सेकुलर पत्रकारों की पाखंडी पत्रकारिता का खोखला चरित्र

बिहार विधानसभा चुनाव के बाद थोड़े दिन शांति रही। लगा कि अब “असहिष्णुता” खत्म हो गई है। लेकिन उत्तर प्रदेश चुनाव नजदीक आते ही एक बार फिर “छदम सेकुलरवादी” सक्रिय हो गए हैं और देश में फिर से असहिष्णुता का हौवा खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में फिर से “लोकतंत्र खतरे में है… आपातकाल से भी बुरी स्थिति हो गई है… मीडिया और पत्रकारों पर दमन बढ़ गया है…. बुद्धजीवियों को निशाना बनाया जा रहा है… दलितों और मुस्लिमों का उत्पीड़न बढ़ गया है” जैसे राग सुनाई देने लगे हैं। राजधानी दिल्ली में गोष्ठियों और परिचर्चाओं का आयोजन बढ़ गया है। साहित्यिक पत्रिका “हंस” से लेकर वामपंथी रंगकर्मियों के संगठन “सहमत” तक में आजकल साहित्य और रंगकर्म पर नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के खतरे पर चर्चा आयोजित की जा रही है। जाहिर है, यह सब उत्तर प्रदेश चुनाव में एक दल विशेष के खिलाफ और दूसरे के पक्ष में माहौल बनाने के लिए किया जा रहा है। दुख इस बात का है कि मीडिया और पत्रकारों का एक तबका भी इस योजना में शामिल है।

जहां तक बात पत्रकारों की हत्या और उत्पीड़न की है, तो यह केवल पिछले दो सालों से नहीं हो रहा है। बल्कि पिछले दो दशकों से यह तेजी से बढ़ा है। बस दिक्कत यह है कि विचारधारा का चश्मा लगाए लोगों को यह अब दिखाई देना शुरु किया है। पत्रकारों के हित के लिए काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 25 सालों में 61 पत्रकारों की हत्या हुई है। हैरानी की बात तो यह है कि इनमें से 96 फीसदी मामले में दोषियों को सजा ही नहीं मिल पाई। वे सबूतों के अभाव में छोड़ दिए गए। 25 सालों में जिनते पत्रकारों की हत्या हुई उसमें से 47 फीसदी मामलों में नेता संलिप्त पाए गए। जो लोग आज “लोकतंत्र पर मंडराते खतरे” को लेकर छाती कूट रहे हैं, तब वे चुप थे। क्योंकि तब उस पार्टी की सरकार थी, जिसकी वे मलाई खाया करते थे।

ताजा मामला प्रेस क्लब का है। प्रेस क्लब ने हाल ही में वर्तमान समय में पत्रकार और पत्रकारिता के सामने मौजूद परिस्थितियों और चुनौतियों पर एक खुली परिचर्चा का आयोजन किया। इस तरह की परिचर्चा की जरूरत है, क्योंकि इस समय वाकई पत्रकार और पत्रकारिता संकट के दौर से गुजर रही है। पिछले कुछ सालों में ढेर सारे अखबार व चैनल बंद हुए हैं। हजारों पत्रकार साथी बेरोजगार होकर भुखमरी के दौर से गुजर रहे हैं। कई साथियों ने आत्महत्या तक कर ली है। मीडिया संस्थान मणिसाना आयोग के वेतनमानों को अपने यहां लागू नहीं कर रहे हैं। मीडियाकर्मियों की वर्किंग कंडीसन बहुत ही बुरी है। लेकिन, प्रेस क्लब की परिचर्चा का उद्देश्य तो कुछ और था। दरअसल, इसकी आड़ में प्रेस की आजादी के नाम पर आउटलुक पत्रिका को डिफेंड करना और पत्रकारों के उत्पीड़न का हौव्वा खड़ा कर मोदी सरकार पर हमला बोलना था। परिचर्चा में जो वक्ता बुलाए गए थे, वे सब एक खास विचारधारा के थे। उन लोगों ने एक सुर में कहा कि वर्तमान राजनैतिक हालात के चलते मीडिया की स्वतंत्रता खतरे में है। कुछ ने तो इसकी तुलना आपातकाल से भी कर दी। दरअसल, आउटलुक ने “आपरेशन बेबी लिफ्ट” नाम से एक कवर स्टोरी कर आऱएसएस पर यह आरोप लगाया है कि वह मानव व्यापार में संलिप्त है। इस स्टोरी में यह दर्शाया गया है कि आरएसएस ने असम की 31 लड़कियों की तस्करी कर उसे गुजरात और राजस्थान भेज दिया है। जबकि ये लड़कियां आरएसएस द्वारा संचालित स्कूलों में पढ़ रही हैं। इन स्कूलों में पढ़े नार्थ ईस्ट के कई गरीब बच्चे अच्छे करियर के साथ अपनी जिंदगी संवार रहे हैं। किसी भी पत्रिका को अभिव्यक्ति की आजादी के तहत कोई भी स्टोरी छापने का अधिकार है। लेकिन, उतना ही अधिकार उस संस्था या व्यक्ति को भी है कि वह उसका मानहानि करने वाले पत्र-पत्रिका के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सके। ऐसा होता रहा है। अकसर अखबारों और मीडिया घरानों पर गलत स्टोरी का आरोप लगा कर लोग मुकदमें दर्ज कराते रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। आरएसएस ने भी आउटलुक के बारे में गलत और भ्रामक स्टोरी प्रकाशित करने को लेकर मामला दर्ज कराया है। यह उसका कानूनी हक है। फैसला अदालत करेगा कि कौन सही है कि कौन गलत। इसलिए इसे अदालत पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन, दुख इस बात का है कि पत्रकारों का एक वर्ग अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस मामले को पत्रकारिता और मीडिया पर हमले की संज्ञा देकर इसे वेवजह तूल दे रहा है। इसे पत्रकारों का उत्पीड़न कह कर प्रचारित किया जा रहा है, जबकि यह दो संस्थाओं के बीच का कानूनी मामला है। यह उत्पीड़न कैसे हो गया? वैसे भी आउटलुक की विश्वसनीयता संदिग्ध है। पहले भी वह विवादों में रही है। प्रसिद्ध पत्रकार राम बहादुर राय ने भी इस पर उनका फर्जी इंटरव्यू छापने का आरोप लगाया हुआ है।

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साभार : indiafacts.org

आजकल पत्रकारों की हत्या और उत्पीड़न की खूब चर्चा की जा रही है। कहा जा रहा है पिछले दो सालों में देशभर में पत्रकारों पर उत्पीडन के मामले बढ़े हैं। लेकिन पत्रकारों की हत्या और छंटनी के विरोध में जब दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन जंतर-मंतर और गृहमंत्री के आवास पर प्रदर्शन करता है, तो ऐसे भाषण देने वाले एक भी पत्रकार साथी नजर नहीं आते। प्रेस क्लब में भी वक्ताओं ने पत्रकारों की हत्या और उत्पीड़न की चर्चा की। लेकिन, उनकी चर्चा का फोकस भाजपा की सरकार वाले राज्य ही रहे। केरल के अलावा छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान की ही चर्चा हुई। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली की चर्चा किसी ने नहीं छेड़ी। इस साल जिन तीन पत्रकारों की हत्या हुई है, उनमें एक बिहार में, एक उत्तर प्रदेश में और एक झारखंड में हुई है। बिहार और उत्तर प्रदेश की चर्चा इसलिए नहीं की जा रही है, क्योंकि इससे छदम सेकुलरवादियों की पोल खुल जाएगी। इसी सलेक्टिव अप्रोच से पत्रकारिता का नुकसान हो रहा है।

खबर है कि असहिष्णुता का नारा देकर पुरस्कार वापसी करने वाले पत्रकारों-लेखकों की नीतीश के साथ एक बैठक हुई है, जिसमें तय किया गया है कि उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर वे लोग एक बार फिर से असहिष्णुता का मामला उठाते हुए देशभर में सेमिनार आदि का आयोजन करेंगे। हाल ही में दिल्ली में इसकी शुरुआत भी कर दी गई। इसमें शबनम हाशमी की संस्था सहमत के बैनरतले “पुरस्कार वापसी के चेहरे” जुटे और फिर से असहिष्णुता का राग अलापा। जाहिर है, यह सब नितीश को भावी प्रधानमंत्री बनाने की योजना के तहत किया जा रहा है। योजना के मुताबिक जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां इस तरह का माहौल बना कर भाजपा को कमजोर करना है। बिहार के बाद अब निशाना उत्तर प्रदेश है।

वापस प्रेस क्लब की परिचर्चा पर आते हैं। प्रेस क्लब के जो वक्ता थे, वे दिल्ली के ही रहने वाले हैं। लेकिन, इस कार्यक्रम में किसी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा पत्रकारों के उत्पीड़न की चर्चा नहीं की। अरविंद केजरीवाल ने कैसे सचिवालय में प्रवेश पर पत्रकारों पर पाबंदी लगा दी थी और कैसे मालिकों पर दबाव डाल कर सोशल मीडिया पर उनका विरोध करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार की नौकरी ले ली है, यह किसी से छुपा नहीं है। दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक राजकिशोर ने जब सोशल मीडिया पर अरविंद केजरीवाल का विरोध किया तो केजरीवाल ने जागरण का विज्ञापन बंद करने की धमकी देकर मालिकों पर इन्हें हटाने का दबाव डाला। जिसकी वजह से राजकिशोर को नौकरी छोड़नी पड़ी। वहीं एनडीटीवी के दिल्ली सरकार कवर वाले पत्रकार रवीश रंजन शुक्ल ने जब प्रेस कांफ्रेस में केजरीवाल से तीखे सवाल पूछे, तो उन्हें दिल्ली सरकार के वाट्सअप ग्रुप से ही बाहर कर दिया गया। जिसका पत्रकारों द्वारा काफी विरोध भी हुआ।

रही बात पत्रकारों की हत्या और उत्पीड़न की तो यह केवल पिछले दो सालों से नहीं हो रहा है। बल्कि पिछले दो दशकों से यह तेजी से बढ़ा है। बस दिक्कत यह है कि विचारधारा का चश्मा लगाए लोगों को यह अब दिखाई देना शुरु किया है। पत्रकारों के हित के लिए काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 25 सालों में 61 पत्रकारों की हत्या हुई है। हैरानी की बात तो यह है कि इनमें से 96 फीसदी मामले में दोषियों को सजा ही नहीं मिल पाई। वे सबूतों के अभाव में छोड़ दिए गए। 25 सालों में जिनते पत्रकारों की हत्या हुई उसमें से 47 फीसदी मामलों में नेता संलिप्त पाए गए। जो लोग आज “लोकतंत्र पर मंडराते खतरे” को लेकर छाती कूट रहे हैं, तब वे चुप थे। क्योंकि तब उस पार्टी की सरकार थी, जिसकी वे मलाई खाया करते थे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। जनसत्ता, स्टार न्यूज, द संडे इंडियन और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कार्यरत रहे हैं।)