नकदी के जाल से निकलकर डिजिटल अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ने का समय

लेखक अमिष त्रिपाठी की तीन खण्डों में शिव की एक काल्पनिक कहानी है, जो सोमरस नामक अमरता देने वाले द्रव्य की कथा है। यह एक अमृत था, परन्तु इस अमृत के दुष्प्रभाव भी थे, जिसको वहां के राजा दक्ष प्रजा से छुपा रहे थे। जिस तरह समुद्र मंथन में अमृत के साथ विष भी निकला, उसी तरह इस अमृत की निर्माण प्रक्रिया में इसके साथ-साथ विष भी बनता था। इस कहानी में जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो यह कि शुरुआत में जो चीज समाज के लिए अमृत थी, वही इसके ज्यादा उपयोग से धीरे धीरे स्वतः विष में परिवर्तित हो गयी। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में हर समस्या का मूल बन गयी। और चूँकि, इस सोमरस के प्रति स्वार्थ इतना गहरा हो चुका था कि बिना इसे प्रतिबंधित किये कोई उपाय नहीं रहा। धर्म युद्ध हुआ और इस विद्या को उपन्यास के अंत में हमेशा के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर ख़त्म कर दिया गया।

अब इस कहानी को हम वर्तमान अर्थव्यवस्था के परिपेक्ष्य में देखते हैं, तो क्या नकद हमारी अर्थव्यवस्था का सोमरस है ? क्या सोमरस की तरह नकद भी धीरे-धीरे किसी व्यवस्था के लिए अभिशाप बन सकती है ? क्या नकद अपने सारे फायदे के बावजूद इतना जहरीला हो सकता है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था खोखली होने लगे ? इन सारे प्रश्नों के मूल में अगर हम इस व्यवस्था के इतिहास में जाएँ तो पाएंगे कि भौतिक मुद्रा एक बहुत ही पुरानी एवं मध्यकालीन परंपरा है व समय के साथ-साथ इस फिजिकल करेंसी के साथ-साथ अनेक विष-बेल लिपट चुके हैं।

भौतिक मुद्रा के साथ जो सबसे बड़ी समस्या आज पेश आ रही है, वो है इसके प्रति आशक्ति तथा कर चोरी हेतु सरकार की नज़र से इसे छुपा कर रखना। इस कारण अर्थव्यवस्था में उन छिपे हुए नोटों का क़ानूनी हस्तान्तरण में प्रयोग बंद हो जाता है और ये धन जैसे सरकार की नज़रों से गायब हो जाते हैं। उस धन का प्रयोग होता है, पर वहाँ जिस धंधे को सरकार या समाज गैर क़ानूनी मानते हैं और ये छुपा हुआ धन अपनी एक खुद की अर्थव्यवस्था बना लेती है जिसका विकास स्वतः होने लगता है। यह सामानांतर अर्थव्यवस्था नकद पर निर्भर हो जाती है, जहाँ न कोई टैक्स देना होता है, न ही समाज के प्रति किसी उत्तरदायित्व को निभाना होता है।

यह बिलकुल ही मुफीद समय है, जब हम राज्य के मौद्रिक वचन को नोट के रूप में मानने के बजाये डिजिटल एवं प्लास्टिक वचन को ज्यादा वजन दें। ये न केवल युगानुकुल है, बल्कि सुलभ सस्ता एवं कैश के साइड इफ़ेक्ट से बिलकुल मुक्त है। किसी भी विकास कर रही अर्थव्यवस्था को अन्ततोगत्वा जाना वहीँ है। हम भारत में कुल वित्तीय लेनदेन का लगभग 60% नकद में करते हैं, जिसे हमें घटा कर 20% के नीचे लाना होगा, अगर हमें अपनी अर्थव्यवस्था को अन्य राष्ट्रों की तुलना में साफ़-सुथरी एवं मजबूत बनाना चाहते हैं। अच्छी बात ये है कि सरकार के प्रयास इसी दिशा में होते दिख रहे हैं। 

आज हमारे समाज में जितनी भी विसंगतियाँ दिखाई देंगी, उनके जड़ में यही काला धन है, जो कि कुछ नहीं, बल्कि सरकार की नज़र से छुपाकर लिया गया नकद है या उसके द्वारा खरीदी गयी परिसंपत्तियाँ हैं। इसी कालेधन रूपी नकद की जड़ से समस्त बुराइयों को खुराक मिलती है या उनकी अर्थव्यवस्था चलायमान रहती है। चाहे वो नशीली दवाओं का कारोबार हो, आतंकवाद की फंडिंग हो, हवाला कारोबार हो, चुनावों में लग रहा धनबल हो, चाइल्ड ट्रेफिकिंग हो या अन्य अपराध हों या उन्हें करवाने के लिए किया जा रहा जाली नोटों का इस्तेमाल हो, इन सबकी बुनियाद इसी नकदी पर टिकी होती है।

कामरेड सीताराम येचुरी ने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि यह काला धन भारत की अर्थव्यवस्था का 06% है एवं इसका लगभग 0.025% नकली नोट हैं। अब अगर हम भारत की विशाल अर्थव्यवस्था को देखें तो ये रकम बहुत ज्यादा है। ये वही सोमरस है जो अब विष बन चुका है एवं जिसका उपयोग हमारे समाज को निरंतर कमजोर कर रहा है। इस विषबेल को काटने का कोई भी साहसी फैसला मुश्किल हो सकता है, परन्तु गलत कभी नहीं। इस नकद के लोभ में हर व्यक्ति भूल चुका है कि लक्ष्मी चंचला है, ये जब तक एक हाथ से दुसरे हाथ जाती रहती है, तभी तक आर्थिक विकास होता है एवं इसी विकास का एक हिस्सा कर के रूप में समाज व्यवस्था को जाता है।

वर्तमान सरकार के 500 एवं 1000 के बड़े नोटों जो कि बाज़ार में उपलब्ध नकद का 86% हैं, को वापस लेने के फैसले ने उन सारे नोटों को अपने मूल्य को बरक़रार रखने हेतु बैंकों में आने को विवश कर दिया है। अब चाहे काला हो या उजला अपने वजूद के लिए उन्हें सरकार की नज़र में आना ही होगा, वरना उस मूल्य के छपे नोट को सरकार स्वतः उपयोग में ला लेगी। बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं कि क्या नए नोट से फिर से काला धन नहीं बनेगा ? दरअसल सरकार ने काले धन के निर्माण व प्रवाह को रोकने के लिए पहले से ही कई कदम उठाए हैं और अब जब यह निर्णय लिया गया है तो इसके बाद फिर नया काला धन न पनपे इसके लिए सरकार निश्चित तौर पर कुछ न कुछ तैयारी करके ही चल रही होगी।

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बहरहाल, एक बात तो निश्चित है कि सरकार का यह कदम अब तक संग्रहित विषबेल रूपी नोटों को तो व्यर्थ कर ही देगा, जब तक कि वे एकबार वापस सरकार की आँखों से न गुजरें। और सरकार की नज़र हर उस व्यक्ति पर होगी जो यह काम कर रहा है। आय के ज्ञात स्रोतों से ज्यादा लोग जमा करने से बचेंगे, जिस भी किसी खाते में असामान्य गतिविधि होगी, वो पकड़ में आ जायेंगे। अब यह सर्वविदित है कि कैश व्यवस्था पुरातन एवं समाज की बदली आवश्यकताओं को पूर्ण करने में अक्षम हो चुकी है। अब बड़े लेनदेन कैश में करना न सुविधाजनक है, न ही फायदेमंद। तो अब समय आ गया है कि हम इस कैश के जाल में फँसी अर्थव्यवस्था को यहाँ से बाहर निकालें। यह बिलकुल ही मुफीद समय है, जब हम राज्य के मौद्रिक वचन को नोट के रूप में मानने के बजाये डिजिटल एवं प्लास्टिक वचन को ज्यादा वजन दें। ये न केवल युगानुकुल है, बल्कि सुलभ सस्ता एवं कैश के साइड इफ़ेक्ट से बिलकुल मुक्त है। किसी भी विकास कर रही अर्थव्यवस्था को अन्ततोगत्वा जाना वहीँ है। हम भारत में कुल वित्तीय लेनदेन का लगभग 60% नकद में करते हैं, जिसे हमें घटा कर 20% के नीचे लाना होगा, अगर हम अपनी अर्थव्यवस्था अन्य राष्ट्रों की तुलना में साफ़ सुथरी एवं मजबूत बनाना चाहते हैं। अच्छी बात ये है कि सरकार के प्रयास इसी दिशा में होते दिख रहे हैं।     

आज वर्तमान समाज व्यवस्था में सूचना क्रांति के कारण राज्य की मौद्रिक प्रतिज्ञा अब केवल नोटों तक सीमित नहीं है, यह एक आंकड़ों का खेल है कि आपके खाते में कितना धन है और वो व्यक्ति के इच्छानुसार हस्तान्तरणीय हो गयी है, तो अब बिना मुद्रा के मूर्त रूप के भी मुद्रा वजूद में है एवं क्रयशील तथा अर्थव्यवस्था को चलाने में सक्षम है। तो क्यों न हम इस व्यवस्था की ओर बढ़ें। आज जब लगभग हर व्यक्ति मोबाइल उपयोग कर रहा है, डेबिट कार्ड सुलभ हो चुका है, छुट्टे पैसे अब सभी एटीएम से ही निकाल रहे हैं तो क्यों न उस व्यवस्था को आगे बढ़ाया जाय। अगर आप किसी भी दुकानदार को पैसे ऑनलाइन ट्रान्सफर या कार्ड से करते हैं, तो वो टैक्स बिलकुल भी चोरी नहीं कर सकता। आपका कोई भी पेमेंट अगर कैश है तो संभावना है की वो ब्लैक बन जाये पर अगर यह बैंक टू बैंक, अकाउंट टू अकाउंट है तो यह हमेशा सफ़ेद ही रहेगा। तो आइये, ये बिलकुल सही समय है जब हम नए नोटों की बजाय बिना नोटों की साफ़-सुथरी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दें तथा जो इस से अछूते हैं, उन्हें भी डिजिटल अर्थव्यवस्था का अंग बनायें। हम इसके लिए अग्रशील होना बिलकुल भी नहीं छोड़ सकते कि पीछे वाले बहुत पीछे हैं, जरुरत है उन्हें भी इस व्यवस्था के अनुकूल, संवेदनशील तथा जागरूक बनाने की।

(लेखक नेशनलिस्ट ऑनलाइन में कॉपी एडिटर हैं।)