साध्वी प्रज्ञा के चुनाव में उतरने से विपक्षी दलों को इतनी तकलीफ क्यों है?

हमारे इन विपक्षी राजनैतिक दलों का यही चरित्र है कि वो तथ्यों का उपयोग और उनकी व्याख्या अपनी सुविधानुसार करते हैं। इन दलों को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर अनेक महत्वपूर्ण पदों पर बैठे नेता जो आज जमानत पर हैं और चुनाव भी लड़ रहे हैं उनसे नहीं लेकिन साध्वी से ऐतराज़ होता है। इन्हें देशविरोधी नारे लगाने के आरोपी और जमानत पर रिहा कन्हैया के चुनाव लड़ने पर नहीं, साध्वी के चुनाव लड़ने पर ऐतराज़ होता है।

साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार घोषित करते ही देश में जैसे एक राजनैतिक भूचाल आता है जिसका कंपन कश्मीर तक महसूस किया जाता है।  भाजपा के इस कदम के विरोध में देश भर के विपक्षी राजनीतिक दलों की आवाज़ें उठने लगती हैं। यहां तक कि कश्मीर तक ही सीमित रेहने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसे दलों को भी भोपाल से साध्वी प्रज्ञा के चुनाव लड़ने पर ऐतराज़ है। इन सभी का कहना है कि उन पर एक आतंकी साज़िश में शामिल होने का आरोप है और इस समय वे जमानत पर बाहर हैं इसलिए भाजपा को उन्हें टिकट नहीं देना चाहिए।

लेकिन ऐसा करते समय ये लोग भारत के उसी संविधान और लोकतंत्र का अपमान कर रहे हैं जिसे बचाने के लिए ये अलग अलग राज्यों में अपनी अपनी सुविधानुसार एक हो कर या अकेले ही चुनाव लड़ रहे हैं। क्योंकि ये लोग भूल रहे हैं कि जो संविधान इन्हें अपना विरोध दर्ज करने का अधिकार देता है, वो ही संविधान साध्वी प्रज्ञा को चुनाव लड़ने का अधिकार भी देता है। ये लोग भूल रहे हैं कि 1977 में जॉर्ज फ़र्नान्डिस देशद्रोह के आरोप के साथ ही जेल से ही चुनाव लड़े भी थे और जीते भी थे।

दरअसल हमारे इन विपक्षी राजनैतिक दलों का यही चरित्र है कि वो तथ्यों का उपयोग और उनकी व्याख्या अपनी सुविधानुसार करते हैं। इन दलों को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर अनेक महत्वपूर्ण पदों पर बैठे नेता जो आज जमानत पर हैं और चुनाव भी लड़ रहे हैं उनसे नहीं लेकिन साध्वी से ऐतराज़ होता है।

इन्हें देशविरोधी नारे लगाने के आरोपी और जमानत पर रिहा कन्हैया के चुनाव लड़ने पर नहीं, साध्वी के चुनाव लड़ने पर ऐतराज़ होता है। इन्हें लालू प्रसाद यादव जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध हो चुके हैं और जो आज जेल में ही हैं उनकी विरासत आगे बढ़ाते तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी से परहेज़ नहीं है तो फिर आखिर  साध्वी से क्यों  है जिन पर आज तक कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया है।

दरअसल ये चमत्कार भारत में ही संभव है कि महिला अस्मिता से खेलने वाले  अभिषेक मनु सिंघवी को सुबूतों के होते हुए भी एक दिन जेल नहीं जाना पड़ता लेकिन बिना एफआईआर के एक साध्वी को कारावास में डाल दिया जाता है। ये कमाल भी शायद भारत में ही संभव है कि अजमल कसाब, अफजल गुरू और याकूब मेमन जैसे आतंकवादी जिन्हें अन्ततः फासी की सज़ा सुनाई जाती है, उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य पर लाखों खर्च किए जाते हैं लेकिन बगैर सुबूतों के एक महिला साध्वी को थर्ड डिग्री देकर उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है। 

ये कमाल भी भारत में ही संभव है कि एक एनकाउंटर में जब इशरत जहां नाम की अतंकवादी और उसके साथियों को मार गिराया जाता है तो तमाम इंटेलीजेंस इनपुट से किनारा करते हुए भारत के ही कुछ लोगों द्वारा ये  कहा जाता है कि ये चार लोग आतंकवादी नहीं बल्कि आम नागरिक थे। पुलिस ने इन्हें गोली मार दी और मरे हुए लोगों के हाथ में हथियार थमा दिए। लेकिन जब अमेरिका की एफबीआई लश्कर के मुखबिर हेडली को गिरफ्तार करती है तो वो स्वीकार करता है कि इशरत लश्करे तैयबा की आत्मघाती हमलावर थी।  

इस सब से परे एक प्रश्न  ये भी है कि अमेरिका में 9/11 के हमले के कुछ घंटों के बाद ही एफबीआई हमलावरों के नाम तथा कुछ मामलों में तो उनका निजी विवरण तक प्राप्त करने में सफल हो जाती है लेकिन  भारत में 2008 का एक केस 2019 तक क्यों  नहीं  सुलझ पाता। 

साध्वी का विरोध करने वाले इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं कर  सकते कि अगर साध्वी प्रज्ञा को अदालत ने आरोप मुक्त नहीं किया है तो इन 8 सालों में वो दोषी भी नहीं सिद्ध हुईं। बल्कि ऐसे कोई सुबूत ही नहीं पाए गए जिससे उन पर मकोका लगे जिसके अंतर्गत उनकी गिरफ्तारी हुई थी। इसलिए  अन्ततः 2008 में बिना सुबूत और बिना एफआईआर गिरफ्तार साध्वी पर से 2015 में मकोका हटाई गई और उन्हें जमानत मिली। 

दरअसल साध्वी प्रज्ञा के बहाने भाजपा ने भगवा आतंकवाद के सिद्धांत को जन्म देने वाली  राजनीति का कुत्सित चेहरा देश के सामने रख दिया है। जिस “हिन्दू आतंकवाद” शब्द  की नींव पर कांग्रेस ने अपने लिए मुस्लिम वोटबैंक की ठोस बुनियाद खड़ी की थी, उसी हिंदू आतंकवाद की  बुनियाद पर भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा के सहारे ठोस प्रहार किया है।

अब जब यह सच सामने आ गया है कि जिस तरह पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देता है लेकिन सिद्ध करने की नाकाम कोशिश करता है कि कश्मीरी स्थानीय युवक ही इसके पीछे होते हैं (याद कीजिए पुलवामा हमला जिसमें उसने स्थानीय युवक को ही हमलावर बताने की कोशिश की थी), उसी तरह उसने 26/11 के हमले को भी भारतीयों द्वारा ही अंजाम देने का भ्रम फैलाने की नापाक और असफल कोशिश की थी।

इसलिए इस हमले में शामिल आतंकवादियों की कलाई पर लाल रक्षा सूत्र बंधा था जो उन्हें हेडली ने सिद्धि विनायक मंदिर से खरीद कर  दिए थे। इसके अलावा सभी के पास हैदराबाद के एक महाविद्यालय के हिन्दू नाम वाले फ़र्ज़ी पहचान पत्र भी थे।  इसके बावजूद तब भारत में ही कुछ नेताओं ने इस हमले में पाकिस्तान का हाथ होने से इंकार कर दिया और  यह कह कर कि मालेगाँव की ही तरह 26/11 के पीछे भी हिन्दू संगठनों का हाथ है और 2008 के मालेगाँव धमाके, 2006 के मालेगाँव धमाके, अजमेर दरगाह और समझौता कांड सभी के तार एक दूसरे से मिल रहे हैं, हिन्दू आतंकवाद के सिद्धांत को स्थापित करने की कोशिश की।

लेकिन आज तक जब 2008 मालेगाँव मामले में साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिल पाया है, और समझौता कांड के सभी आरोपियों को कोर्ट ने बरी कर दिया है तो देश के सामने कहने को कम लेकिन समझने को बहुत कुछ  है। और  अब साध्वी प्रज्ञा के बहाने भाजपा को तो भानुमति का पिटारा मिल गया है लेकिन कांग्रेस के लिए तो यह मधुमक्खी का छत्ता ही सिद्ध होगा। शायद इसलिए दिग्विजय सिंह ने साध्वी प्रज्ञा का नाम घोषित होते ही अपने कार्यकर्ताओं से इस मामले में चुप रहने और संयम बरतने के लिए कहा है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)