ईवीएम पर सवाल उठाने की बजाय हार के कारणों पर आत्ममंथन करें विपक्षी दल

पांच राज्यों में चुनाव संपन्न हो गये हैं और परिणाम भी सबके सामने आ चुके हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड  में भाजपा प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने की तैयारी में है तो वही मणिपुर और गोवा में भाजपा की सरकारें बन चुकी हैं। यानी पंजाब के अलावा अन्य राज्यों के चुनाव में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया है। स्पष्ट है कि जनता ने केंद्र की मोदी सरकार के लोक कल्याण से जुड़ी योजनाओं व विकासवादी एजेंडे के प्रति अपना पूरा समर्थन व्यक्त किया है। हालाँकि गोवा और मणिपुर में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई, लेकिन पूर्ण बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुँच सकी। दोनों राज्यों के स्थानीय दलों ने भाजपा को समर्थन देने में रूचि दिखाई। फलस्वरूप भाजपा ने चुस्ती दिखाते हुए दोनों ही राज्यों में सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के सामने रख दिया। इस तरह इन दोनों राज्यों में भी भाजपा की सरकार स्थापित हो गयी।

ईवीएम की खराबी का रोना रोने वाले विपक्षी दलों की हकीकत यह है कि उन्हें अपनी हार बिलकुल भी नहीं पच पा रही। वे इस तथ्य को स्वीकार नहीं पा रहे कि जनता ने उनकी जाति, धर्म और फिजूल के मुद्दों पर आधारित राजनीति को खारिज कर भाजपा की विकासवादी राजनीति का चयन किया है। इसको स्वीकारने से बचने के लिए ही वे दल ईवीएम में खराबी का रोना रो रहे हैं। अन्यथा मायावती बताएं कि अगर ईवीएम ख़राब है, तो 2007 में उन्हें जीत कैसे मिल गयी थी ? केजरीवाल भी बताएं कि क्या 2015 में उनकी 67 सीटें भी ईवीएम की खराबी के कारण ही आ गयी थीं ? जाहिर है, इन प्रश्नों का इन विपक्षी दलों के पास कोई उत्तर नहीं है।

कांग्रेस की बात करे तो पंजाब में जीत का जश्न भी नही मना; क्योंकि, यूपी और उत्तराखंड  की हार के मायने उस जीत से ज्यादा थे और कांग्रेस के दिग्गज नेताओ की लापरवाही का नतीजा है कि आज गोवा कांग्रेस में बगावत हो रही है। अब तो कांग्रेस के अंदर ही कई छोटे-बड़े नेता कांग्रेस की  नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाने लगे हैं। दरअसल कांग्रेस में जिस नेतृत्व की इस वक़्त आवश्यकता है, वह उसे मिल नही पा रहा है और आने वाले चुनावों में निश्चित ही इसके परिणाम और भी ज्यादा गंभीर हो सकते हैं, क्योंकि आज कांग्रेस के रहे सहे वजूद पर भी खतरा मंडरा रहा है।

दूसरी तरफ यूपी चुनाव में सूपड़ा साफ़ होने के बाद मायावती तो टूट सी गयी हैं। उन्हें उत्तराखंड में भी एक भी सीट नही मिली, जिससे उन्हें बेहद सदमा पंहुचा है और अब वे अप्रैल से जंतर-मंतर पर अरविन्द केजरीवाल के नक़्शे कदमों पर चलने का मन बना चुकी हैं। जनता द्वारा अपनी अस्वीकृति को छिपाने के लिए ईवीएम मशीन में गड़बड़ी जैसे गंभीर आरोप लगाने से वे बाज नही अ रहीं। शायद अभी तक इस चुनाव का परिणाम उनकी समझ में नही आया है और इसलिए वे जाति-धर्म का चश्मा उतारने के लिए बिलकुल तैयार नही हैं। समाजवादी कुनबे को भी कुछ समझ नहीं आ रहा, इसलिए गाहे-बगाहे अखिलेश यादव भी ईवीएम पर ही ठीकरा फोड़ने की कोशिश करते नज़र आए। केजरीवाल भी पंजाब में अपनी हार के लिए मायावती की तरह ही ईवीएम को दोषी बता रहे हैं। दिल्ली नगर निगम के चुनाव में उन्होंने ईवीएम मशीन की गड़बड़ी का एक नया  मुद्दा जनता के सामने रखते हुए बैलेट से मतदान कराने की मांग उठा दी है। हालाँकि चुनाव आयोग ने यह साफ़ कर दिया है कि दिल्ली के आगामी चुनाव भी ईवीएम पर ही करवाए जायेंगे।

दरअसल इन सभी विपक्षी दलों को अपनी हार बिलकुल भी नहीं पच पा रही है। ये इस तथ्य को स्वीकार नहीं पा रहे कि जनता ने इनकी जाति, धर्म और फिजूल के मुद्दों पर आधारित राजनीति को खारिज कर भाजपा की विकासवादी राजनीति का चयन किया है। इसको स्वीकारने से बचने के लिए ही ये दल ईवीएम में खराबी का रोना रो रहे हैं। अन्यथा मायावती बताएं कि अगर ईवीएम ख़राब है, तो 2007 में उन्हें जीत कैसे मिल गयी थी ? केजरीवाल भी बताएं कि क्या 2015 में उनकी 67 सीटें भी ईवीएम की खराबी के कारण ही आ गयी थीं ? या इस बार के चुनाव में उन्हें जो वोट मिले हैं, वे कैसे मिले हैं ? जाहिर है, इन प्रश्नों का ये दल कोई उत्तर नहीं दे सकते, क्योंकि इनका ये रवैया मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू जैसा है। बहरहाल, ये चुनाव आखिरी चुनाव नही थे। अब विरोधियों को चाहिए कि एक जिम्मेदार प्रतिभागी की तरह अपनी हार का जिम्मा उठाएं और हार के लिए ईवीएम को दोषी बताने की बजाय हार के कारणों पर आत्ममंथन करें। वर्ना जनता की नाराजगी उनसे ऐसे ही बढ़ती जाएगी।

(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)