गिरने से अच्छा है कि ठोकर खाकर संभल जाइए, मायावती जी !

बसपा महासचिव  सतीश चन्द्र मिश्र ने भाजपा को दलित विरोधी करार दिया है। उनका कहना था कि बसपा उम्मीदवार का नाम भाजपा को पसंद नहीं। आशय यह था कि भाजपा ने दलित उम्मीदवार भीमराव अम्बेडकर को नहीं जीतने दिया। यह बिलकुल अनर्गल बात है। पराजय संबन्धी सवाल तो उन्हें सपा से करना चाहिए था। गठजोड़ भाजपा से नहीं, सपा से था। भाजपा ने तो एक दलित महिला को यहां से राज्यसभा भेजा है। बसपा को नहीं भूलना चाहिए कि यह वही भाजपा है, जिसके नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने गेस्ट हाउस हमले के समय मायावती की जान बचाई थी।

बसपा और सपा का घोषित सियासी सौदा फिलहाल तात्कालिक था। इसमें लोकसभा के दो और राज्यसभा की एक सीट  को शामिल किया गया था। इस सौदे में  सपा को शत-प्रतिशत मुनाफा हुआ। उसके लोकसभा व राज्यसभा के तीनों उम्मीदवार विजयी रहे। लेकिन, बसपा खाली हाथ रही। इन्हें एकदूसरे पर कितना विश्वास था, यह मायावती के बयान से जाहिर था। मायावती ने कहा था कि राज्यसभा में उनके एजेंट को वोट दिखाने  होंगे। फिर भी कामयाबी नहीं मिली।

लेकिन, राज्यसभा में पराजय के बाद बिडंबना देखिये कि बसपा महासचिव  सतीश चन्द्र मिश्र ने भाजपा को दलित विरोधी करार दिया है। उनका कहना था कि बसपा उम्मीदवार का नाम भाजपा को पसंद नहीं। आशय यह था कि भाजपा ने दलित उम्मीदवार भीमराव अम्बेडकर को नहीं जीतने दिया। यह बिलकुल अनर्गल बात है। पराजय संबन्धी सवाल तो उन्हें सपा से करना चाहिए था। गठजोड़ भाजपा से नहीं, सपा से था। भाजपा ने तो एक दलित महिला को यहां से राज्यसभा भेजा है। बसपा को नहीं भूलना चाहिए कि यह वही भाजपा है, जिसके नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने गेस्ट हाउस हमले के समय मायावती की जान बचाई थी।

जहाँ तक उम्मीदवार के नाम का प्रश्न है, तो पहला जवाब बसपा को ही देना होगा। जब वह अपने उम्मीदवार को राज्यसभा में भेजने की हैसियत में थी, तब इस नाम पर विचार क्यों नहीं किया। अब नाम की बात हो रही है। भीमराव अंबेडकर के नाम पर पांच तीर्थों के निर्माण का कार्य नरेंद्र मोदी ने कराया है। दलितों पर जुल्म के संबन्ध में बसपा नेता सपा पर किस प्रकार के आरोप लगाते थे, उसे भी मायावती को याद कर लेना चाहिए। दोनों के बीच तल्खी को यहां के लोग भूल नहीं सकते। कुछ महीने पहले तक इनका आपस मे  बात करना  भी मुनासिब नहीं था। 

लेकिन, मायावती ने यह साबित कर दिया कि राजनीति में सत्ता, जीत,  कुर्सी, सीट, यही सब वास्तविक है। यह नहीं, तो राजनीतिक जीवन व्यर्थ समझिए। ऐसा न होता तो सपा से गठबन्धन संभव ही नहीं था। यह कार्य दिल पर पत्थर रख कर ही किया गया। मायावती ही नहीं, उनके सभी समर्थकों के लिए यह बड़ी पीड़ा की भांति रहा होगा।

मायावती को तो खैर दलितों की आवाज उठाने के जरिये अतीत में सत्ता भी मिली है, फिर वह राज्यसभा में रहीं हैं और अभी भी उनको उच्च श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त है। उनके छोटे भाई,  माता-पिता आदि सब परिजनों के जीवन-स्तर में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। लेकिन, गांव तक रहने वाले उनके समर्थकों ने तो सपा शासन में केवल अवहेलना झेली है। उनके लिए मायावती का  सपा से समझौता हतप्रभ करने वाला था। मगर, फिर भी राजनीतिक लाभ के लिए मायावती ने सिद्धांतविहीन गठजोड़ कर लिया।

इतना करने के बाद भी मायावती खाली हाथ रहीं। यह उनका समझौता नहीं, बल्कि सौदा था। इसी को गठबन्धन कहा गया। मायावती ने सौदे का फार्मूला बताया था। उन्होंने खुद बताया था कि राज्यसभा चुनाव में बसपा को सपा और कांग्रेस समर्थक देंगी। बदले में बसपा, गोरखपुर और फूलपुर में  सपा उम्मीदवारों को समर्थन देगी। इस  सौदे में केवल सपा को लाभ हुआ। गोरखपुर और फूलपुर में सपा उम्मीदवार जीते। राज्यसभा में भी उसकी उम्मीदवार जया बच्चन विजयी रहीं। लेकिन, इस तात्कालिक सौदे में बसपा खाली हाथ ही रह गयी। इतना तो साफ़ हो गया कि  सपा ने राज्यसभा में अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित कराने को ज्यादा प्राथमिकता दी है।

सवाल यह भी है कि बसपा राज्यसभा चुनाव के लिए इतनी परेशान क्यों थी। कुछ दिन पहले मायावती ने राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। उनका आरोप था कि उनको अपनी बात रखने से रोका जा रहा है। यदि मायावती के आरोप  को सही मानें तो बसपा के उम्मीदवार को राज्यसभा भेजने की जरूरत ही नहीं थी। जब मायावती को बोलने नहीं दिया  जा रहा था, तब उनके ये उम्मीदवार राज्यसभा पहुंच कर क्या कर लेते। इन्हें तो बोलने का अधिकार ही मायावती ने नहीं दिया था।

यह सही है कि लोकसभा के दो उपचुनाव और राज्यसभा के एक चुनाव से भविष्य के बड़े निष्कर्ष  नही निकाले जा सकते। लेकिन, इतना तय है कि सपा और बसपा का गठजोड़ स्वभाविक नहीं है। इसकी यात्रा सकारात्मक नहीं हो सकती। क्योंकि, इससे ज्यादा  मुश्किल लोकसभा और लोकसभा से बहुत ज्यादा कठिनाई विधानसभा चुनाव में पेश आएगी। उसमें तो नेतृत्व  का मुद्दा सामने होगा। उदारता और सदाशयता की परीक्षा तभी होगी। फिलहाल   बसपा को चाहिये कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नसीहत पर ध्यान दे। योगी ने कहा है कि खाई में गिरने से अच्छा है कि ठोकर खाकर संभल जाएं।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)