लालू की सजा पर राजद की जातिवादी राजनीति उसे ही नुकसान पहुंचाएगी !

इस देश में आज भी नेताओं से कहीं अधिक लोग न्यायालयों और न्यायाधीशों पर विश्वास करते हैं। ऐसे में, उचित होगा कि राजद नेता अदालत के फैसले का सम्मान करें तथा अपने अनर्गल जातिवादी बयानों के लिए माफ़ी मांगें। अन्यथा अगले चुनाव में कहीं ऐसा न हो कि जनता विपक्ष में रहने लायक सीटें भी उनके पास न रहने दे। कम से कम अपनी सहयोगी कांग्रेस की हालत से तो उन्हें सीख लेनी ही चाहिए।

चारा घोटाले के एक मामले में पहले से ही सजायाफ्ता लालू यादव को अब इसीके एक और मामले में दोषी पाते हुए और साढ़े तीन साल की सजा सुनाई गयी है। लालू की सजा के एलान के बाद से ही उनकी पार्टी राजद द्वारा इसे जातिवादी रंग देने की शर्मनाक कोशिश की जाने लगी है। राजद नेताओं की तरफ से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की रिहाई को आधार बनाकर यह कहा गया कि लालू निचली जाति से हैं, इसलिए उन्हें सजा सुनाई गई जबकि सवर्ण होने के कारण जगन्नाथ मिश्रा को बरी कर दिया गया।

हालांकि ऐसा कहते वक़्त वे यह शायद भूल गए कि चारा घोटाले के इस मामले में अदालत ने केवल जगन्नाथ मिश्रा को ही आरोपमुक्त नहीं किया है, बल्कि राजद के वरिष्ठ नेता व पूर्वमंत्री विद्यासागर निषाद समेत कुल छह आरोपियों को भी बरी कर दिया है। अब लालू के खिलाफ पुख्ता साक्ष्य थे, जिनके आधार पर उन्हें सजा हुई है।

ऐसे में, न्यायालय के निर्णय पर सवाल उठाते हुए ऐसे वक्तव्य देना न केवल न्यायपालिका का अपमान है, बल्कि ऐसे बयान सामाजिक समरसता के लिए भी घातक हैं। परन्तु, राजनीतिक नफा-नुकसान का गणित बिठाने में लगे लालू के सपूतों सहित अन्य राजद नेताओं को सामाजिक समरसता से भला क्या सरोकार, उन्हें तो बस जातिवाद की आंच पर अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकनी है। अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए समाज में जहर घोलने में इन्हें कोई समस्या नहीं है।

दरअसल लालू यादव जैसे नेताओं की कुल राजनीतिक जमा-पूँजी ही जातिगत समीकरणों के भरोसे है। जेपी आन्दोलन की लहर में चमकने के बाद जाति की राजनीति के बलबूते लालू खड़े हुए और फिर जातिवादी समीकरणों के जरिये ही बिहार पर एक लम्बे अरसे तक शासन भी किए। लालू के शासन में बिहार की क्या स्थिति थी, उसे सिर्फ इतने से समझा जा सकता है कि उस दौर को आज भी लोग ‘जंगलराज’ कहके याद करते हैं।

अपराध, हत्या, लूट का प्रदेश में बोलबाला था। राजद कार्यकर्ताओं के आगे पुलिस की कोई बिसात नहीं थी। शहाबुद्दीन जैसे अपराधियों को लालू का खुलेआम संरक्षण प्राप्त था।  लालू के राज में परिवारवाद और भाई-भतीजावाद का भी खूब बोलबाला रहा। हालत ये थी कि चारा घोटाले में आरोपी बनकर जेल जाते वक़्त मुख्यमंत्री लालू यादव पत्नी राबड़ी देवी को प्रदेश का मुख्यमंत्री ही बना गए। आखिर प्रदेश की जनता लालू की जातिवादी राजनीति के इस कुचक्र से 2005 में बाहर आई और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। इसके बाद फिर लालू की कभी अपने दम पर सत्ता में वापसी नहीं हो सकी।

हाँ, बीते चुनाव में नीतीश कुमार और कांग्रेस को साथ ले महागठबंधन बनाकर उन्होंने सत्ता में हिस्सेदारी तो प्राप्त की, मगर जल्द ही ये गठबंधन टूट गया और नीतीश वापस अपनी पुरानी सहयोगी भाजपा के पास आ गए। इस प्रकार फिर एकबार लालू बिहार में सत्ता-हीन होकर विपक्ष की भूमिका में आ गए।  

मगर विपक्ष की भूमिका में भी उनकी पार्टी और उनके पुत्रों की तरफ से केवल नकारात्मकता का ही प्रसार किया जा रहा है। सकारात्मक राजनीति किसे कहते हैं, ये जैसे राजद नेताओं को पता ही नहीं है। लालू की सजा को जातिवादी रंग देना नकारात्मक राजनीति का ही उत्कृष्ट उदाहरण है। निस्संदेह ऐसी राजनीति इनके प्रति जनता में और भी गलत सन्देश प्रसारित करेगी। क्योंकि, इस देश में आज भी नेताओं से कहीं अधिक लोग न्यायालयों और न्यायाधीशों पर विश्वास करते हैं। ऐसे में, उचित होगा कि राजद नेता अदालत के फैसले का सम्मान करें तथा अपने अनर्गल जातिवादी बयानों के लिए माफ़ी मांगें। अन्यथा अगले चुनाव में कहीं ऐसा न हो कि जनता विपक्ष में रहने लायक सीटें भी उनके पास न रहने दे। कम से कम अपनी सहयोगी कांग्रेस की हालत से तो इन्हें सीख लेनी ही चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)