की क्या राय है। आज भी यह प्रश्न उठ रहा है कि मौजूदा कोरोना के महासंकट से बाहर आने एवं वर्तमान में कोरोना वायरस से उपजी चुनौतियों से निपटने की दिशा में आरएसएस किस भूमिका का निर्वहन कर रहा है?

कोरोना के संक्रमण काल में ही तबलीगी जमात और पालघर में संतों की हत्या जैसी घटनाएँ भी सामने आईं जो मानवता को शर्मसार करने वाली थीं एवं यह संकेत दे रहीं थीं कि इस लड़ाई में ये कारक बड़ी बाधा बनकर चुनौतियों को और भी बड़ा करने वाले हैं। इन विषयों पर भी संघ के विचारों की तरफ लोगों की नजर थी। इन सब परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में संघ प्रमुख द्वारा दिए गए सर्वसमावेशी उद्बोधन ने स्वयंसेवकों के साथ-साथ पूरे देश-समाज को भी धैर्यपूर्वक एकजुटता के साथ राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्यबोध से परिचित करवाने का काम किया।

आरएसएस प्रमुख ने उपयुक्त समय पर आकर वर्तमान समय के सभी प्रमुख बिंदुओं पर सिलसिलेवार ढंग से अपने विचार रखे। अतः इस नाजुक हालत में संघ प्रमुख द्वारा दिए गए वक्तव्य के निहितार्थ गहरे हैं। मानवता की रक्षा और देश को एक सूत्र में पिरोने के लिहाज़ से यह उद्बोधन यकीनन एक सार्थक संवाद के रूप में देखा जाना चाहिए, लेकिन यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि देश विभाजन के मंसूबों को हवा देने वाले गिरोह को मोहन भागवत के वक्तव्य से जोरदार झटका लगा होगा।

बहरहाल, संघ सदैव युगानुकूल सकारात्मक पहल करके समाज में चल रही विषमताओं के बीच ऐसी दृष्टि देता है जिससे किसी भी बहस को नई और सकारात्मक दिशा मिलती है। कोरोना वायरस के कहर के बीच चल रही बहस को संघ ने फिर एकबार उस दिशा की तरफ मोड़ दिया है, जहाँ मानवतावादी दृष्टिकोण की सार्थकता को बल मिलता है और मानवता विरोधी शक्तियों का दंभ छिन्न-भिन्न हो जाता है।

समझना आवश्यक है कि तबलीगीयों के मामले सामने आने के पश्चात इस विपत्तिकाल के समय ही सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़ने की कोशिश की गई। समाज में वैमनस्यता फ़ैलाने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। यहाँ तक कि एक कथित महिला एक्टिविस्ट ने गत दिनों एक विदेशी मीडिया समूह से कुछ ऐसी बातें कहीं जिनका इरादा भारत को विखंडित करने वाला था।

एक समुदाय के मन में भारत सरकार और आरएसएस को लेकर भय का महौल खड़ा कर अपनी मंशा पर कामयाबी का परचम लहराने की चेष्टा थी। भारत में कोरोना की इस बड़ी लड़ाई में मिल रहे सबके सहयोग की चर्चा आज विदेशों में हो रही है, इसके बरक्स एक कल्पनाशील नैरेटिव को खड़ा करने की कोशिश की गई।

गौरतलब है कि कथित एक्टिविस्ट ने कहा था कि भारत सरकार कोविड-19 का फायदा उठाकर मुसलमानों को भड़काने की कोशिश में थीं और इसकी तुलना उन्होंने होलोकॉस्ट के दौरान नाज़ी जर्मनी में यहूदियों से हुए बर्ताव से भी कर डाली। यह न केवल निंदनीय अपितु घातक वक्तव्य भी था। आगे वह आरएसएस से जोड़ते हुए कहती हैं कि इनके (आरएसएस) विचारक भारत के मुसलमानों को जर्मनी के यहूदियों जैसा मानते हैं।

अब हमें मोहन भागवत की बात को समझना चाहिए। अपने उद्बोधन में मोहन भागवत ने बिना किसी किन्तु-परन्तु के साफतौर पर कहा है कि 130 करोड़ लोग भारत माता के पुत्र हैं और अपने बंधू हैं। यह देश अपना है, इसलिए हम कार्य करते हैं। जो पीड़ित हैं, अपने हैं, हमें सबके लिए कार्य करना है।

भागवत ने अपरोक्ष रूप से उन लोगों को भी निशाने पर लिया जो तबलीगी जमात की हरकतों के कारण समूचे समुदाय पर सवाल खड़े कर रहे थे। सर संघचालक ने कहा कि अगर कोई गलती करे तो उसमें पूरे समूह को लपेटना और उस पूरे समाज से दूरी बनाना ठीक नहीं है। इस उद्बोधन के मार्फत संघ प्रमुख का यह सन्देश बेहद महत्वपूर्ण था।

संघ के आलोचक संघ के उपर सबसे बड़ा आरोप साम्प्रदायिकता एवं समाज को तोड़ने का लगाते हैं। अब सर संघचालक के इस बयान के बाद उन्हें विवश होकर सोचना पड़ेगा कि समाज को तोड़ने का कार्य कौन कर रहा हैं? कहीं वह कारक उनके आसपास तो मौजूद नहीं हैं।

इस बयान के उपरांत उन कथित महिला एक्टिविस्ट द्वारा खड़ी की गई झूठ की दीवार भी जमींदोज हो गई है, परन्तु उन्हें यह भी बताना चाहिए कि वो कौन विचारक हैं जो उनके कहे अनुसार सोचते हैं क्योंकि संघ के मुखिया ने तो सार्वजनिक रूप से संघ की विचार दृष्टि सबके सामने रखकर उनके झूठे नैरेटिव को खंड-खंड कर दिया है।

बहरहाल, इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी धार्मिक एकता का सन्देश दे चुके थे और संघ प्रमुख ने भी एक बड़े सांस्कृतिक संगठन के मुखिया होने के नाते एक समन्वयकारी विचार देशवासियों के समक्ष रखा।

गौरतलब है कि संघ के स्वयंसेवक देशभर में 55 हजार से अधिक स्थानों पर तीन लाख से अधिक की संख्या में  सेवा कार्य में लगे हुए हैं। संघ प्रमुख ने उनका उत्साहवर्धन करते हुए कहा कि अपने लोगों की सेवा उपकार नहीं, वरन हमारा कर्तव्य है, जबतक हम इस लड़ाई को जीत नहीं जाते तबतक सावधानी नहीं छोड़नी है, भविष्य में राहत कार्य के साथ समाज को दिशा देने का कार्य भी हमें करना होगा।

इस अवसर पर संघ प्रमुख ने पालघर की घटना पर भी दुःख जाहिर करते हुए कई गंभीर सवाल उठाए और धैर्य में रहकर सारी बातें सोचने और करने की सलाह दी। संघ प्रमुख ने समाज के प्रत्येक वर्ग के नेतृत्व को अपने-अपने समाज को भय और क्रोधवश होने वाले कृत्यों से बचाते हुए सकारात्मकता का वातावरण देश में बनाने का आह्वान किया।

लॉकडाउन समाप्त होने के पश्चात देश में आने वाली बड़ी चुनौतियों एवं अवसरों  को भी रेखांकित करते हुए मोहन भागवत ने स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग, प्लास्टिक से मुक्ति, जल एवं वृक्षों का संरक्षण तथा जैविक खेती से होने वाले लाभ की तरफ भी सबका ध्यान आकृष्ट किया।

गत दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में स्वावलंबन और आयुर्वेद जैसे विषयों का जिक्र किया था। संघ प्रमुख ने भी वैसी ही नीतियों पर की तरफ ध्यान आकर्षित किया। अत: हमें इन विचारों से अवगत होने के पश्चात यह बात समझनी होगी कि भारत की आगे की नीति में इन बिंदुओं की झलक देखने को मिल सकती है और निःसंदेह ऐसी नीतियां संकट की इस घड़ी में विश्व को भी राह दिखाएंगी।

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसियेट हैं।)