एकनाथ रानडे : जो प्रत्येक व्यक्ति में भारतीयता के भाव को जागृत करना चाहते थे

1948 में महात्मा गांधी जी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। संघ के सभी प्रमुख अधिकारी जेल में डाल दिए गए थे। ऐसे में देशव्यापी सत्याग्रह की जिम्मेदारी एकनाथ जी को दी गयी। एकनाथजी ने इतनी सफलता से सत्याग्रह का नेतृत्व किया कि वह विश्व का सबसे बड़ा सत्याग्रह कहलाया। यह सत्याग्रह 9 दिसंबर,1948 से शुरू हुआ और 20 जनवरी 1949 को समाप्त हुआ।

जैसे बोधगया का बोधिवृक्ष गौतम बुद्ध से जुड़ा हुआ है, वैसे ही कन्याकुमारी में स्थित विवेकानंद शिला (जहा आज विवेकानंद शिला स्मारक है) स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हुई है। स्वामी विवेकानंद ने यहाँ 25-27 दिसंबर 1892 को 3 दिन 3 रात साधना की थी और यही उनको अपने जीवन का उद्देश्य मिला था।उस शिला पर आज एक भव्य राष्ट्र स्मारक है जिससे हम सब विवेकानद शिला स्मारक के नाम से जानते हैं। स्मारक को 2020 में 50 वर्ष पूर्ण हुए हैं।

इस स्मारक के निर्माण के पीछे एक प्रेरणादायी और रोचक कथा है। स्मारक को बनने में लगभग 6 वर्ष का समय लगा था और यह कार्य इसीलिए व्यवस्थित पूर्ण हुआ क्योकि इसके पीछे एक ऐसा चरित्र था जिनका नाम से नहीं, उनके काम से परिचय होता है। वह है विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माता और विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के संस्थापक माननिये एकनाथजी रानडे।

विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के दौरान चाहे प्रशासनिक और राजनैतिक अनुमति लेने का कार्य हो या 3 दिन में 323 सांसदों के स्मारक के समर्थन में हस्ताक्षर करवाना हो, हर राज्य के मुख्यमंत्री से सफलतापूर्वक सहयोग राशि लेनी हो या सम्पूर्ण  भारत से 30 लाख लोगों (उस समय भारत की 1 प्रतिशत युवा जनसंख्या) से 1, 2 , या 3 रुपए भेंट स्वरुप लेकर उनको स्मारक से जोड़ना हो एकनाथजी रानडे ने हर कार्य निपुणता के साथ किया।

एकनाथ रानडे एवं उनके प्रयासों से निर्मित विवेकानंद शिला स्मारक (साभार : Google)

स्मारक के निर्माण के पूर्व में जब एकनाथजी रानडे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के तौर पर काम कर रहे थे तब तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने उनके बारे में कहा था कि – ”लोग मुझे लौह पुरुष कहते हैं, लेकिन मुझे एकनाथजी में फौलादी पुरुष नज़र आता है”। एकनाथजी का जब 22 अगस्त 1982 को स्वर्गवास हुआ तो लाख कोशिश करने के बाद भी उनका एक चित्र भी उस समय नहीं मिला था।

इतना विशाल कार्य करने वाले एकनाथजी रानडे के चित्र ना मिलने का अगर सबसे बड़ा कोई कारण था तो वह ये कि एकनाथजी रानडे ने कभी अपना नाम अपने काम से बड़ा नहीं होने दिया। राष्ट्र और समाज के हित के कार्य के लिए सबकुछ करना, अपने लिए कुछ ना करना, यह उन्होंने जीवन भर जीकर दिखाया। वह बीज की तरह मिटटी में मिल गए जिसके कारण विशाल वृक्ष रूपक विवेकानंद शिला समारक और विवेकानद केंद्र- आध्यात्मिक प्रेरित सेवा संगठन हम सबके सामने है।

एकनाथजी रानडे का जन्म 19 नवम्बर, 1914 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के टिमटाला गांव  में एक साधारण परिवार में हुआ था। 1926 में वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आये। एकनाथजी रानडे कहते हैं कि – ”यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मेरे जीवन में न आता, तो मेरा जीवन दिशाहीन ऊर्जा का प्रवाह मात्र बनकर रह जाता।“

कॉलेज के दिनों में ही उनका परिचय स्वामी विवेकानंद जी के साहित्य से हुआ। 1936 में एकनाथजी  ने अपने कॉलेज के दिनों में नागपुर के कामठी और अन्य क्षेत्र में विस्तारक के रूप काम किया था और फिर  स्नातक स्तर की पढ़ाई करके वे प्रचारक बने। प्रचारक के रूप में वह सबसे पहले महाकौशल प्रान्त में गए। इसके अंतर्गत जबलपुर, इंदौर, उज्जैन, होशंगाबाद, छत्तीसगढ़ इत्यादि क्षेत्र आते थे।

1948 में महात्मा गांधी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। संघ के सभी प्रमुख अधिकारी जेल में डाल दिए गए थे। ऐसे में देशव्यापी सत्याग्रह की जिम्मेदारी एकनाथ जी को दी गयी। एकनाथजी ने इतनी सफलता से सत्याग्रह का नेतृत्व किया कि वह विश्व का सबसे बड़ा सत्याग्रह कहलाया। यह सत्याग्रह 9 दिसंबर,1948 से शुरू हुआ और 20 जनवरी 1949 को समाप्त हुआ।

इसी दौरान तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से उनका लम्बा संवाद चला और आखिरकार सरकार को सच्चाई समझ में आयी और प्रतिबन्ध हटा लिया गया। 1950 में उन्हें पूर्वांचल के प्रान्त प्रचारक के रूप में भेजा गया। 1953 से 56 तक वे संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख और 1956 से 62 तक सरकार्यवाह रहे, वह विशिष्ट परिस्थतियों में संघ के सरकार्यवाह बने थे।

इससे पहले पी. बी. दाणी जी सरकार्यवाह थे जो अपने पिता की मृत्यु  और माता-पिता कि इकलौती संतान होने के कारण अपनी संपत्ति का प्रबन्ध करने हेतु अपने घर गए थे। सरकार्यवाह रहते हुए एकनाथ जी ने संघ कार्य को प्रांत-प्रांत तक और उसके बाद जिले-जिले तक मजबूत किया। एकनाथजी हमेशा पूर्व नियोजन और पूर्ण नियोजन पर बहुत जोर देते थे।

1962 में संघ के सरकार्यवाह के दायित्व से उन्हें मुक्त कर दिया गया जब पी. बी. दाणी जी वापस आ गये। इसी वर्ष एकनाथ जी ने स्वामी विवेकानंद के समग्र लेखन के 9 खण्डों का अध्ययन करके उसको एक संक्षिप्त पुस्तक के रूप में संकलित किया जिसका  नाम है “राइजिंग कॉल टू हिन्दू नेशन”। उस समय के संघ के सरसंघचालक गुरुजी ने उन्हें 1963 में विवेकानन्द शिला स्मारक समिति का कार्यभार संभालने को कहा जिसे उन्होंने धैर्य, कौशल और अपने व्यक्तित्व के अनुरूप निपुणता से 1970 में राष्ट्र को समर्पित किया था।

स्मारक को जीवित रूप देने के लिए “विवेकानंद केन्द्र- एक आध्यात्म प्रेरित सेवा संगठन” की स्थापना 7 जनवरी 1972 को की गई। विवेकानंद केंद्र के हजारों कार्यकर्ता जनजाति और ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा एवं विकास, प्राकृतिक संसाधन विकास, सांस्कृतिक अनुसंधान, प्रकाशन, युवा प्रेरणा, बच्चों के लिए संस्कार वर्ग एवं योग वर्ग आदि गतिविधियां संचालित करते हैं।

एकनाथजी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने तब थे। वह कहते थे, ”यदि सम्पूर्ण धार्मिक भावना को लोकहित के कार्यों में रूपांतरित कर दिया  जाय तो सर्वांगीण राष्ट्रीय पुनर्निर्माण हो सकता है।” उनके अनुसार ”प्रत्येक व्यक्ति में भारतीयता को जागृत करना है, उन्हें कार्य में लगाना है।” उनको यह पूर्ण विश्वास था कि ”यदि आप गहराई में उतरकर देखेंगे तो प्रत्येक व्यक्ति में भारतीयता और हिंदुत्व की जागृति पायेंगे”।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब उनके जन्म शताब्दी वर्ष के समारोह में भाग लेने आये तो उन्होंने कहा, ”एकनाथ जी जो भी करते थे स्थायी भाव से करते थे, भविष्य को ध्यान में रखते हुए करते थे, सहज-सरल, उपयोगी हो ऐसी योजना से करते थे। व्यक्ति की पहचान और व्यक्ति की खोज एकनाथ जी की विशेषता थी।“

प्रधानमंत्री जी ने आगे कहा कि उनका सौभाग्य था कि उनको एकनाथ जी के साथ काम करने का मौका मिला। एकनाथ जी ने सैकड़ों कार्यकर्ताओं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाया है। आज उनके स्वर्गवास के 38  वर्ष बाद भी सभी कार्यकर्ता उनको स्नेह से ”एकनाथजी” ही बुलाते हैं।

(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैंI प्रस्तुत विचार उनके निजी हैंI)