पराजय से सबक लेना कब शुरू करेंगे, राहुल गांधी?

संसद में राहुल के असंयमित और बचकाने व्‍यवहार का यह पहला उदाहरण नहीं है। पिछले साल जुलाई में अविश्‍वास प्रस्‍ताव के दौरान भी वे आंख मारने जैसी घटिया हरकत कर चुके हैं। इसके अलावा संसद में वे कई बार जोर-जोर से बोलते, विक्षिप्‍तों की तरह हंसते, गलतियां करके खुद ही उसे सुधारने की नाकाम कोशिश करते और लगभग हुड़दंग मचाने जैसी अवस्‍था में आने के नजारे भी पेश कर चुके हैं।

गुरुवार को संसद का संयुक्‍त सत्र था। इसमें महत्‍वपूर्ण बात राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद का अभिभाषण था। इसमें उन्‍हें संसद के दोनों लोकसभा एवं राज्‍यसभा के सत्रों को संबोधित करते हुए पिछली सरकार के कार्यों का उल्‍लेख करना था। सब कुछ तय कार्यक्रम के अनुसार चल रहा था। राष्‍ट्रपति अपना अभिभाषण शुरू कर चुके थे कि तभी कुछ अप्रत्‍याशित सा हुआ। यह अप्रत्‍याशित सकारात्‍म्‍क नहीं था। यह बेहद शर्मनाक था। असल में, कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी का इस दौरान जो व्‍यवहार रहा, वह चौंकाने वाला था।

राष्ट्रपति के अभिभाषण के दौरान संसद में मोबाइल में व्यस्त राहुल गांधी

पूरे भाषण के समय वे काफी देर तक मोबाइल में व्‍यस्‍त बने रहे। संसद में सदस्‍यों से जिस गंभीरता की अपेक्षा की जाती है, सभी उस पर खरा तो नहीं उतरते, लेकिन राहुल गांधी ने तो इस मामले में सारी सीमाएं ही तोड़ दीं। वे संसद को भी शायद पिकनिक स्‍थान समझने की भूल कर बैठे हैं।

जब यह मामला तूल पकड़ने लगा तो शाम तक कांग्रेस अपने इस अपरिपक्व अध्‍यक्ष के बचाव में कूद पड़ी। कांग्रेस नेता ने सफाई देते हुए कहा कि राहुल के मोबाइल देखने में कुछ भी गलत नहीं है। यानी रही सही कसर कांग्रेस पार्टी खुद पूरी कर रही है। यदि पार्टी को अपने अध्‍यक्ष के हर गलत कदम को सुधारने की बजाय उचित ठहराना पड़ रहा है तो इससे अधिक बुरा कुछ नहीं हो सकता।

संसद में राहुल के असंयमित और बचकाने व्‍यवहार का यह पहला उदाहरण नहीं है। पिछले साल जुलाई में अविश्‍वास प्रस्‍ताव के दौरान भी वे आंख मारने जैसी घटिया हरकत कर चुके हैं। इसके अलावा संसद में वे कई बार जोर-जोर से बोलते, विक्षिप्‍तों की तरह हंसते, गलतियां करके खुद ही उसे सुधारने की नाकाम कोशिश करते और लगभग हुड़दंग मचाने जैसी अवस्‍था में आने के नजारे भी पेश कर चुके हैं।

यह मामला अभी एक दिन पुराना ही हुआ था कि राहुल गांधी ने अगले ही दिन एक और शर्मनाक हरकत कर डाली। 21 जून को विश्‍व योग दिवस पर उन्‍होंने एक बेहद आपित्‍तजनक और आक्षेप करने वाला ट्वीट किया। उन्‍होंने भारतीय सेना के डॉग स्‍कवायड का योग करता हुआ फोटो ट्वीट किया और उसमें कटाक्ष करते हुए उसे “न्‍यू इंडिया” करार दिया। इस ट्विट के बाद वे फिर विवादों में फंस गए।

सेना की डॉग स्क्वाड के योग करने पर तंज़ कर फंसे राहुल

राहुल के ट्वीट को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आड़े हाथों लेते हुए स्‍पष्‍ट कहा कि कांग्रेस का अर्थ अब नकारात्‍मकता हो गया है। वे योग दिवस का मखौल बनाकर सेना का अपमान कर रहे हैं। भाजपा प्रवक्‍ता नलिन कोहली ने कहा कि इससे कांग्रेस की सोच उजागर होती है। बीजेपी सांसद परेश रावल ने तंज कसते हुए कहा कि राहुल जी, इस न्‍यू इंडिया में कुत्‍ते आपसे भी अधिक समझदार हैं। बेंगलुरु दक्षिण सीट से बीजेपी सांसद तेजस्‍वी सूर्या ने कहा कि कांग्रेसियों के लिए अफसोस है कि वे ऐसे व्‍यक्ति को अपना नेता मानते हैं, जो सेना का अपमान करता है।

यह बात सही है कि लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार से कांग्रेस बुरी तरह बौखला गई है, लेकिन क्‍या इसका यह अर्थ है कि अब वो राजनीति की सामान्य शुचिता और मर्यादा को भी भूल जाएगी? यह केवल एक उदाहरण नहीं है। इसके समानांतर ही बात की जाए तो हाल ही में गत 19 जून को प्रधानमंत्री ने सभी विपक्षी दलों की एक अहम बैठक बुलाई थी। इसका ध्‍येय, एक राष्‍ट्र-एक चुनाव को लेकर सामूहिक चर्चा करना था।

आश्‍चर्य की बात है कि लोकतंत्र की जब-तब दुहाई देने वाले कई विपक्षी दलों ने इस बैठक का बहिष्कार किया। क्षेत्रीय दलों के बहिष्कार को छोड़ते हैं, लेकिन कांग्रेस तो एक राष्ट्रीय दल है। वो इस चुनाव की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भी है। फिर, चुनाव परिणाम के दिन राहुल गांधी ने स्‍वयं ही तो कहा था कि वे सरकार के साथ सहयोग करेंगे। फिर इस बैठक में न पहुंचने का मतलब क्या है?

एक राष्‍ट्र, एक चुनाव की अवधारणा को तो पूर्व मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त टीएस कृष्‍णमूर्ति ने भी उचित ठहराया है। असल में, यह भी एक प्रकार का रीफार्म है। यह चुनावी सुधार है। मोदी सरकार ने देश में निर्वाचन विसंगति को लेकर यदि कोई पहल की है, कोई बीड़ा उठाया है तो विपक्षी दलों को लोकतंत्र के नाते इसमें सहयोग करना चाहिये लेकिन कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल बचकाना व्‍यवहार करके बहिष्‍कार जैसी घटिया हरकतें कर रहे हैं और इसके लिए उनके पास गिनाने के लिए एक भी ठोस वजह नहीं है।

प्रक्रिया में पारदर्शिता रखने के लिए सरकार ने सर्वदलीय कमेटी बनाना तय किया है। इस बैठक में कुल 40 दलों को आमंत्रित किया गया था, लेकिन केवल 21 ने ही भागेदारी की। यदि इसी प्रकार से सभी का रवैया रहा तो सरकार को विवश होकर कई कड़े और बड़े फैसले एकतरफा करने पड़ेंगे। बाद में यही दल इस बात की दुहाई देते पाए जाएंगे कि सरकार ने अमुक कानून थोपा या अमुक फैसला थोपा। अब जब सरकार सभी को साथ में लेकर चलने की बात कर रही तो भला क्‍या समस्‍या हो सकती है।

कांग्रेस पिछली सरकार में भी विपक्ष में थी, आज भी है, लेकिन कांग्रेस का व्‍यवहार कहीं से कहीं तक किसी राजनीतिक विपक्षी दल की तरह नहीं दिखता। यह व्‍यवहार ईर्ष्‍या, द्वेष, वैमनस्‍य और हीनता की ग्रंथि से उपजे प्रतिक्रियावाद जैसा मालूम पड़ता है। जहां तक राहुल गांधी की बात है, एक राजनेता के तौर पर  उनमें एक प्रतिशत भी बदलाव या सुधार नहीं आया है। चुनाव के पहले वे जिस तरह की बेढब हरकतें करते थे, अब भी वही हाल है। ऐसा लगता है उन्‍होंने नाहक ही इतनी चुनावी रैलियां कीं, व्‍यर्थ ही दौरे और सभाएं कीं।

यह एक सामान्‍य नियम है कि व्‍यक्ति जीत से भी सीखता है और हार से भी सीखता है। यह बात तो राजनीति के अलावा भी दीगर हर क्षेत्र में लागू होती है, लेकिन राहुल गांधी शायद एकमात्र ऐसे अपवाद हैं जिनमें लगातार हार मिलने के बावजूद कोई सुधार नहीं दिख रहा।

आज जितनी बुरी स्थिति कांग्रेस की है, वह राहुल गांधी के लचरतम तथाकथित नेतृत्‍व के चलते है। बहरहाल, राहुल गांधी अपने घर में, कार्यालय में, कुछ भी करें कोई हर्ज नहीं, लेकिन यदि वे संसद में बैठकर उसे मनोरंजन कक्ष समझ रहे हैं तो यह स्वीकार्य नहीं हो सकता। यह दिखाता है कि उन्होंने लगातार मिली पराजयों से कोई सबक नहीं लिया है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)