कोरोना से लड़ाई में लॉकडाउन का महत्व विपक्ष भले न समझे, मगर आम लोगों ने बखूबी समझ लिया है

जब विपक्ष लॉकडाउन को लेकर सरकार पर तरह-तरह के सवाल खड़े कर रहा था, उसी समय ‘जन की बात’ के सम्पादक प्रदीप भण्डारी गांवों में जाकर लोगों से लॉकडाउन के औचित्य और उनकी समस्याओं आदि पर बातचीत कर रहे थे। प्रस्तुत वीडियो में प्रदीप उत्तर प्रदेश के सबोदा गाँव के लोगों से लॉकडाउन 2 के दौरान उनकी राय जान रहे तथा लॉकडाउन आगे बढ़ना चाहिए या नहीं, इसकी पड़ताल भी कर रहे हैं।

कोरोना महामारी संकट के चलते हुए लॉकडाउन के चार चरण गुजर जाने के बाद अब देश में अनलॉक का पहला चरण चल रहा है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को पहले लॉकडाउन की घोषणा की थी तब वह एक आपात निर्णय था और कोरोना के तेजी से फैलते संक्रमण से देशवासियों को बचाने का इससे श्रेष्‍ठ एवं अहम निर्णय दूसरा नहीं हो सकता था।

इसके बाद लगातार दो महीनों तक भय का माहौल रहा। डराने वाले आंकड़े आते रहे लेकिन अब जाकर पिछले एक पखवाड़े में ऐसा लगा है मानो कोरोना के खिलाफ देश की लड़ाई अर्थ पा रही है। स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय द्वारा मय आंकड़ों के यह तस्‍दीक की जा रही है कि देश में अब रिकवरी रेट सुधर रहा है।

मौजूदा संक्रमण के मामलों में से लगभग आधे मरीज स्‍वस्‍थ हो चुके हैं एवं शेष आधे एक्टिव केस हैं। इन सब बातों को सुनकर, पढ़कर अब लग रहा है कि मोदी सरकार की दूरदर्शिता एवं कड़ी मेहनत ने देश को एक अभूतपूर्व संकट से बचाया है। यदि समय पर लॉकडाउन लगाने एवं इसको बढ़ाने के सख्‍त फैसले ना लिए जाते तो भारत की विराट जनसंख्‍या के मान से मृतकों का आंकड़ा अत्‍यधिक हो सकता था।

यह साफ़ है कि इस महामारी से निपटने के लिए लॉकडाउन ही बेहतर विकल्प था, जिसके जरिये न केवल संक्रमण की चेन को काफी हद तक तोड़ा जा सका बल्कि तैयारियों के लिए भी सरकार को वक्त मिल गया। लेकिन लॉकडाउन के शुरूआती दौर में देश के विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा जिस तरह इसपर सवाल उठाए गए वो विचित्र ही था।

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने कहा था कि लॉकडाउन समाधान नहीं है, तो कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी यह कहती दिखीं कि लॉकडाउन को लेकर सरकार के पास कोई रणनीति नहीं है। वहीं ममता बनर्जी लॉकडाउन का पालन करवाने को लेकर कभी गंभीर नजर नहीं आईं।

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सपा के अखिलेश यादव यह कहते दिखे कि लॉकडाउन से जनता की मुश्किलें बढ़ रही हैं, इसलिए सरकार को विधानसभा का संयुक्त सत्र बुलाकर समस्या के  समाधान के लिए विपक्ष से चर्चा करनी चाहिए। जाहिर है, विपक्षी दलों ने लॉकडाउन जैसे बेहद जरूरी निर्णय पर खुलकर सरकार साथ नहीं दिया और जिस-तिस प्रकार इसपर सवाल ही उठाते रहे।

जब विपक्ष यह सब कर रहा था, उसी समय ‘जन की बात’ के सम्पादक प्रदीप भण्डारी गांवों में जाकर लोगों से लॉकडाउन के औचित्य और उनकी समस्याओं आदि पर बातचीत कर रहे थे। प्रस्तुत वीडियो में प्रदीप उत्तर प्रदेश के सबोदा गाँव के लोगों से लॉकडाउन-2 को लेकर उनकी राय जान रहे तथा लॉकडाउन आगे बढ़ना चाहिए या नहीं, इसकी पड़ताल भी कर रहे हैं।

वीडियो की शुरुआती बातचीत में जेवर जिले में वाहन चालक के रूप में काम करने वाले ग्रामीण से जब प्रदीप पूछते हैं कि सरकार से मदद मिल रही है, तो जवाब हां होता है। साथ ही उस व्यक्ति का यह भी कहना है कि लॉकडाउन बढ़ना चाहिए।

आगे की बातचीत में बुजुर्ग शख्स यह तो मान रहे कि समस्याएँ हैं, लेकिन बावजूद इसके वे लॉकडाउन बढ़ाने के पक्ष में हैं तथा मानते हैं कि ‘सरकार बढ़िया कर रही है’। जेवर में भवन निर्माण श्रमिक के रूप में काम करने वाले हरेन्द्र कहते हैं कि इस दौरान फिलहाल काम तो बंद है लेकिन संतुष्टि है कि हमें खाने पीने को मिल रहा है। उनकी पत्नी के खाते में सरकार की जन कल्‍याणकारी योजनाओं के पैसे आए हैं जिससे आपात समय में भी मदद मिल रही है।

कोरोना के कारण नोएडा से गाँव लौटे एक नौकरीपेशा शख्स का कहना है कि कोरोना जिस तरह की संक्रामक बीमारी है, उसे देखते हुए लॉकडाउन बढ़ना चाहिए। गांव के लोगों का संयुक्त स्वर यही है कि लॉकडाउन वायरस से लड़ने के लिए ही लगाया गया है और वे इसके समर्थन में हैं। इस बातचीत में यह भी निकलकर आता है कि गाँव में लोग न केवल लॉकडाउन को ठीक मानते हैं, बल्कि उसका पालन भी कर रहे हैं।

वीडियो को देखते हुए समझा जा सकता है कि जब विपक्षी दल लॉकडाउन को लेकर नुक्ताचीनी करने में व्यस्त थे, तब ग्रामीण क्षेत्रों में लोग समस्याओं-परेशानियों के बावजूद लॉकडाउन के पक्ष में थे और सरकार का समर्थन कर रहे थे।

मगर विडंबना ही है कि जो बात देश के गांवों में बसने वाले इन सामान्य लोगों को समझ में आ गयी, वो देश के बड़े विपक्षी दल और उनके प्रबुद्ध नेता अपनी संकीर्ण राजनीति के कारण नहीं समझ सके। ऐसे में, इस वीडियो का यह सन्देश विपक्षी दलों को समझ लेना चाहिए कि कोरोना से लड़ाई में जनता सरकार और उसके निर्णयों के साथ है, वे चाहें जो कहते रहें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)