व्यक्तिवाद और परिवारवाद से ग्रस्त हो चुकी है कांग्रेस, पतन तो होना ही है!

वर्तमान केंद्र में भाजपा सत्ता में है जबकि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा कांग्रेस के पास है, फिर भी लगता नहीं कि वो ये मानने को तैयार है कि वह विपक्षी पार्टी है। इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि उसने कभी भी विपक्ष का मनोविज्ञान नहीं पढ़ा और न ही स्वीकार किया कि लोकतंत्र में सत्ता के अतिरिक्त भी बहुत कुछ करना होता है। दूसरा यह कि कांग्रेस विपक्ष की भूमिका अदा करने के बजाय पिछले दो वर्षों से सरकार को सिर्फ नसीहत दे रही है जैसे, सरकार की कश्मीर नीति ठीक नहीं, देश की विकास नीति ठीक नहीं, पड़ोसियों के साथ संबंध कैसे होने चाहिए आदि-आदि। अब कोई भी सरकार सिर्फ मुफ्त की नसीहतों से तो चलती नहीं है। मगर कांग्रेस ने तो जैसे विपक्ष का सिर्फ यही अर्थ मान लिया है कि सत्तापक्ष का आँख मूंदकर बस विरोध करना है।

सवाल यह है कि देश में लोकतांत्रिकता की दुहाई देने और देश की लोकतांत्रिक मर्यादाओं की रक्षा का दावा करने वाली कांग्रेस क्या खुद अपनी बनावट और संरचना में लोकतंत्र की रक्षा कर पाने की स्थिति में है? और क्या वह जनता के बीच जाकर ईमानदारी से इस बात को स्वीकार कर सकती है? ध्यान से देखा जाय तो हम पाते हैं कि इंदिरा गांधी के समय में ही कांग्रेस का स्वरूप लगभग लोकतंत्र विहीन और व्यक्तिवादी होने लगा था, फिर भी पुरानी पीढ़ी के कुछ नेताओं का लिहाज बचा हुआ था। राजीव गांधी का समय भी कमोबेश ऐसा ही था। लेकिन, सोनिया गांधी के समय में तो कांग्रेस पूरी तरह से व्यक्ति-केंद्रित हो गई और आगे भी उसके इस व्यक्तिवाद से बाहर निकलने की कहीं कोई संभावना नहीं दिख रही है।

गौर करें तो देश की हर पार्टी सभी तरह के चुनावों में खुद के लोकतांत्रिक होने का सबसे मजबूत और टिकाऊ दावा पेश करती है और इसमें भी सबसे लंबा अनुभव कांग्रेस का ही है, लेकिन सवाल यह है कि देश में लोकतांत्रिकता की दुहाई देने और देश की लोकतांत्रिक मर्यादाओं की रक्षा का दावा करने वाली कांग्रेस क्या खुद अपनी बनावट और संरचना में लोकतंत्र की रक्षा कर पाने की स्थिति में है? और क्या वह जनता के बीच जाकर ईमानदारी से इस बात को स्वीकार कर सकती है? ध्यान से देखा जाय तो हम पाते हैं कि इंदिरा गांधी के समय में ही कांग्रेस का स्वरूप लगभग लोकतंत्र विहीन और व्यक्तिवादी होने लगा था, फिर भी पुरानी पीढ़ी के कुछ नेताओं का लिहाज बचा हुआ था। राजीव गांधी का समय भी कमोबेश ऐसा ही था। लेकिन, सोनिया गांधी के समय में तो कांग्रेस पूरी तरह से व्यक्ति केंद्रित हो गई और आगे भी उसके इस व्यक्तिवाद से बाहर निकलने की कहीं कोई संभावना नहीं दिख रही है।

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साभार: गूगल

अब जो पार्टी अपनी बनावट में लोकतंत्र की रक्षा नहीं कर पा रही, वह देश की सत्ता के खिलाफ लोकतंत्र की रक्षा का कौन सा भरोसा जनता को दे रही है। कांग्रेस के पुराने निर्णय स्वाभाविक तौर पर गलत हो रहे हैं। इतिहास की अनेक भूलें और गलतियाँ हैं, जो कांग्रेस के गले की फांस बन रही हैं। कांग्रेस द्वारा शासित राज्यों की भी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है और न ही उसके मुख्यमंत्रियों की कोई ऐसी बदलाव की योजनाएँ सामने आ रहीं हैं। पिछले दो वर्षों में कांग्रेस को राज्यों के चुनावों में कहीं कोई ऐसी सकारात्मक सफलता नहीं मिली है, जिसे देखकर उसके नेतृत्व पर आने वाले समय में जनता भरोसा करे। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के लिए आगामी चुनावों में भी कोई बहुत उत्साहजनक स्थिति नहीं बनने वाली है। कांग्रेस पिछले लंबे समय से नेतृत्व की जड़ता, अस्थिरता, अविश्वास और सांगठनिक नौकरशाही की लालफीताशाही से इस कदर ग्रस्त होती गई है कि जमीनी कार्यकर्ता और शीर्ष नेतृत्व के बीच सीधे संवाद का कोई माध्यम ही नहीं बचा है। सारी बातचीत, सारी रणनीति कुछ गिने-चुने उन नेताओं की मर्जी और अर्जी से तय हो रहा है, जो शीर्ष नेतृत्व के इर्द-गिर्द गणेश-परिक्रमा के लिए मशहूर हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में तो अनेक राज्यों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला और अनेक बड़े राज्यों में दहाई का अंक नहीं छू पायी। पराजित मनोदशा से ग्रस्त और डरा हुआ कांग्रेस नेतृत्व उत्तर प्रदेश और पंजाब में अपने लिए स्थायी और समर्पित कार्यकर्ता नहीं खोज पा रहा है। उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित की घोषणा से वे भी टूट गये जो पिछले अनेक वर्षों से कांग्रेस के साथ थे।

कांग्रेस की वर्तमान भूमिका और उसकी कार्यशैली से तो यही लगता है कि अभी भी उसने विपक्ष की राजनीति करना स्वीकार नहीं किया है। हालांकि केंद्र में कांग्रेस विपक्ष की हैसियत में भी नहीं है। ध्यान देने की बात यह है कि आगामी चुनावों में कांग्रेस जनता के बीच एक विपक्षी की हैसियत से ही जायेगी जबकि उसके इस सरकार के समक्ष भूमिका पर ध्यान दिया जाय तो दो साल का जो परिदृश्य सामने आता है, उसमे यह भूमिका लगभग नगण्य है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)