भारत से युद्ध छेड़ना चीन के लिए खुद अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा !

भारत पूरे धैर्य, प्रेम और कूटनीति के साथ सारे मामले को हल करने में लगा है। साथ ही, वो किसी भी स्थिति के लिए तैयार है। चीन को संकेत मिल चुके हैं कि जंग भारत की सेनाएं ही नहीं लड़ेंगी, सारा देश चीन से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है। और वैसे भी जंग तो हौसलों से जीती जाती है, उस मोर्चे पर भी भारत कतई कम नहीं है। भारत के रक्षा मंत्री अरुण जेटली भी चीन को कायदे से समझा चुके हैं कि चीन हमें 1962 का न समझे।  ये बात सौ फीसद सही है। इस बार चीन को लेने के देने पड़ जाएंगे।

चीन का जब सीमा विवाद पर आक्रमक  रुख शुरू हुआ तो एक उम्मीद थी कि दलाई लामा से लेकर भारत में रहने वाले बड़ी संख्या में तिब्बती उसके (चीन) के खिलाफ सामने आएँगे। लेकिन सब चुप हैं। न दलाई लामा बोल रहे हैं, न ही बात-बात पर चीन  एंबेसी के बाहर प्रदर्शन करने वाले तिब्बती खुलकर भारत के पक्ष में खड़े हो रहे हैं। भारत ने दलाई लामा को उनके हजारों अनुयायियों के साथ शरण देकर एक तरह से चीन से स्थायी पंगा लिया था। दलाई लामा को शांति का नोबेल सम्मान मिला था। उन्हें सारी दुनिया सम्मान की नजरों से देखती है।

बेहतर होता कि वे इस मौके पर चीन की विस्तारवादी नीतियों को दुनिया के सामने लेकर आते हैं। पर वे तो चुप हैं। मानो वे अज्ञात स्थान में चले गए हों। उनका इस मौके पर चुप रहना या तटस्थ रवैया रखना समझ से परे है। 1950 के दशक से दलाई लामा और चीन के बीच शुरू हुआ विवाद अभी भी जारी है।  दलाई लामा के भारत में रहने से चीन से रिश्ते अक्सर ख़राब रहते हैं। हो सकता है कि किसी रणनीति के तहत दलाई लामा चुप हों।

सांकेतिक चित्र

अब भारत पूरे धैर्य, प्रेम और कूटनीतिक के साथ सारे मामले को हल करने में लगा है। साथ ही, वो किसी भी स्थिति के लिए तैयार है। चीन को संकेत मिल चुके हैं कि जंग भारत की सेनाएं ही नहीं लड़ेंगी, सारा देश चीन से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है। और वैसे भी जंग तो हौसलों से जीती जाती है, उस मोर्चे पर भी भारत कतई कम नहीं है। भारत के रक्षा मंत्री अरुण जेटली भी चीन को कायदे से समझा चुके हैं कि चीन हमें 1962 का न समझे।  ये बात सौ फीसद सही है। इस बार चीन को लेने के देने पड़ जाएंगे।

चीनी निवेश

इस बीच,चीन का भारत में निवेश 100 अरब डॉलर के आसपास पहुंच रहा है। भारत में चीनी  कंपनियों के निवेश के ट्रेंड को देखना है तो राजधानी से सटे गुरुग्राम हो आइये। अकेले गुरुग्राम में करीब तीन हजार चीनी पेशेवर काम कर रहे हैं। गुरुग्राम में हुआवेई, अली बाबा, ओप्पो मोबाइल, मित्तु, बेडु जैसी चीनी कंपनियां आ चुकी हैं अपने सैकड़ों पेशेवरों के साथ। हुआवेई में शायद सबसे चीनी पेशेवर हैं। इनमें महिलाओं की संख्या मजे की है। 

क्या चीन सरकार अपनी कंपनियों के मोटे निवेश को भारत के साथ जंग करके पानी में बहा देगी? भारत की चाहत है कि चीनी कंपनियां हमारे यहां मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में मोटा निवेश करें। चीनी कंपनियों को यहां पर बड़ा बाजार मिलता है। लाभ दोनों को है। ये यहां से माल बनाकर बाहर भेजती हैं। बदले में यहां पर रोजगार देती हैं। प्रधानमंत्री मोदी का मेक इन इंडिया कार्यक्रम इस मामले में काफी कारगर साबित हो रहा।

सांकेतिक चित्र

याद रखिए कि भारत में चीनी या किसी अन्य देश से आने वाले निवेश का लाभ होगा रोजगार में इजाफे के रूप में। इसके चलते रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। बाजार में इंजीनियरों, वास्तुकारों, चार्टर्ड अकाउंटेंट से लेकर दूसरी तमाम तरह की नौकरियां पैदा होंगी। इसका लाभ ये होगा कि देश के मिडिल क्लास परिवारों और दूसरे वर्गों के नौजवानों को रोजगार के मौके ज्यादा मिलेंगे।

आज जरूरी है कि विदेशी निवेश बढ़े। निवेश बढ़ने से देश में इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार होगा और रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। लेकिन चीन से निवेश लेने के बदले में हमें कमजोर पड़ने की जरूरत नहीं है। चीन किसी भी सूरत में भारत से दूर नहीं जा सकता है। हालांकि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद लंबे समय से चल रहा है, पर दोनों ने सीमा विवाद को सुलझाने की कोशिशें करते हुए आपसी व्यापार को गति दी है।

अब अमेरिका तथा संयुक्त अरब अमीरत के बाद चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक सांझीदार देश भारत है। क्या चीन भारत से संबंध बिगाड़ेगा ? भूल जाइये। ऐसा करके चीन अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने की भूल कभी नहीं करेगा। वैसे अब देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग से भेंट के बाद इस मसले का कोई हल निकलने की संभावना जताई जा रही है।

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)