इतना आसान नहीं है योगी आदित्यनाथ बनना

ये दुनिया विरोधाभासों से भरी हुई है। एक जगह मातम होता है तो वहीं दूसरी जगह थाल बजते हैं। जहाँ हर राजनीतिक घटनाएँ और योजनाएं झूठ का जलसा लगती हैं। जहाँ आस्‍थाएं कुछ यूं बदलती हैं मानों सूरज ने धरती के चक्‍कर लगाने शुरू कर दिए हों। जहाँ खुद को बेहतर साबित न कर पाने पर दूसरे को बदतर बताने की होड़ मची रहती हो वहां अगर कोई राज्य प्रमुख ये कहे कि देश के सेनापति के अनुशासन में बंधे होने और प्रदेश के करोड़ों लोगों की सुरक्षा के प्रति जवाबदेही की वजह से वो अपने पिता की अंत्येष्टि पर नहीं जाएगा तो इसे राज्य प्रमुख की नैतिकता का सोपान क्यों ना माना जाए !

सूचनाएं कभी अकेले नहीं आतीं, वो हमेशा अपने साथ भावनाएं लेकर चलती हैं और मानव जीवन भी तो एक चकमक पत्थर ही है, जब भी घिसेंगे कुछ चिंगारियां छूटेंगी ही छूटेंगी। बीते 20 अप्रैल को योगी आदित्यनाथ और टीम-11 की मीटिंग के वक्त ऐसी ही एक सूचना आई और फिर भावनाओं की चिंगारियां भी दिखीं।

मुझे लगता है कि अच्छा मुख्यमंत्री होना एक शाप है क्योंकि फिर आप लगातार निष्पक्षता की सलीब पर टाँगे जायेंगे। आपके हर कार्य और आपके हर बयान को चंद लोगों के नजरिये से देखा जायेगा। आपके खुद के ख्यालों और सोच पर दुनिया भर की सीमाएं लगेंगी। आपको फाइलों पर अपने हस्ताक्षरों से डर लगेगा। कई निर्णय और कई खबरें आपको ठगेंगी और इसके बाद सारे इल्ज़ाम भी आपके सर ही होंगे। लेकिन इन सब के बावजूद कहीं एक मुख्यमंत्री ऐसा भी है जो हर रोज जमीन पर बिस्तर बिछा के सोता है और ये तय करता है कि मैं तय राहों पर चलने के लिए नहीं बल्कि उन्हीं तय ढर्रों को बदलने के लिए यहाँ आया हूँ।

कोई भी शहर या समाज कई दशकों तक अंधेरा ढोने को अभिशप्त नहीं हो सकता इसलिए वहाँ हमेशा ही रोशनियों के विद्यालय खुलने की संभावना रहती है और इस माहौल में अगर वो रोशनी वाला पथ प्रदर्शक स्वयं को अपने परिवार के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करके आया हो तो उससे बेहतर क्या हो सकता है ! एक ऐसा पथ प्रदर्शक जिसके लिए ‘स्वदेशो भुवनत्रयम’ है अर्थात वह त्रैलोक्य का नागरिक है, वह वर्गहीन है और वो पूर्वाश्रम से अलग है।

कोई भी सेना हो, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि जय और पराजय की मुख्य जिम्मेदारी उसके सेनापति की ही होती है। वैसे भी नेतृत्व क्षमता किताबों से नहीं सीखी जाती, वो तो हमारे भीतर ही होती है। हमारे साथ ही बड़ी होती है और फिर अवसरों को पा कर प्रदर्शित भी होती है और निखरती भी जाती है। 

पूर्वांचल में मासूमों को शिकार बनाने वाली इन्सेफेलाइटिस चार दशक से कहर बरपा रही थी। 1978 से 2017 तक 50 हजार से ज्यादा मासूमों की मौतें हुईं थीं। सेनापति बदला और युद्ध की रणनीति बदली और फिर दस्तक अभियान द्वारा गांव की आशा, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, प्राथमिक शिक्षक, एएनएम और ग्राम प्रधान के साथ ही सरकारी और निजी अस्पतालों के डॉक्टर को ट्रेनिंग दी गई। गांव में इलाज के लिए सीएचसी में तीन-तीन बेड के मिनी आईसीयू बनाए गए, जिला अस्पताल में पीडियाट्रिक आईसीयू में पांच बेड बढ़ाए गए, सभी में आधुनिक वेंटिलेटर लगाए गए और अब काफी हद तक  उत्तर प्रदेश इस जानलेवा इन्सेफेलाइटिस के प्रकोप से मुक्त हो गया है।

ये दुनिया विरोधाभासों से भरी हुई है। एक जगह मातम होता है तो वहीं दूसरी जगह थाल बजते हैं। जहाँ हर राजनीतिक घटनाएँ और योजनाएं झूठ का जलसा लगती हैं। जहाँ आस्‍थाएं कुछ यूं बदलती हैं मानों सूरज ने धरती के चक्‍कर लगाने शुरू कर दिए हों। जहाँ खुद को बेहतर साबित न कर पाने पर दूसरे को बदतर बताने की होड़ मची रहती हो वहां अगर कोई राज्य प्रमुख ये कहे कि देश के सेनापति के अनुशासन में बंधे होने और प्रदेश के करोड़ों लोगों की सुरक्षा के प्रति जवाबदेही की वजह से वो अपने पिता की अंत्येष्टि पर नहीं जाएगा तो इसे राज्य प्रमुख की नैतिकता का सोपान क्यों ना माना जाए !

सारे मानक बदल गये हैं। हालाँकि इस महान देश में परिवारजनों  की मृत्यु के बाद भी कर्तव्यपरायणता ना छोड़ने के अधिसंख्य उदाहरण पहले से उपस्थित हैं लेकिन उन सभी उदाहरणों के बीच हमें ये जानना जरूरी होगा कि योगी आदित्यनाथ की घटना दूसरे उदाहरणों की तरह केवल पिता की मृत्यु की सूचना तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये अन्त्येष्टि में ना जाने के निर्णय तक विस्तार पाती है।

स्वामी शंकराचार्य जी भी अपनी माँ की मृत्यु के अंतिम संस्कार में शामिल होने आए थे, स्वामी विवेकानंद भी सन्यास लेने के बाद माँ को भारत दर्शन करवाने के लिए ले जाते हैं लेकिन योगी आदित्यनाथ, पिता के अंतिम दर्शन की इच्छा के बावजूद राजधर्म निभाना जरूरी समझते हैं और अविचल नेतृत्वकर्ता की तरह स्वयं ही नहीं बल्कि परिवारजनों से भी अंत्येष्टि में सोशल डिस्टेंसिग का पालन करने को कहते हैं। ऐसे ही लोग होते हैं जिनके कंधों पर सभ्यताएं, धर्म और प्रतीक जिंदा रहते हैं।

योगी आदित्यनाथ पिछले दिनों नवरात्रि का 9 दिन उपवास रखने के बावजूद कोरोना से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों की लगातार खबर ले रहे थे, पलायन करके आये लोगों के खान-पान से लेकर जीवन की सभी सुविधाओं का स्वयं निरीक्षण कर रहे थे, शासन प्रशासन के लिए 24 घंटे उपलब्ध थे, रोज टीम-11 के साथ ही सभी जिलों के अधिकारियों से कोरोना के संदर्भ में बात कर रहे थे, अस्पतालों का निरीक्षण कर रहे थे, अधिकारियों पर नकेल कस रहे थे और साथ ही साथ दुष्टों के मंसूबे को लगातार विफल कर रहे थे।

राज्य प्रमुख होने के नाते इस संकट काल में उन्हें ना केवल लोगों को मौत से बचाना है बल्कि उन्हें बेहतर तरीके से जिंदा भी रखना है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान जब कोई पूर्वाश्रम के पिता को भी खो के विचलित ना हो तब उसकी एकाग्रचित्ता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

योगी आदित्यनाथ के गुरु अब नहीं रहे, पूर्वाश्रम का वो नाम भी नहीं लेते। उनका इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर कोई कागजी हिस्सा नहीं है। वैसे भी लोग असल में धरती का हिस्सा नहीं खरीदते बल्कि धरती उनके घुमंतू जीवन का एक अहम हिस्सा खरीद लेती है लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अपवादों के भी अपवाद हैं। वो एक ऐसी पीठ से आये हैं जिसका इतिहास और दर्शन एक आध्यात्मिक सत्ता, गोरक्षा और जातिवाद से ऊपर सभी को बराबर रखने का रहा है।

यहाँ मकर संक्रांति के दिन नेपाल से लेकर भारत तक खिचड़ी चढ़ाने वालों की जाति कभी नहीं पूछी जाती। इसके द्वारा उत्तर में विश्व हिन्दू परिषद के साथ दलितों के लिए मंदिरों का निर्माण कराया गया। यहाँ के महंत खुद काशी के डोमराजा के यहां भोजन करते थे। महाराणा प्रताप ट्रस्ट और सामाजिक एकता यहीं जन्म लेती है। ऐसे पीठ से निकलकर आने वाला व्यक्ति अगर इस वक्त 23 करोड़ लोगों का राज्य प्रमुख है तो हमें अब निश्चिन्त हो जाना चाहिए क्योंकि मर्यादाओं को सामने रखकर एक स्वर्णिम इतिहास को बनते हुए हम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)