अहंकार में चूर केजरीवाल यह नहीं समझ रहे कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती !

केजरीवाल की छवि एक अहंकारी व्‍यक्ति के रूप में स्थापित होती जा रही है, जिन्हें केवल स्‍वयं का हित ही दिखाई देता है। लोकतंत्र में वे एकलतंत्र को थोपने की बेजा कोशिश कर रहे हैं। उन्‍हें आभास नहीं है कि पार्टी का गठन एक से अधिक लोगों से मिलकर हुआ था, ऐसे में यदि सबको साथ में लेकर नहीं चले तो पार्टी का समापन भी हो जाएगा। केजरीवाल की तानाशाही का अंत फिलहाल नज़र नहीं आ रहा और उनका अहंकारी और स्वार्थी रवैया उनकी पार्टी को अंत की ओर ही ले जा रहा है। केजरीवाल को शायद यह बात समझ नहीं आ रही कि दिल्ली ने एकबार बहुमत दे दिया, मगर काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।

आम आदमी पार्टी में एक बार फिर से घमासान मचा हुआ है। इस बार फिर से सत्‍ता को ही लेकर खींचतान मची और उसके परिणामस्‍वरूप पार्टी के भीतर आंतरिक कलह फिर प्रकट हो गई। पार्टी ने इसी सप्‍ताह राज्‍यसभा के लिए अपने तीन प्रत्‍याशी तय किए। 16 जनवरी को चुनाव होना है और परिणाम आएंगे। इनमें बाहरी प्रत्‍याशी सुशील गुप्‍ता और नारायण गुप्‍ता को स्‍थान दिया गया। संजय सिंह पहले से थे।

प्रत्‍याशियों को तय करने की इस कवायद में सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि पार्टी के वरिष्‍ठ नेता डॉ कुमार विश्‍वास और आशुतोष को राज्‍यसभा का अवसर नहीं दिया गया। पार्टी का फैसला सामने आते ही घमासान मच गया है। एक बार फिर से पार्टी के संस्‍थापक अरविंद केजरीवाल की नीतियों पर सवाल उठ रहे हैं। कार्यकर्ता एवं भीतर के लोग उनकी आलोचना करते नहीं थक रहे। सोशल मीडिया जैसे सार्वजनिक माध्‍यमों पर वे अपना गुस्‍सा जा़हिर कर रहे हैं और केजरीवाल के रवैये को तानाशाही रवैया करार दे रहे हैं।

आप के राज्यसभा उम्मीदवार संजय सिंह, सुशिल गुप्ता और नारायण दास गुप्ता

पार्टी में काम करने वाले नेताओं के नाम पर विचार किए जाने की बजाय दीगर लोगों को राज्यसभा भेजे जाने पर टिकट बेचे जाने की भी आंशका व्‍यक्‍त की जा रही है। कुमार विश्‍वास को स्‍वयं पार्टी से बहुत उम्‍मीदें थीं, लेकिन वे धराशायी हो गईं। उन्‍होंने कहा कि मुझे शहीद कर दिया गया है, लेकिन मेरे शव से छेड़छाड़ ना की जाए। असल में उन्‍होंने गहरा व्‍यंग्‍य किया और बताया कि केजरीवाल की तानाशाही चरम पर पहुंच चुकी है। कुमार विश्‍वास ने कटाक्ष करते हुए कहा कि जो पार्टी उद्योगपतियों को कोसते नहीं थकती थी, वही अब धनाढ्य लोगों को सिर आंखों पर बैठा रही है। दो रईसों को राज्‍यसभा का टिकट देना बहुत कुछ सवाल खड़े करता है।

सुशील गुप्‍ता मूल रूप से कारोबारी हैं, जिनके पास अच्‍छी खासी जमा पूंजी है। उनके शपथ-पत्र के अनुसार उनके पास 170 करोड़ रुपए की संपत्ति है, जबकि नारायण के पास लगभग 10 करोड़ रुपए की संपत्ति है। तीसरे प्रत्‍याशी संजय सिंह पर आपराधिक प्रकरण अधिक दर्ज हैं। पहले दो के मुकाबले हालांकि उनकी संपत्ति का अनुपात कम है। अब सवाल ये उठता है कि अरविंद केजरीवाल ने आखिर किस मंशा के वशीभूत होकर ऐसा किया होगा?

राजनीतिक गलियारों में तो चर्चाओं का बाज़ार गर्म है ही, लेकिन विश्‍लेषक इसे आत्‍मघाती कदम बता रहे हैं। कोई भी पार्टी अभिमत और जनमत से चलती है। कोई भी बड़े निर्णय, सदस्‍यों, कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों के संज्ञान, अभिमत से तय किए जाते हैं, लेकिन यदि सूत्रधार स्‍वयं अपने ही निर्णय सभी पर थोपना शुरू कर दे तो उसे राजनीति नहीं, तानाशाही कहा जाता है। अरविंद केजरीवाल यही कर रहे हैं। दो धनकुबेरों को राज्यसभा टिकट प्राथमिकता पर देकर उन्‍होंने पार्टी के योग्‍य एवं कर्मशील, लोकप्रिय नामों पर विचार तक करना उचित नहीं समझा। उनकी इसी अनैतिक नीति के चलते अर्से पहले अन्‍ना हजारे ने उनसे किनारा कर लिया था।

सांकेतिक चित्र

यह पहला अवसर नहीं है कि केजरीवाल अपने ही लोगों के निशाने पर आए हैं। इसी साल दिल्‍ली सरकार के पूर्व मंत्री व आप विधायक कपिल मिश्रा ने भी सिलसिलेवार केजरीवाल पर आरोपों की बौछार की थी। उन्‍होंने एक से अधिक घोटाले सप्रमाण प्रस्‍तुत किए और केजरीवाल का वह चेहरा जनता को दिखाया जो छद्म बातों के पीछे छुपा रहता है। राज्‍यसभा के टिकटों की इस बंदरबांट को लेकर अन्‍य पार्टी के नेताओं ने भी तीखी प्रतिक्रिया दी है।

भाजपा नेता मनोज तिवारी ने कहा कि केजरीवाल सीधे तौर पर भ्रष्‍टाचार कर रहे हैं। हालांकि केजरीवाल ने जिन दो लोगों को टिकट दिए हैं, उसका कारण उन्‍हें ही पता होगा। लेकिन जहां तक राजनीति व सार्वजनिक जीवन के सरोकार का सवाल है, निश्चित ही सुशील गुप्‍ता व नारायण गुप्‍ता द्वारा सामाजिक प्रतिबद्धता का कोई उदाहरण सामने नहीं हैं। केवल धनाढ्य होना भी बुरा नहीं है और ऐसा ज़रूरी नहीं है कि धनाढ्य व्‍यक्ति राजनीति में नहीं आ सकता, लेकिन यहां पार्टी के एजेंडे पर बात हो रही है।

जो पार्टी हमेशा अंबानी व अडानी का नाम लेकर कोसती थी, उसी पार्टी ने आज रईस कारोबारियों को पार्टी के संस्थापक नेताओं से ऊपर प्राथमिकता पर रखा, जो पार्टी के दोहरे मापदंड को स्‍पष्‍ट रूप से उजागर करता है। यहां उल्‍लेख करना ज़रूरी होगा कि इसी साल दिल्‍ली के राजौरी गार्डन उपचुनाव में केजरीवाल को करारी हार का सामना करना पड़ा था। उसके बाद भी उनका बड़बोलापन व अहंकार कम नहीं हुआ। मतदाताओं ने सबक सिखाना जारी रखा और एमसीडी चुनाव में केजरीवाल ने फिर मुंह की खाई, बावजूद केजरीवाल का अडि़यलपन कम नहीं हुआ। उनकी ही पार्टी के मंत्री कपिल मिश्रा ने केजरीवाल का लगभग भंडाफोड़ करने के अंदाज में घोटालों का बार-बार सबूत सहित मीडिया के सामने खुलासा किया।

असल में, आम आदमी पार्टी अपने गठन के बाद से ही लगातार भीतरघात का शिकार होती रही है। इसका कारण ये है कि अरविंद केजरीवाल ने सारे अधिकार अपने हाथ में रखे, लेकिन वे इसे कार्यकर्ताओं की पार्टी बताते रहे और इसकी आड़ में मनमानी करते रहे। उनकी इसी फितरत के कारण अन्‍ना हजारे, किरण बेदी ने उनसे किनारा कर लिया। पार्टी के नेता से पहले भी कवि के रूप में कुमार विश्‍वास का अपना कद और अपनी लोकप्रियता थी। पार्टी में आने के बाद उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी, जिससे शायद केजरीवाल को असुरक्षा महसूस हुई होगी।

यदि उन्‍हें टिकट दे दिया जाता तो वे पार्टी के शीर्ष पर भी पहुंच सकते थे। पिछले दिनों आप विधायक अमानतुल्‍ला खान ने कुमार विश्‍वास पर आरोप लगाए थे, तभी इसका संकेत मिल गया था कि पार्टी में अंदरूनी फूट चल रही है। लेकिन सवाल ये उठता है कि इस पार्टी में लगातार इतनी आंतरिक कलह आखिर क्‍यों मची हुई है? इस पाटी का गठन समाज की बुराइयों से लड़ने के लिए किया गया था या आपस में लड़ने के लिए?

जनलोकपाल की मांग की बुनियाद पर बनी इस पार्टी ने सबसे पहले कांग्रेस को हाशिये पर रखा, फिर भाजपा को, फिर दोनों सरकारों को और उसके बाद ये पार्टी लगातार भीतर और बाहर दोनों जगह लड़ती ही नज़र आ रही है। स्‍वयं अरविंद केजरीवाल सत्‍ता के लालच में मुख्‍यमंत्री पद से इस्‍तीफा देकर दोबारा मुख्‍यमंत्री बनने के लिए सामने आ गए और काबिज होकर माने।

केजरीवाल की छवि एक अहंकारी व्‍यक्ति के रूप में स्थापित होती जा रही है, जिन्हें केवल स्‍वयं का हित ही दिखाई देता है। लोकतंत्र में वे एकलतंत्र को थोपने की बेजा कोशिश कर रहे हैं। उन्‍हें आभास नहीं है कि पार्टी का गठन एक से अधिक लोगों से मिलकर हुआ था, ऐसे में यदि सबको साथ में लेकर नहीं चले तो पार्टी का समापन भी हो जाएगा। केजरीवाल की तानाशाही का अंत फिलहाल नज़र नहीं आ रहा और उनका अडि़यल रवैया उनकी पार्टी को अंत की ओर ही ले जा रहा है। दिल्ली ने एकबार बहुमत दे दिया, मगर काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)