आतंकवादियों की शवयात्रा निकालने पर पूरी तरह से रोक लगाने की जरुरत

हर्षवर्धन त्रिपाठी 

भारतीय सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में बुरहान मुजफ्फर वानी की मौत के बाद निकले जनाजे में जमकर उत्पात हुआ। करीब 30 जानें जा चुकी हैं। अभी कितनी जान जाएगी, बता पाना मुश्किल है। हिंसक प्रदर्शन की वजह से अमरनाथ यात्रा रोकनी पड़ी है। हिंदुस्तान में हर साल करीब एकाध आतंकवादी ऐसा होता है, जिसकी शवयात्रा के दौरान हंगामा होता है। हिंदू-मुसलमान के बीच की कम होती खाई ऐसी घटनाओं के बाद बड़ी हो जाती है। वैसे भी इससे बड़ा कुतर्क कुछ नहीं हो सकता कि आतंकवादियों का मानवाधिकार होता है। जो मानव होने की न्यूनतम शर्त पूरी नहीं करते। वो मानवाधिकार की दुहाई देते हैं। घाटी में माहौल बेहतर करने की कोशिश में ये बड़ी रुकावट है। और ये कोई ऐसा नौजवान नहीं था। जिसके भटक जाने पर कोई संदेह हो। ये बाकायदा हिज्बल मुजाहिदीन के कमांडर के तौर पर काम कर रहा था। आतंकवादियों की भर्ती कर रहा था। जरूरी है कि हिंदुस्तान के सद्भाव के ताने बाने को बचाने के लिए किसी भी आतंकवादी का अंतिम संस्कार सार्वजनिक तौर पर होना बंद हो।

इससे बड़ा कुतर्क कुछ नहीं हो सकता कि आतंकवादियों का मानवाधिकार होता है। जो मानव होने की न्यूनतम शर्त पूरी नहीं करते। वो मानवाधिकार की दुहाई देते हैं। घाटी में माहौल बेहतर करने की कोशिश में ये बड़ी रुकावट है। और ये कोई ऐसा नौजवान नहीं था। जिसके भटक जाने पर कोई संदेह हो। ये बाकायदा हिज्बल मुजाहिदीन के कमांडर के तौर पर काम कर रहा था। आतंकवादियों की भर्ती कर रहा था। जरूरी है कि हिंदुस्तान के सद्भाव के ताने बाने को बचाने के लिए किसी भी आतंकवादी का अंतिम संस्कार सार्वजनिक तौर पर होना बंद हो।

इसकी जरूरत की बड़ी साफ वजहें हैं। मोहम्मद अफजल गुरू का मामला तो सबको याद ही होगा। उस पर देश की संसद पर हमले की साजिश में शामिल होने का आरोप था। 2001 में संसद पर हमला हुआ था और पूरी कानूनी प्रक्रिया और भारत के राष्ट्रपति के उसकी दया याचिका खारिज करने के बाद अफजल गुरू को 2013 में फांसी दी गई। बारामूला के सोपोर जिले का रहने वाला अफजल गुरू भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के लिए जीते जी मुश्किल खड़ी करता रहा और मरने के बाद भी भारतीय खुफिया एजेंसियां इस पर सिर खपाती रहीं कि कहां अफजल की फांसी से घाटी में फिर से बवाल न शुरू हो जाए। तब यूपीए की सरकार थी। ये भी कहा गया कि सरकार की तरफ से परिवार को भेजी चिट्ठी परिवार तक नहीं मिल सकी।

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ये सरकार पर एक तरह का दबाव था कि ये संदेश न जाए कि सरकार ने चुपचाप अफजल को तिहाड़ जेल में ही दफना दिया। सवाल ये है कि साबित आतंकवादी को लेकर भारत सरकार को इतना डर में क्यों रहना चाहिए। ऐसा ही एक मौका और आया था कि जब याकूब मेमन को मुंबई धमाके के लिए फांसी की सजा सुनाई गई थी। याकूब के जनाजे में उमड़ी हजारों लोगों की भीड़ मुंबई में पुलिस और खुफिया एजेंसियों के लिए मुश्किल का सबब बनी हुई थी। सवाल ये कतई नहीं है कि किसी आतंकवादी का मानवाधिकार होता है या नहीं। हो सकता है कि इस तरह की मांग से हम पर ये सवाल खड़ा हो जाए कि कहीं हम इस तरह से असभ्य तो नहीं हो जाएंगे। लेकिन, इसे जरा इस नजरिए से देखिए कि बुरहान वानी के जनाजे को ऐसे अंतिम विदा देने से कितने नौजवान बुरहान वानी बनने के रास्ते पर चल पड़ेंगे। ये तो स्थापित तथ्य है कि गलत को महिमामंडित करने से भी लोग गलत के रास्ते पर चल पड़ते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं है। अगर बुरहान वानी का यूं जनाजा न निकलता तो भी क्या 30 से ज्यादा जानें जातीं। आतंकवादी को शहीद साबित करने की कोशिश भी इसी रास्ते से होने लगती है। जरूरी है कि साबित आतंकवादी को बैड पब्लिसिटी भी न मिले। हिंदुस्तानी समाज के लिए वक्त का तकाजा है कि आतंकवादी गुमनाम ही रहे।इसीलिए जरूरी है कि देश की संसदइस मामले पर विचार करे कि क्या ये सही वक्त आ गया है जब आतंकवादियों की शवयात्रा, उनके सार्वजनिक महिमामंडन के किसी भी तरीके को खारिज किया जाए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं