गुजरात चुनाव में बदल गया भारतीय राजनीति का वैचारिक धरातल

सत्ता आती-जाती रहेगी, पर विचारधारा मजबूत रहनी चाहिए ताकि भारत की सांस्कृतिक विरासत से खिलवाड़ करने वालों को हम इस देश में जड़मूल से समाप्त कर सकें। ये चुनाव भारतीय राजनीती को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आगे नतमस्तक होने के लिए विवश करता है, इसीलिए यह चुनाव साधारण नहीं है। ये भारत की राजनीती को एक निर्णायक मोड़ देने वाला चुनाव है, जो दीवार पर भविष्य के भारत की इबारत लिख रहा है।

हाल ही में संपन्न हुआ गुजरात चुनाव वैसे तो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में किसी राज्य के सामान्य चुनाव जैसा ही था, परन्तु एक राजनीतिक विश्लेषक की नज़र से देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि शायद ये चुनाव सामान्य नहीं था। भारतीय राजनीती के वैचारिक परिद्रश्य से तो कतई ये चुनाव सामान्य नहीं था, कभी जिनके पूर्वजों ने सोमनाथ के जीर्णोद्धार का विरोध किया था, उनके वंशज उसी सोमनाथ बाबा के सामने साष्टांग दण्डवत होते नज़र आए। ये भारतीय राजनीती में हुए बदलावों का परिचायक है, ये आने वाले समय की राजनीती का संकेत है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल बिना सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विचार को आत्मसात किए अब देश के जनमानस के समक्ष अपने आप को प्रस्तुत नहीं कर सकता है। इतिहास के झरोंखे से यदि देखा जाए तो इस वैचारिक महाभारत की जड़ें गहराई तक जाती हैं।

एक लम्बे स्वतंत्रता संग्राम के बाद आई भारत की आजादी अपने साथ देश के विभाजन की त्रासदी भी लेकर आई थी। अखंड भारत धर्म के आधार पर विभाजित हो गया, सिंध और मुल्तान की वह धरती जहाँ हमारी संस्कृति का शैशव काल गुजरा था, हमसे छीन ली गयी। वहां मौजूद सनातन संस्कृति की सभी निशानियों को चुन-चुनकर समाप्त कर दिया गया इस पीड़ा और वेदना से ही देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एक नयी धारा का प्रवाह हुआ, परमपूजनीय डॉ. हेडगेवार जी और गुरु गोलवलकर जी जैसे भारत माता के सत्पुत्रों ने स्वयं को आहूत कर दिया, तब जाकर आज भारत के वर्तमान परिदृश्य में हम जिस राष्ट्रवादी विचार को आत्मसात कर रहे हैं, उसका उद्भव हुआ।

दुर्भाग्य से विभाजन के बाद भारत की राजनीतिक सत्ता वामपंथियों के चाचा नेहरू के पास चली गयी, राज्य को धर्म से अलग रखने के नाम पर ऐसा पाखंड हुआ, जिसका मकसद नास्तिकता के जहर को भारत के जनमानस की रगों में भर देना था। परन्तु, आस्था जिस देश के रक्त में बहती हो, वहां लाल झंडा फहराना इतना आसान नहीं होता। एक लम्बे संघर्ष के बाद आज भारत में राष्ट्रवादी विचार की विजय हो रही है, ये अवसर उन तमाम महापुरुषों को नमन करने का अवसर है, जिनके बलिदानों के बल पर आज नेहरू-गांधी परिवार की राजनैतिक सत्ता के दमन और सनातन संस्कृति विरोधी वामपंथी विचार की पराजय सुनिश्चित हो रही है।

कभी पूरे देश पर राज करने वाले लोग, जो ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ के नाम पर हज़ारों साल पुरानी भारतीय संस्कृति को धिक्कार रहे थे, आज शैक्षणिक संस्थानों में अपने अस्तित्व की अंतिम सांसे गिन रहे हैं। ये स्थिति इसी बात का प्रमाण है कि हमारी विचारधारा के लोग सही थे और उन लोगों के वैचारिक पुरोधा गलत थे, उनकी ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ में भारत सिर्फ एक भूमि का टुकड़ा था, पर हमारे लिए भारत ‘माँ’ है, जिसकी बूँद-बूँद हमारे लिए गंगा और कंकर कंकर शंकर है। हम कल भी इसी भारत माँ के लिए जीते थे आज भी जीते हैं और कल भी जियेंगे, हमारे लिए भारत मधुमक्खी का छत्ता कभी नहीं रहा।

आज़ादी के बाद इस देश में लम्बे समय तक वामपंथियों ने कांग्रेस की राजनैतिक सत्ता के गठजोड़ से राज किया। चूंकि, सामाजिक परिवर्तन का रास्ता कमोबेश राजनैतिक सत्ता से ही होकर जाता है, इसीलिए समाज को भी भ्रमित किया जाता रहा और देश की नीतियों पर झोलेवालों की लाल छाप रही। चाहें वह देश की विदेश नीति रही हो, आतंरिक अलगाववाद से निपटने की नीति रही हो, देश की शिक्षा व्यवस्था रही हो या देश की अर्थव्यवस्था रही हो, सब जगह वामपंथ की वैचारिकी का रंग नज़र आता था, पर मंदिर आंदोलन से बदली सियासत ने देश में इस राजनैतिक–वैचारिक गठजोड़ की जड़ें हिलाकर रख दीं। समाज में हुए इस मंथन ने दो-ढाई दशक में ही सही, आज देश को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने वाले चिंतन का आम जनमानस में आरम्भ किया है। शायद यही वजह है कि कभी राम के अस्तित्व को नकारने वाले लोग आज ‘जनेऊधारी हिन्दू’ बन रहे हैं।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं. दीन दयाल उपाध्याय

अगर आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के राजनीतिक विचार के केंद्र बिंदु में है और देश की सियासत उसके आगे नतमस्तक है, तो इस परिवर्तन के लिए बलिदान हुए लोगों को याद करना भी हमारा दायित्व है। ये परिवर्तन अथक संघर्ष, त्याग और बलिदान का ही परिणाम है। हजारों स्वयंसेवक, जनसंघ या बीजेपी के कार्यकर्ता आज भी इस परिपाटी को केरला, बंगाल, कश्मीर सहित पूरे देश में अपने रक्त से सींच रहे हैं; हम न कभी रुके थे और न ही कभी झुके थे। झुके हम तब भी नहीं थे, जब मुट्टीभर लोगों के साथ परमपूजनीय हेडगेवार जी ने पहली शाखा लगाई। हमने कितना दमन नहीं देखा, इसी देश में, जब गांधी जी की हत्या के बाद एक झूठे षडयन्त्र में पुलिस गुरु जी को गिरफ्तार करके ले गयी, पर झुके हम तब भी नहीं थे।

दमन और अत्याचार की पराकाष्ठा भी हुई, जब इसी देश की एकता और अखंडता के लिए लड़ने वाले भारत माता के बेटे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को साज़िश के तहत शेख अब्दुल्लाह की जेल में मार दिया गया, लेकिन हम तब भी नहीं झुके। इसी देश में एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष की हत्या चलती ट्रैन में कर दी गयी। आज तक पंडित दीन दयाल उपाध्याय के हत्यारों को सजा नहीं मिली, पर हम झुके तब भी नहीं थे।

आज अगर उसी बलिदानी परिपाटी के लोग आकाश में चमक रहे हैं, तो उसकी बुनियाद में कही मुखर्जी और दीन दयाल गड़े हुए हैं। सत्ता आती-जाती रहेगी, पर विचारधारा मजबूत रहनी चाहिए ताकि भारत की सांस्कृतिक विरासत से खिलवाड़ करने वालों को हम इस देश में जड़मूल से समाप्त कर सकें। ये चुनाव भारतीय राजनीती को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आगे नतमस्तक होने के लिए विवश करता है, इसीलिए यह चुनाव साधारण नहीं है। ये भारत की राजनीती को एक निर्णायक मोड़ देने वाला चुनाव है, जो दीवार पर भविष्य के भारत की इबारत लिख रहा है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)