फिर खुली कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की पोल !

अक्सर अपने धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल होने का दम भरने और भाजपा जैसे दलों पर सांप्रदायिक रानजीति का आरोप लगाने वाली कांग्रेस की कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति की कलई एकबार फिर खुल गई है। उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री हरीश रावत साहब ने राज्य के मुस्लिम कर्मचारियों को जुमे की नमाज़ के लिए डेढ़ घंटे की छुट्टी दिये जाने का ऐलान कर कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता का शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है। सवाल यह उठता है कि नमाज़ के लिये छुट्टी देने का क्या औचित्य है ? वो भी तब जब मुस्लिम समुदाय की तरफ से ऐसी कोई मांग भी नहीं की जा रही थी। मुसलमान तो चलते-फिरते, गाड़ी, होटल कहीं भी नमाज़ अदा कर लेते हैं, फिर अलग से नमाज़ के लिए छुट्टी देने की उत्तराखंड सरकार को क्या आवश्यकता आ पड़ी ? अब अगर मुस्लिमों को दी गई इस सुविधा को देखते हुए हिन्दू, जैन, सिक्ख आदि अन्य समुदायों के लोग भी इस तरह की मांग करने लगें, तब हरीश रावत क्या करेंगे ?

एकबार फिर देश देख सकता है कि कैसे कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति मुस्लिम तुष्टिकरण के बिंदु पर आकर समाप्त हो जाती है। यह पूर्व में भी कई अवसरों पर सामने आता रहा है। फिर चाहें वो राजीव गांधी के समय का शाहबानो मामला हो या पिछले यूपी चुनाव के दौरान कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद द्वारा मुस्लिमों को नौ प्रतिशत आरक्षण देने का वादा करना हो अथवा कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कह देना हो कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है। मगर, इतने सब के बावजूद भी जाने कैसे कांग्रेस अपनी धर्मनिरपेक्ष राजनीति का दम भरती रहती है।

सरकार के अधिकारियों द्वारा कहा गया है कि सभी धर्मों के कर्मचारियों को पूजा-पाठ के लिये इस तरह का अल्प-अवकाश मिलेगा। ऐसे में, सवाल ये है कि क्या सबको छुट्टी देना व्यवहारिक होगा ? हिन्दुओं के सप्ताह में ज्यादातर दिन किसी न किसी भगवान के व्रत और पूजा के होते हैं, तो क्या सरकार इतना अवकाश दे पायेगी ? और अगर सबको अवकाश देने की बात है, तो पहले ऐलान सिर्फ मुस्लिमों की छुट्टी का ही क्यों हुआ ? निश्चित तौर पर इन सब प्रश्नों का कोई भी ठोस उत्तर मुख्यमंत्री हरीश रावत साहब के पास नहीं होगा, क्योंकि उनका ये निर्णय किसी जनहित के मद्देनजर किये गये किसी ठोस अध्ययन पर आधारित नहीं, बल्कि मुस्लिम तुष्टिकरण की पुरानी कांग्रेसी राजनीति से अभिप्रेरित है। वो राजनीति जिसे कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के बाने में छुपाकर अंज़ाम देने की कोशिश करती रहती है, मगर बावजूद इसके वो जब-तब उजागर होती रही है।

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कहना गलत नहीं होगा कि फिलहाल उत्तराखंड के मुख्यमंत्री महोदय का यह अतिशय मुस्लिम प्रेम उत्तराखंड में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र ही उपजा है। जैसा कि कांग्रेसी सोच रही है, उसी हिसाब से उन्हें भी लगता होगा कि मुस्लिमों को साधने के लिये उनके मज़हब से बेहतर कोई और साधन नहीं है। अगर उन्हें मज़हब से जुड़ा कोई लाभ मिलेगा, तो वे लाभ देने वाले के समर्थन में कत्तई गुरेज़ नहीं करेंगे। लेकिन, इस पूरे प्रकरण में एक बात फिर स्पष्ट होकर सामने आयी है कि कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष राजनीति का वास्तविक चरित्र क्या है। यह सच्चाई एकबार फिर देश देख सकता है कि कैसे कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति मुस्लिम तुष्टिकरण के बिंदु पर आकर समाप्त हो जाती है। यह पूर्व में भी कई अवसरों पर सामने आता रहा है। फिर चाहें वो राजीव गांधी के समय का शाहबानो मामला हो या पिछले यूपी चुनाव के दौरान कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद द्वारा मुस्लिमों को नौ प्रतिशत आरक्षण देने का वादा करना हो अथवा कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कह देना हो कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। मगर, इतने सब के बावजूद भी कांग्रेस अपनी धर्मनिरपेक्ष राजनीति का दम भरती रहती है। हालांकि अक्सर उसकी इस कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति की हकीकत देश के सामने आ जाती है, जैसे कि इस ताज़ा नमाज़ की छुट्टी मामले में आयी है।

जिस तरह से अन्य लोगों की तरफ से उत्तराखंड सरकार के इस निर्णय का विरोध हो रहा है, वैसे ही मुस्लिमों को भी इसका मुखरता से विरोध करना चाहिये। उन्हें आवाज़ उठानी चाहिए कि वे नमाज़ की छुट्टी नहीं, रोज़गार और शिक्षा चाहते हैं। इस तरह का विरोध जब मुस्लिमों की तरफ से मुख्यमंत्री महोदय और फिर कांग्रेसी आलाकमान तक पहुंचेगा तो संभव है कि उन्हें अंदाज़ा हो कि अब मुसलमान उनके बहकावे में नहीं आने वाले। अब वे अपने मुद्दों को समझने लगे हैं। मुस्लिम समुदाय को ऐसा करना होगा, अन्यथा न केवल वे कांग्रेस जैसे कथित धर्मनिरपेक्ष सियासी दलों के आसान लक्ष्य बने रहेंगे, बल्कि आम जनमानस के मन में भी यह धारणा गहरे पैठ जायेगी कि मुस्लिम धार्मिक सहूलियतों के आधार पर ही मतदान करते हैं। मुस्लिम समुदाय को मुद्दों पर बात करना सीखना होगा।

काग्रेस आज अपने सबसे बुरे राजनीतिक दौर से गुज़र रही है और इसके पीछे मौजूद कारणों में से एक प्रमुख कारण उसका धर्मनिरपेक्ष राजनीति का ढकोसला भी है। मगर दिक्कत की बात ये है कि वो अब भी संभलने को तैयार नहीं है और अपने इस चाल-चरित्र में कोई परिवर्तन लाने का मन बनाती नहीं दिख रही। निस्संदेह अगर उसने स्वयं में बदलाव नहीं लाया, तो उसकी ये चाल-ढाल न केवल उसकी राजनीतिक दशा को और खराब करने वाली सिद्ध होगी, बल्कि धीरे-धीरे उसे पूर्ण पतन की ओर ले जायेगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)