अनुच्छेद-370 हटने के एक साल में शांति और विकास के पथ पर बढ़ चला है जम्मू-कश्मीर

जम्मू -कश्मीर के पहले उपराज्यपाल गिरीश चन्द्र मुर्मू यह दावा करते हैं कि पहले जम्मू-कश्मीर में केंद्र द्वारा जारी की गयी विकास की राशि का ठीक से इस्तेमाल भी नहीं हो पा रहा था। लेकिन अब इसी एक साल के अन्दर कश्मीर के गाँवों में 20,000 से ज्यादा छोटे बड़े विकास कार्यों की आधारशिला रखी गई है, जिससे घाटी में विकास की धारा बहना तय है।

जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाए जाने को एक वर्ष पूरा होने वाला है। गत वर्ष उठाए गए सरकार के इस कदम के बाद अब प्रदेश में ज़िन्दगी पटरी पर लौट चुकी है, कानून व्यवस्था की स्थापना से लेकर आतंक की घटनाओं पर भी रोक लगी है।

गत वर्ष अनुच्छेद-370 हटाने के दौरान संसद में अपनी बात रखते गृहमंत्री अमित शाह (साभार : Business Standard)

यह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि स्थानीय लोगों का प्रशासन पर विश्वास एक बार फिर से बढ़ा है। भारत भर से उद्योग जगत के लोग एक बार फिर घाटी का रुख कर रहे हैं, लेकिन इस बार घूमने-फिरने से ज्यादा उनका ध्यान है कि प्रदेश में कहाँ-कहाँ निवेश की संभावना है।

हालाँकि यह अलग बात है कि 370 हटाये जाने के तुरंत बाद पाकिस्तान समर्थित गुटों ने कश्मीर घाटी में अस्थिरता लाने का प्रयास किया साथ ही स्थानीय लोगों को भी भड़काने की भरसक कोशिश की गई, लेकिन फिर भी कश्मीर की अधिसंख्य जनता ने इस बार गुमराह होने से इनकार कर दिया।

इससे पहले इतिहास में जो नहीं हुआ वह अब यहाँ हो रहा है। अब देश के अन्य राज्यों के निवासी जो जम्मू कश्मीर में सर्विस कर चुके हैं, यहाँ ज़मीन खरीद सकते हैं और घर बसा सकते हैं। अनुच्छेद-370 के रहते ऐसा कतई मुमकिन नहीं था।

5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बने एक वर्ष हो जायेगा, ऐसे में यहाँ विकास कार्यों और कानून व्यवस्था की भी समीक्षा भी लाज़मी है।

जम्मू कश्मीर के पहले उपराज्यपाल गिरीश चंद्र मुर्मू पिछले एक वर्ष के अनुभव के बारे में कहते हैं कि घाटी में विकास की प्रक्रिया तेज हुई है। हालांकि पूरी दुनिया में कोरोना के प्रसार के बाद कश्मीर में भी जिंदगी की रफ़्तार थम गई है, इसलिए विकास रफ़्तार में कमी आई है, लेकिन काम हुए हैं।

मुर्मू यह भी दावा करते हैं कि पहले जम्मू-कश्मीर में केंद्र द्वारा जारी की गयी विकास की राशि का ठीक से इस्तेमाल भी नहीं हो पा रहा था। लेकिन अब इसी एक साल के अन्दर कश्मीर के गाँवों में 20,000 से ज्यादा छोटे बड़े विकास कार्यों की आधारशिला रखी गई है, जिससे घाटी में विकास की धारा बहना तय है।

नेहरू और शेख अब्दुल्ला (साभार : quora.com)

दरअसल कश्मीर समस्या के कई पहलू थे, जिन्होंने आज़ादी के बाद भी पूरी तरह से कश्मीर को भारतीय संघ में एकीकृत नहीं होने दिया। आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के अनिर्णय और अदूरदर्शिता की इसमें बड़ी भूमिका रही। इसमें सबसे पहली शर्त थी जनमत संग्रह की, दूसरी बड़ी गलती हुई थी तत्कालीन भारत सरकार द्वारा कश्मीर मुद्दे को लेकर यूएन में जाने की।

तीसरी बड़ी भूल थी भारतीय सैनिक कार्रवाई को उस समय रोक देने की जब भारत पूरी तरह आक्रमणकारियों को जम्मू कश्मीर की धरती से बाहर खदेड़ चुका था। चौथी समस्या थी अनुच्छेद-370 की, जिसने भारतीय संघ और कश्मीर को पूरी तरह से एकाकार होने की राह को इतने सालों तक बाधित किए रखा।

बहुत से भारतीयों को इस बात का पता नहीं होगा कि आखिर आर्टिकल 370 संविधान में आया क्यों और कैसे? उस वक्त भले ही सरदार पटेल देश के गृह मंत्री थे, लेकिन सच्चाई यह थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के हाथों में ही कश्मीर का प्रभार था, यानी कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा था, उसके लिए प्रत्यक्ष तौर पर सिर्फ़ और सिर्फ़ नेहरू ही ज़िम्मेदार थे।

जम्मू कश्मीर के लिए अलग से अनुच्छेद-370 का विशेष प्रावधान किया गया, जिसको मूर्त रूप देने में शामिल थे जम्मू कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्लाह, कश्मीर के महाराजा और खुद जवाहर लाल नेहरू।

कश्मीर मुद्दे को लेकर यूएन जाने का फैसला नेहरू का था, जिसमें सहायक थे लार्ड माउंटबेटन, दूसरी तरफ शेख अब्दुल्लाह के प्रभाव में आकर नेहरू ने कश्मीर को विशेष दर्जा दिया ताकि शेख अब्दुल्लाह के स्वतंत्र कश्मीर का शासक बनने का स्वप्न पूरा हो सके।

लेकिन इसके साथ साथ जम्मू कश्मीर में बहुत कुछ हुआ जिसका खामियाजा भारत को आज भी भुगतना पड़ रहा है। नेहरू और अब्दुल्लाह की दोस्ती का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक टुकड़ा पाकिस्तान के पास चला गया, वहीं एक बड़ा हिस्सा आज भी चीन के अवैध कब्ज़े में हैं।

आज की नई पीढ़ी के लिए यह जानना बहुत ही ज़रूरी है कि नेहरू की देख रेख में चल रही शेख अब्दुल्लाह की सरकार पाकिस्तान के साथ मिलकर जम्मू कश्मीर को भारत से तोड़ने का षड़यंत्र रच रही थी।

नेहरू को शेख अब्दुल्लाह पर खुद से ज्यादा भरोसा था, इसलिए उन्होंने सरदार पटेल को कश्मीर के मुद्दे से हमेशा ही अलग रखा ताकि वह अब्दुल्लाह को खुश रख सकें। लेकिन जब नेहरू के हाथों में शेख अब्दुल्लाह के टेप और पत्र दिए गए और उनके षडयंत्रों का भंडाफोड़ हुआ तब सारे शेख के खिलाफ 1958 में मुक़दमा दर्ज करने के लिए नेहरू को मजबूर होना पड़ा।

कश्मीर कांस्पीरेसी केस में शेख अब्दुल्लाह, मिर्ज़ा अफज़ल बेग और 22 अन्य के खिलाफ देश द्रोह का मामला लगाया गया। भारत सरकार के पास इस तरह के सबूत हाथ लग गए थे कि शेख अब्दुल्लाह को  हिरासत में लेना नेहरू की मजबूरी बन गई थी।

यह बातें जम्मू-कश्मीर समस्या के इतिहास का हिस्सा हैं। इनके आईने में यह साफ़ है कि नेहरू ने अपनी मनमानियों और अदूरदर्शी नीतियों के कारण किस तरह जम्मू-कश्मीर को को एक समस्या बना दिया था, लेकिन आज मोदी सरकार के शासन में उसका समाधान हुआ है।

अनुच्छेद-370 हटने के इस एक साल में सूबे में संभावनाओं के नए मार्ग खुले हैं, जिसपर चलते हुए जम्मू-कश्मीर निश्चित ही विकास की एक नयी इबारत लिखेगा। इस एक साल में बदलावों की जो बुनियाद सूबे में नजर आ रही, आने वाले समय में उसपर निःसंदेह विकास की एक भव्य इमारत खड़ी होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)