सच्चे देशभक्त की तलाश गूगल पर नहीं दस्तावेजों में पूरी होगी

शिवानन्द द्विवेदी

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध अधिष्ठान एवं नेहरु मेमोरियल एंड लाइब्रेरी के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित प्रदर्शनी ने ख़ास विचारधारा वाली पत्रकारिता करने वालों को परेशान कर दिया है। उनकी परेशानी हम समझ सकते हैं। लेकिन परेशानी का अर्थ यह नहीं कि आप दस्तावेज छोड़कर गूगल के भरोसे पत्रकारिता करने लगें। द वायर नाम की एक अंग्रेजी वेबसाईट पर छपी एक रपट का जवाब इस रपट से: एडिटर 

29 जून से 6 जुलाई तक दिल्ली के नेहरु मेमोरियल एंड लाइब्रेरी में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लेकर एक प्रदर्शनी का आयोजन हुआ था। इस कार्यक्रम का उद्घाटन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने किया था। प्रदर्शनी का उद्देश्य डॉ मुखर्जी के जीवन के उन तमाम पक्षों पर प्रकाश डालना था जिनपर या तो बिलकुल चर्चा नहीं हुई अथवा बहुत कम हुई है। नेहरूवियन प्रभाव वाले लेखकों सहित कुछ ख़ास विचारधारा वालों को तो यह बात कतई रास नहीं आनी थी कि नेहरु के वैचारिक विरोधी डॉ मुखर्जी पर प्रदर्शनी, वो भी नेहरु मेमोरियल में ? खैर, लोकतंत्र है, सब बर्दाश्त करना पड़ता है। लोकतंत्र में देर है, अंधेर नहीं। लोकतंत्र सबके साथ न्याय करता है, सो देर से ही सही डॉ मुखर्जी के साथ भी न्याय किया गया। भारत के प्रथम उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री, महान शिक्षाविद्, वैकल्पिक राजनीति के दूरदृष्टा, अखंड भारत के लिए बलिदान देने वाले डॉ मुखर्जी पर यह प्रदर्शनी दशकों पहले हो जानी चाहिए थी। अगर यह कार्य कांग्रेस की किसी सरकार ने कर दिया होता तो शायद कांग्रेस द्वारा किया गया यह एक सबसे महान कार्य होता। लेकिन दुर्भाग्य से इसके लिए सात दशक इन्तजार करना पड़ा। हालांकि इस प्रदर्शनी के बाद अलग-अलग स्तर पर मीडिया में लेख लिखे गये हैं, रिपोर्टिंग हुई है। इनमें से तमाम लेखों एवं रिपोर्ट्स के माध्यम से इस कार्यक्रम, कार्यक्रम से जुड़े तथ्यों आदि को गलत अथवा औचित्यविहीन साबित करने की असफल कोशिशें भी की जा रही हैं। एक अंग्रेजी वेबसाईट ‘द वायर’ पर “In Search of Syama Prasad Mookerjee, the “True Patriot” शीर्षक से पर छपी रिपोर्ट में लिखा गया है , ‘An ongoing exhibition on Syama Prasad Mookerjee attempts to credit the Jan Sangh founder for India’s industrialisation and blame Jawaharlal Nehru for neglecting events that led to his ‘mysterious death’.

एक प्रदर्शनी में 200 शब्द सीमा वाले 18 पोस्टरों से डॉ मुखर्जी जैसे महान व्यक्तित्वों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की बुरी लत अब लेखकों को छोड़नी होगी। डॉ मुखर्जी पर एक-दो नहीं कुल सत्तर हजार पेज का दस्तावेज सुरक्षित है। पत्रकारों को उनका अध्ययन करके फिर रिपोर्टिंग करने की जरूरत है। गूगल के भरोसे आप रिपोर्टिंग जैसा गंभीर काम न करें। अगर दस्तावेजों पर मेहनत होंगे लगे तो ढेरों True Patriot देश को मिलने लगेंगे, जिनको नेहरु सल्तनत ने दबाये रखा था। उस कड़ी में डॉ मुखर्जी ही क्यों, नेताजी, शास्त्री जी, पटेल जी सहित न जाने कितने दबे हुए नाम हैं, आप गूगल के दायरे और नेहरूवियन मेंटालिटी से निकलकर खोजिये तो सही!

            इन पंक्तियों को लिखने वाली की मंशा जो भी रही हो लेकिन डॉ मुखर्जी से जुड़े यह तथ्य इस प्रदर्शनी के माध्यम से नहीं साबित किये जा रहे हैं, बल्कि दस्तावेजों के माध्यम से यह तथ्य पूर्व-प्रमाणित हैं। प्रदर्शनी में इन तथ्यों को महज सीमित शब्दों में प्रदर्शित करने की कोशिश की गयी है। प्रदर्शनी के माध्यम से डॉ मुखर्जी के संबंध में कुछ भी साबित करने की कोशिश की गयी है, ऐसा समझना कोरा बकवास है। प्रदर्शनी में सिर्फ दस्तावेजों से साबित तथ्यों को प्रदर्शित करने की कोशिश की गयी है। औद्योगीकरण के संबंध में अगर देखा जाय तो यह सर्वमान्य तथ्य है कि महात्मा गांधी के कहने पर नेहरु ने डॉ मुखर्जी को मंत्रिपरिषद में रखा था। उन्हें उद्योग एवं आपूर्ति मंत्रालय दिया गया। छोटे से कार्यकाल में डॉ मुखर्जी ने भावी भारत के औद्योगिक निर्माण की दिशा में जो बुनियाद रखी उसको लेकर किसी के मन में को संदेह नहीं होना चाहिए। प्रशांत कुमार चटर्जी की किताब ‘डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी एंड इन्डियन पोलिटिक्स’ (पृष्ठ संख्या 222 से 259) में उनके द्वारा बेहद कम समय में किये औद्योगिक विकास के कार्यों का विस्तार से उल्लेख है। भावी भारत के औद्योगिक निर्माण की जो कल्पना डॉ मुखर्जी ने उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री रहते हुए की थी, उसके परिणाम स्वरुप औद्योगिक विकास के क्षेत्र में देश ने कई प्रतिमान स्थापित किये। नीतिगत स्तर पर उनके द्वारा किये गये प्रयास भारत के औद्योगिक विकास में अहम् कारक बनकर उभरे। मंत्री रहते हुए डॉ मुखर्जी के कार्यकाल में ऑल इण्डिया हैन्डीक्राफ्ट बोर्ड, ऑल इण्डिया हैंडलूम बोर्ड, खादी ग्रामोद्योग की स्थापना हुई थी। वर्ष जुलाई 1948 में इंडस्ट्रियल फिनांस कारपोरेशन की स्थापना हुई। डॉ मुखर्जी के कार्यकाल में देश का पहला भारत निर्मित लोकोमोटिव एसेम्बल्ड पार्ट इसी दौरान बना और चितरंजन लोकोमोटिव फैक्ट्री भी शुरू की गयी। (डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी एंड इन्डियन पोलिटिक्स, पृष्ठ 224-225).

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            चटर्जी की किताब में इस बात का बड़े स्पष्ट शब्दों में जिक्र है कि भिलाई प्लांट, सिंदरी फर्टिलाइजर सहित कई और औद्योगिक कारखानों की परिकल्पना मंत्री रहते हुए डॉ मुखर्जी ने की थी, जो बाद में पूरी भी हुईं। लेकिन यह वैचारिक दुराग्रह की पराकाष्ठा ही कही जायेगी कि एक महान व्यक्ति के कार्यों को छोटा दिखाने के लिए एक अंग्रेजी वेबसाईट ‘The Wire’ ने बेहद लापरवाह ढंग से इन सारे कार्यों को बिना ठीक से जाने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि A quick Google search shows that he passed away in 1953. The Bhilai steel plant was set up in 1955. He could have been associated with the discussions leading up to it but I rather doubt it.; यहाँ बड़ा सवाल यह है कि आखिर रिपोर्टर को गूगल करने की जरूरत ही क्यों पड़ी, जब वहां स्पष्ट कर दिया गया है कि डॉ मुखर्जी ने भिलाई प्लांट की परिकल्पना की थी, न कि स्थापना की थी! उक्त वेबसाईट को मेरी सलाह है कि गूगल की तुलना में दस्तावेजों पर अगर ज्यादा फोकस करें तो बेहतर और निष्पक्ष रिपोर्टिंग कर सकते हैं। हालांकि अपने ढंग से इस रिपोर्ट में यह स्थापित करने की कोशिश की गयी है कि तत्कालीन औद्योगिक सफलताएं डॉ मुखर्जी की वजह से नहीं बल्कि पंडित नेहरु एवं प्रशान्त चंद्रा की नीति की वजह से मिली थीं!

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            इस पूरे प्रदर्शनी में ख़ास विचारधारा के लोगों खेमे की चिढ की वजह यह भी है कि काश्मीर में नजरबंद किये गये डॉ मुखर्जी की 23 जून 1953 को संदिग्ध मौत के लिए भी नेहरु को क्यों जिम्मेदार माना जा रहा है ? बड़ा सवाल यह है कि अगर नेहरु और शेख अब्दुल्ला को मिले नेहरु की शह को न माना जाय किसे माना जाय ? नेहरु भारत के प्रधानमंत्री थे और शेख अब्दुल्ला जम्मू-काश्मीर के प्रधानमंत्री (तब प्रधानमंत्री का पद होता था और मुखर्जी इसके भी विरोधी थे) थे। दोनों के बीच साझेदारियां थीं और उन साझेदारियों पर डॉ मुखर्जी का विरोध था। डॉ मुखर्जी की माँ जोगमाया देवी ने नेहरु से सिर्फ इतना पूछा कि गिरफ्तारी के दौरान मुखर्जी को उनके परिवार से मिलने क्यों नहीं दिया गया और उनके खराब तबियत की जानकारी क्यों नहीं दी गयी ? नेहरु के पास इसका कोई जवाब नहीं था। जोगमाया देवी ने मौत के जांच की मांग की, नेहरु ने उसे भी ठुकरा दिया। अगर इन सब के लिए भारत का प्रधानमंत्री होने के नाते नेहरु नहीं जिम्मेदार थे तो कौन जिम्मेदार था ? ये वो सवाल हैं जिन्हें भ्रम की रेतीली दीवारों की तरह ढहाया नहीं जा सकता, ये आज भी हैं, और आगे भी काल के कपाल पर अमिट रहेंगे और नेहरु के व्यक्तित्व पर सवालिया निशान बनकर रहेंगे!

            हालांकि एक प्रदर्शनी में 200 शब्द सीमा वाले 18 पोस्टरों से डॉ मुखर्जी जैसे महान व्यक्तित्वों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की बुरी लत अब लेखकों को छोड़नी होगी। डॉ मुखर्जी पर एक-दो नहीं कुल सत्तर हजार पेज का दस्तावेज सुरक्षित है। पत्रकारों को उनका अध्ययन करके फिर रिपोर्टिंग करने की जरूरत है। गूगल के भरोसे आप रिपोर्टिंग जैसा गंभीर काम न करें। अगर दस्तावेजों पर मेहनत होंगे लगे तो ढेरों True Patriot देश को मिलने लगेंगे, जिनको नेहरु सल्तनत ने दबाये रखा था। उस कड़ी में डॉ मुखर्जी ही क्यों, नेताजी, शास्त्री जी, पटेल जी सहित न जाने कितने दबे हुए नाम हैं, आप गूगल के दायरे और नेहरूवियन मेंटालिटी से निकलकर खोजिये तो सही!