गुजरात चुनाव में उतरा कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता का नकाब

गुजरात में राहुल गांधी की कैंपेन पर नजर डालें तो समझ आ जाएगा कि वे कभी भी किसी मस्जिद या दरगाह में नहीं गए। वे बार-बार मंदिरों के दौरे करते रहे। कांग्रेस  ने इस बार के चुनाव में अपने को भाजपा बनाने की चेष्टा की थी। तो क्या कांग्रेस को भी समझ आ गया है कि भारत में प्रदेश या अखिल भारतीय स्तर पर राज करने के लिए हिन्दू वोट अहम हैं। सो, सेक्युलर कांग्रेस साफ तौर पर मुसलमानों को साइडलाइन करती दिखी।

भारतीय जनता पार्टी 22 साल गुजरात में सत्ता में काबिज रहने के बाद फिर से पांच साल के लिए राज्य में राज करेगी।  गुजरात में भाजपा की जीत पर कभी भी संदेह नहीं था। देखा जाए तो बहस का मुद्दा यही था कि उसे पहले से थोड़े ज्यादा या कम वोट/सीट मिलेंगी या नहीं? कांग्रेस ने गुजरात चुनाव के साथ ही अपने धर्मनिरपेक्षता के चोले को उतारकर फेंक दिया। गुजरात चुनाव में मुसलमानों के वोटों को पाने की कोई अतिरिक्त कोशिश ना तो भाजपा ने की और ना ही कथित सेक्युलर कांग्रेस ने। भाजपा  ने जो किया उससे किसी को कोई हैरानी नहीं होगी, उसकी राजनीति मुस्लिम तुष्टिकरण की रही ही नहीं है।

मुसलमानों से दूरी क्यों

भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में इस बार भी किसी मुसलमान को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था। उसे देखा जाए तो वहां कोई कायदे का मुसलमान उम्मीदवार मिला भी नहीं। भाजपा ने 1980 से अब तक 1998 में केवल एक मुसलमान प्रत्याशी को टिकट दिया।  कांग्रेस ने भी इस बार केवल 6 मुसलमानों को ही टिकट दिया है। गुजरात में मुसलमानों की आबादी 9.97 फ़ीसदी है। गुजरात में 1980 में सबसे ज़्यादा 12 मुसलमान विधायक चुने गए थे। गुजरात की 182 सीटों वाली विधानसभा में 25 ऐसे विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां मुसलमान मतदाता अच्छी संख्या में हैं। बड़ा सवाल यही है कि सेक्युलर कांग्रेस ने इतने कम मुसलमानों को क्यों टिकट दिया क्या इस सवाल का जवाब कोई कांग्रेस का नेता देगा।

गुजरात में मंदिर-मंदिर घूमे राहुल

कांग्रेस को समझ आ गया है कि प्रदेश में मुसलमान कतई एक नहीं हैं। ये लगभग 87 फिरकों में बंटे हैं। इधर के मुसलमानों में बाकी सूबों से अधिक फिरके हैं। इसलिए इनसे एक तरह से वोटिंग करने की आशा करना ही गलत है। गुजरात में राहुल गांधी की कैंपेन पर नजर डालें तो समझ आ जाएगा कि वे कभी भी किसी मस्जिद या दरगाह में नहीं गए। वे बार-बार मंदिरों के दौरे करते रहे। कांग्रेस  ने इस बार के चुनाव में अपने को भाजपा बनाने की चेष्टा की थी। तो क्या कांग्रेस को भी समझ आ गया है कि भारत में प्रदेश या अखिल भारतीय स्तर पर राज करने के लिए हिन्दू वोट अहम हैं। सो, सेक्युलर कांग्रेस साफ तौर पर मुसलमानों को साइडलाइन करती दिखी।

मुस्लिम नेतृत्व कहां

एक सवाल ये भी है कि गुजरात में मुसलमानों के बीच से कोई नेतृत्व क्यों नहीं उभर रहा है? मुसलमानों के बीच से कोई जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल क्यों नहीं उभर रहा।  लगता है कि  पाटीदारों की तुलना मुसलमानों से कतई नहीं कर सकते। पाटीदार गुजरात का सबसे संपन्न और ताक़तवर तबका है। 

दरअसल गुजरात के आम मुसलमान से बात करने पर ये बात स्पष्ट हो जाती है कि पिछले करीब दो दशकों से सिर्फ दिखावे के लिए साथ खड़े होने की वजह से कांग्रेस से भी उन्हें निराशा होने लगी है। उन्हें कांग्रेस का जरा बढ़िया प्रदर्शन भी अपनी हार जैसा लग रहा है। क्यों? राज्य की कुल आबादी में मुसलमानों की संख्या 10 प्रतिशत के करीब है।

गुजरात में मुसलमान आबादी  पाटीदारों की आबादी से चार फीसद कम और दलितों से करीब इतनी ही अधिक है। तथाकथित सेक्युलर कांग्रेस  ने कुल 182 सीटों में से 41 पाटीदारों को टिकट दी और 13 दलितों को। इसके विपरीत मुसलमानों को सिर्फ छह सीटें देकर टरका दिया। क्या ये ही कांग्रेस का मुस्लिम प्रेम है? यही नहीं कांग्रेस के घोषणापत्र मेंमुसलमानों से किसी तरह का वादा नहीं किया गया।

कहां की सेक्युलर पार्टी

इसके बावजूद यदि कोई कांग्रेस को सेक्युलर पार्टी कहता है तो कहे। दिल्ली में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हजारों सिखों का कत्ल करवाने वाली पार्टी सेक्युलर कैसे हो गई? सच ये है कि कांग्रेस को समझ आ गया है कि भारत में रहकर वो हिन्दू मतदाताओं को नाराज करते सत्ता में फिर वापसी नहीं कर सकती। इसलिए गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस का बदला हुआ चेहरा देखा। वो नरम हिंदुत्व की तरफ बढ़ती दिखाई दी। राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान 27 मंदिरों का दौरा किया। वे सोमनाथ मंदिर भी गए। 

चुनाव के दौरान राहुल गांधी भाजपा और राष्ट्रीय सेवक संघ को हराने के लिए गीता और उपनिषद की पढ़ाई करने लगे। और इसका खुलासा भी खुद राहुल गांधी ने किया। राहुल गांधी ने खुद बताया आजकल मैं उपनिषद और गीता पढ़ता हूं, क्योंकि मैं आरएसएस और बीजेपी से लड़ रहा हूं।आखिर उन्हें अचानक से गीता और उपनिषद की जरूरत क्यों पड़ गई? क्या कांग्रेस  अपनी धर्मनिरपेक्ष दल की छवि को त्याग कर नरम हिंदुत्व की तरफ बढ़ रही है? या यह भी धर्मनिरपेक्ष छवि की तरह ही एक ढकोसला भर है

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)