नोटबंदी की विफलता का बेसुरा राग

नोटबंदी को लेकर पिछले पचास दिनों में जमकर सियासत हुई । व्यर्थ के विवाद उठाने की कोशिश की गई । केंद्र सरकार पर तरह-तरह के इल्जाम लगाए गए । केंद्र सरकार पर एक आरोप यह भी लग रहा है कि इस योजना से कालाधन को रोकने में कोई मदद नहीं मिलेगी क्योंकि उसका स्रोत नहीं सूखेगा । इस तरह का आरोप लगाने वाले लोग सामान्यीकरण के दोष के शिकार हो जा रहे हैं । अर्थशास्त्र का एक बहुत ही बुनियादी नियम है कि यहां कोई भी नीति बनाई जाती है तो एक खास लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उसको हासिल करना होता है । अर्थशास्त्र में इसको लक्षित सिद्धांत यानि टार्गेटिंग प्रिंसिपुल के नाम से जाना जाता है ।  कालेधन के स्रोत को रोकना इस योजना का उद्देश्य था भी नहीं, सरकार की योजना के मुताबिक कालेधन को टैक्स के दायरे में लाना और सरकार को उसके मालिकों के बारे में जानकारी हासिल करना था और पचास दिनों में जिस तरह से बैंकों में पैसे जमा हुए उससे लगता है कि सरकार अपने इस लक्ष्य को हासिल करने में लगभग कामयाब रही है ।

नोटबंदी के पचास दिन बीत जाने के बाद बैंकों के बाहर लगनेवाली लंबी कतारें छोटी हो गई हैं । लोगों को शुरुआती दिक्कतों से राहत मिलती नजर आ रही है । यह एक ऐसा फैसला है जिसका असर भी कम से कम छह महीने बाद महसूस किया जा सकेगा । लोगों को होनेवाली दिक्कतों को मुद्दा बनाकर जो लोग सरकार पर हमलावर हो रहे हैं, वो खालिस सियासत कर रहे हैं । जनता को होनेवाली दिक्कतों पर चर्चा होनी चाहिए । संसद में भी ये बहस होती तो बेहतर होता, लेकिन विपक्षी दलों के शोर-शराबे के बीच पूरा शीतकालीन सत्र धुल गया ।

इस संदर्भ में एक छोटा सा उदाहरण देना काफी होगा । बहुजन समाज पार्टी के खाते में इस पचास दिनों के दौरान सौ करोड़ से ज्यादा की राशि जमा की गई । सरकार को इस राशि के बारे में जानकारी नहीं थी और ना ही राशि बैंकिंग सिस्टम में थी । जमा होने के बाद अब यह राशि सिस्टम का हिस्सा है । इस तरह के कई खाते होंगे जिनमें करोड़ों जमा हुए होंगे । आंकड़ों के मुताबिक बैंकों में करीब तीन सौ फसदी ज्यादा नकदी जमा हुई है । नोटबंदी के पहले बैंकों के पास करीब ढाई लाख करोड़ रुपए का जमाधन था, जो अब बढ़कर करीब 9 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया है । इससे बैंकिंग सिस्टम मजबूत हुआ है । आठ नवंबर को जब प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का एलान किया था तो उन्होंने तीन बिंदुओं पर जोर दिया था । उनके मुताबिक इस फैसले से भ्रष्टाचार, काला धन और जाली नोट का कारोबार करनेवालों की कमर टूट जाएगी । उन्होंने जोर देकर कहा था कि देश में नकदी का अत्यधिक प्रचलन का सीधा संबंध भ्रष्टाचार से है । तीसरी महत्वपूर्ण बात जो प्रधानमंत्री मोदी ने कही थी वो ये कि इस फैसले से आतंकवादियों और भारत के खिलाफ गतिविधि चलानेवालों की कमर टूट जाएगी । आकंलन इन्हीं तीन बिंदुओं के इर्दगिर्द किया जाना चाहिए ।

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इस आधार पर सरकार की आलोचना की जा रही है कि नोटबंदी करने से बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ और महज लाख पचास हजार करोड़ रुपए का काला धन ही सामने आ पाया है, जिसके लिए सरकार ने पूरे देश को कतार में खड़ा कर दिया । ये वो राशि है जो बैकों में जमा नहीं की गई । यह सही है, लेकिन जो पैसे बैकों में जमा हुए हैं और उनपर टैक्स लगाया गया है, उससे सरकारी खजाने में लोकहित में खर्च करने के लिए धन की बढ़ोतरी हो जाएगी । इसके अलावा अगर हम अर्थशास्त्र के लिहाज से बात करें तो रिजर्व बैंक की जिम्मेदारी भी लाख पचास हजार करोड़ कम हो जाएगी क्योंकि वो नोट कागज़ के टुकड़े हो गए । जिन लोगों ने अपने काले धन को बैंकों में जमा करवाकर सफेद दिखाने की कोशिश की है, उनका सही मूल्यांकन होना अभी शेष है ।

नोटबंदी के पचास दिन बीत जाने के बाद बैंकों के बाहर लगनेवाली लंबी कतारें छोटी हो गई हैं । लोगों को शुरुआती दिक्कतों से राहत मिलती नजर आ रही है । यह एक ऐसा फैसला है जिसका असर भी कम से कम छह महीने बाद महसूस किया जा सकेगा । लोगों को होनेवाली दिक्कतों को मुद्दा बनाकर जो लोग सरकार पर हमलावर हो रहे हैं, वो खालिस सियासत कर रहे हैं । जनता को होनेवाली दिक्कतों पर चर्चा होनी चाहिए, उसको दूर करने के उपायों पर विचार किया जाना चाहिए और सरकार को उन उपायों को संवैधानिक दायरों में लागू करने में किसी भी तरह की कोई हिचक भी नहीं दिखानी चाहिए । संसद में भी ये बहस होती तो बेहतर होता, लेकिन विपक्षी दलों के शोर-शराबे के बीच पूरा शीतकालीन सत्र धुल गया । संसद नहीं चलने से जो जन धन की हानि हुई उसपर नए-नए अर्थशास्त्री (?) चर्चा नहीं कर रहे हैं ।

इस नोटबंदी का एक और फायदा दिखाई दे रहा है, वो ये कि नक्सलियों की कमर टूटती नजर आ रही है । छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सलियों के पास से करीब सात हजार करोड़ की रकम का पता चला है । इतनी बड़ी रकम बेकार होने के बाद नक्सलियों को ऑपरेट करने में आर्थिक रूप से बहुत दिक्कत हो रही है । केंद्र सरकार को अनुमान है कि करीब पांच सौ करोड़ रुपयों के नकली नोट का कारोबार ठप्प हो गया है । लेकिन, यह मान लेना बेमानी होगा कि नोटबंदी से नक्सलियों और आतंकवादियों का सफाया हो जाएगा । नक्सलियों के जो मददगार हैं, वो उनको अन्य तरीकों से मदद कर रहे हैं । आतंकवादियों की फंडिंग सीधे तौर पर पाकिस्तान से हो रही है और वो आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए फंडिंग का अन्य स्त्रोत ढूंढ लेंगे । इसके अलावा आतंकवादियों के जो स्लीपर सेल सक्रिय हैं वो देश की बैंकिंग सिस्टम से जुड़े हैं, उनको पकड़ना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है । देश ने देखा है कि दो हजार आठ में आतंकवादियों को पाकिस्तान ने किस तरह से फंडिंग की थी । सरकार के इस फैसले को लागू करने में बड़ी चुनौतियां अब भी सामने हैं, सामने तो इस योजना को सफल बनाने के लिए और रिफॉर्म की भी जरूरत है ।  हालांकि उम्मीद है कि सरकार इन चीजों पर भी ध्यान अवश्य दे रही होगी ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)