जम्मू-कश्मीर में हिंदी, कश्मीरी और डोगरी को आधिकारिक भाषा बनाए जाने के निहितार्थ

जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी, पहाड़ी, गोजरी, लद्दाखी, बौद्धी, बाल्ति, शीना, सिराजी, मीरपुरी, पंजाबी मुख्‍य तौर पर रहते हैं, जिनकी अपनी मातृभाषा है। डोगरी भाषा मूल रूप से डुग्गरों की भाषा मानी जाती है, जिसका इस्तेमाल जम्मू संभाग के 10 जिलों में किया जाता है। ऐसे में कश्मीरी के साथ साथ डोगरी को राजभाषा बनाने के निर्णय से सरकार ने जम्मू डिविजन के लोगों को एक समानता का संदेश देने की कोशिश की है।

कहते हैं कि मां के बाद यदि इंसान का किसी से दिल का रिश्‍ता बनता है तो वह है उसकी मातृभाषा। भारतीय संस्कृति तो वैसे ही अपने विविधतापूर्ण स्वरूप (पाक कला, परिधान और भाषाओं) के लिए जग जाहिर है।

ऐसे में जब बाहर की भाषाएं हमारे देश की किसी मातृभाषा पर हावी होने लगतीं हैं, तो उस समाज में घुटन और विक्षोभ स्‍वाभाविक है। जम्‍मू कश्‍मीर की कहानी में भी कुछ ऐसा ही रहा है। यहां प्रदेश की अपनी कई समृद्ध भाषाएं हैं, लेकिन इन्‍हें कभी भी आधिकारिक भाषा होने का सम्‍मान प्राप्‍त नहीं हुआ।

करीब 130 साल से आधिकारिक भाषा के रूप में यहां उर्दू का ही एकाधिकार रहा है। जबकि सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधताओं से भरे इस प्रदेश के नागरिकों की यह पुरानी मांग रही है कि उनकी स्‍थानीय भाषाओं को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्‍त हो। पिछले दिनों लोगों की मांग के मद्देनजर केंद्र सरकार ने महत्‍वपूर्ण निर्णय लेते हुए यहां उर्दू-अंग्रेजी को बरक़रार रखते हुए तीन और  भाषाओं को अधिकारिक भाषा का दर्जा देने का एलान किया।

यह निर्णय वाकई स्‍थानीय लोगों के लिए भावुक क्षण था। विविधिताओं से भरे इस प्रदेश में अब उर्दू और अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी, कश्मीरी और डोगरी भी आधिकारिक भाषा होंगी। केंद्र सरकार ने इन भाषाओं को अधिकारिक भाषा का दर्जा देकर न सिर्फ लोगों की वर्षो पुरानी मांग को पूरा किया, बल्कि 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर में शुरू हुई समानता और विकास के एक नए दौर की भावना को भी आगे बढ़ाने का काम किया है। इस फैसले को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में मंजूरी मिलने के बाद अमल में लाने के लिए संसद के सत्र में एक विधेयक लाया जाना है।

दरअसल जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी, पहाड़ी, गोजरी, लद्दाखी, बौद्धी, बाल्ति, शीना, सिराजी, मीरपुरी, पंजाबी मुख्‍य तौर पर रहते हैं, जिनकी अपनी मातृभाषा है। डोगरी भाषा मूल रूप से डुग्गरों की भाषा मानी जाती है, जिसका इस्तेमाल जम्मू संभाग के 10 जिलों में किया जाता है। ऐसे में कश्मीरी के साथ साथ डोगरी को राजभाषा बनाने के निर्णय से सरकार ने जम्मू डिविजन के लोगों को एक समानता का संदेश देने की कोशिश की है।

एक शोध की मानें तो जम्मू-कश्मीर में 50 लाख के आसपास लोग डोगरी भाषा का उपयोग करते हैं। इसके अलावा 2001 की जनगणना के अनुसार, कश्मीरी बोलने वालों की संख्या भी 45 लाख से अधिक है। राज्य के अन्य लोग उर्दू या हिंदी भाषाओं में व्यवहार करते हैं। डोगरी भाषा की बात कहें तो यह मूल रूप से जम्मू डिविजन में बोली जाती है।

साल 2001 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तो डोगरी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया था। लेकिन इसके बावजूद यह भाषा अपने राज्‍य में ही राज्य की आधिकारिक भाषा नहीं बनी थी जबकि यहां इसका सबसे अधिक उपयोग होता रहा है। इस तरह जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक, सामाजिक और विधायी स्थायित्व के लिए इस फैसले को एक बड़े सुधार के रूप में देखा जा सकता है।

स्‍थानीय भाषा को मिले इस सम्‍मान के अलावा अब जम्मू-कश्मीर में हमेशा से अछूती रही हिंदी को भी राजभाषा बनाया जाना निश्चित रूप से देश के अन्‍य राज्‍यों से प्रदेश के भावनात्‍मक रूप से जुड़ने का एक महत्‍वपूर्ण जरिया साबित होगा।

पर्यटन के अलावा अब यहां हिंदी में राज्य के सभी प्रपत्रों को जारी किया जाएगा। सरकारी  आदेशों, महत्वपूर्ण फैसलों और किसी नोटिफिकेशन को भी अब इन सभी पांच भाषाओं में जारी किया जाएगा। साथ ही सरकार के तमाम काम भी इन भाषाओं के इस्तेमाल के साथ किए जाएंगे।

बताते चलें कि जम्मू-कश्मीर रिऑर्गनाइजेशन ऐक्ट की धारा 47 के तहत प्रदेश की विधानसभा एक से अधिक भाषाओं को राजभाषा का दर्जा दे सकती है। इस नियम के आधार पर ही लंबे समय से डोगरा समाज और जम्मू डिविजन के तमाम लोग हिंदी और डोगरी भाषा को राजभाषा बनाने की मांग कर रहे थे। जबकि इससे पहले उर्दू और अंग्रेजी ही यहां पर कामकाज की भाषा रही है।

हालांकि अब प्रदेश में कुल 5 राजभाषाएं हैं, जिन्हें केंद्रीय कैबिनेट से मंजूरी मिली है, जिसे अमलीजामा पहनाने के लिए 14 सितम्बर से शुरू हो रहे संसद के सत्र में राजभाषा विधेयक लाया जाना है।

संपूर्णता से देखा जाए तो सरकार के इस महत्‍वपूर्ण निर्णय की वजह से ना सिर्फ जम्‍मू कश्‍मीर के लोगों में समानता का भाव बढ़ेगा बल्कि हिंदी के आधिकारिक भाषा बनने से देश के अन्‍य नागरिकों के साथ उपजे भेदभाव को भी मिटाने में मदद मिलेगी।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)