लोक-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं लोकगीत: मालिनी अवस्थी

मालिनी अवस्थी भोजपुरी एवं अवधी लोकगीतों में एक बड़ा नाम है। बचपन से गीत-संगीत का शौक रखने वाली मालिनी अवस्थी सबसे पहले तब चर्चा में आईं जब लोगों ने इनको एनडीटीवी के एक शो में देखा। हालांकि मालिनी अवस्थी पूर्वांचल के संगीत-प्रेमियों के बीच बहुत पहले से काफी चर्चित रहीं हैं। मालिनी अवस्थी भोजपुरी संगीत में व्याप्त अश्लीलता का पुरजोर विरोध करने एवं साफ़-सुथरे गीतों को तरजीह देने के लिए खास जानी जाती हैं। महुआ चैनल के एक रियल्टी शो में इन्होने शो के सारे बंधनों को तोड़ते हुए अश्लीलता का विरोध किया जिसे तब प्रसारित भी किया गया। तमाम पहलुओं पर मालिनी अवस्थी से शिवानन्द द्विवेदी की हुई बातचीत का कुछ अंश :

लोकगीतों से पहला परिचय कब और कैसे हुआ ?
हम जहाँ पैदा होते हैं एवं हमारा बचपन जहाँ बीतता है, वो परिवेश हमारे जीवन पर काफी असर डालता है। मेरे साथ स्थिति ये रही कि मेरा पूरा बचपन पूर्वांचल की माटी पर बीता जबकि मै रहने वाली लखनऊ की हूँ। लोकगीत आदि से पहला परिचय घर-परिवार से हुआ। माँ तो नहीं गातीं थीं, लेकिन दादी और खासकर दोनों ताई जी लोग काफी अच्छा गाती थीं। जब वो गाने बैठतीं थीं, तो घर की छोटी लड़कियां आदि उनके साथ गाने बैठ जाती थीं। शादी, जनेऊ आदि के गीत होते थे। मै भी साथ में बैठकर मुँह चलाती थीं क्योंकि हमारी समझ में तब बहुत ज्यादा कुछ आता नहीं था। अगर मोटे तौर पर कहूँ तो लोकगीत आदि से पहला परिचय बचपन में परिवार के माध्यम से ही हुआ।

लोकगीत को आप कैसे परिभाषित करती हैं ?
लोकगीत को अगर कम शब्दों में कहें तो संगीत की वो विधा है जिसमे प्रत्यक्ष तौर पर लोक यानी ग्रामीण समाज की उपस्थिति दिखे। लोकगीत महज संगीत नहीं होते बल्कि हमारे समाज के तमाम रस्मों, रिवाजों, संस्कारों एवं पर्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोकगीत के बारे में यह कहना सर्वाधिक उचित होगा कि ये समाज से जुड़ी सर्वाधिक सार्थक संगीत है। हमारे समाज के तमाम पहलुओं को संगीत के माध्यम से अगर प्रस्तुत किये जाने की बात हो तो लोकगीत ही सर्वाधिक सुलभ व सहज माध्यम के रूप में नजर आते हैं। एक पंक्ति में कहें तो लोकगीत लोक की प्रस्तुती का संगीत है।

आपके बारे में ख्यात है कि आप गीतों को गाती ही नहीं हैं बल्कि उन्हें हाव-भाव एवं नृत्य के साथ प्रस्तुत भी करती हैं। गायन व नृत्य का ये सामंजस्य कैसे बनता है ?
जी बिलकुल। दरअसल मै गीतों के लय पर कला प्रस्तुति करने के लिहाज से कभी नृत्य नही करती हूं। मै शब्दों और भावों के वातावरण में डूबकर नृत्य करती हूं। अगर गीत विदाई का हो तो ऐसे गाइए कि मानो सुनने वाले और गाने वाले दोनों को लगे कि उनकी अपनी बेटी विदा हो रही हो। जो गीत के शब्द और भाव करवाना चाहते हैं, मै बिना बनावट वही करती हूं। नृत्य भी करती हूं तो ऐसा लगता है कि मानो अपने आंगन में ही हूं। प्रस्तुति के मायने ही यही है कि गीत के शब्द और गायक के हाव-भाव के बीच की सारी दूरियां मिट जाए और दोनों एक हो जाएँ।

शुरूआती दौर में नियमबद्ध तरीके से संगीत सीखना कब, कैसे और कहाँ हुआ ?
मेरे दोनों गुरु सुजद हुसैन खां साहब और राहत अली खां साहब आकाशवाणी गोरखपुर से ही थे। उस समय इन लोगों के कारण आकाशवाणी गोरखपुर की एक अलग ही प्रसिद्धि थी। मैंने और दलेर मेहंदी ने एक साथ ही संगीत की शिक्षा ली। पहले सुजद हुसैन खां साहब और फिर उनके चले जाने पर राहत अली खां साहब से शिक्षा ली। यहाँ एक आश्चर्य की बात ये है कि मेरे ये दोनों गुरुजन मुस्लिम थे, लेकिन भोजपुरी पर उनकी क्या गजब की पकड़ थी! क्या शानदार धुनें, क्या बढ़िया निर्गुण आदि की रचना व गायन करते थे। एक किस्सा मुझे याद है कि १५ अगस्त के अवसर पर हमारे गुरु लोगों ने आकाशवाणी पर एक फीचर तैयार किया। वो कुछ यूँ था – पन्द्रह अगस्त शुभ दिन अईले हों, देश मोर आजाद भईले हों।

संगीत की दुनिया के कुछ ऐसे नाम जिनसे आपका शुरुआती जुड़ाव रहा हो ?
सन तिहत्तर-चौहत्तर की बात है जब मेरी उम्र पाँच-छः साल की रही होगी। उस समय मिर्जापुर, विंध्यांचल में कजरी के काफी कार्यक्रम हुआ करते थे। इन कार्यक्रमों में अप्पा जी, गिरजा देवी जी, वागीश्वरी जी आकर गाया करते थे। और तब आज के जैसा नहीं था कि एक दिन में कार्यक्रम हों और खत्म हो जाएँ, तब दो-तीन दिन तक कार्यक्रम चलते थे। वो गायन बहुत अधिक समझ तो नहीं आता था, पर इतनी समझ जरूर बन गई थी कि ये अच्छा है। उस समय एक गाना जो बहुत चर्चित था; सिद्धेश्वरी देवी जी भी गाती थीं – सूरजमुख ना जईबे ना जईबे हाय राम! बिंदिया का रंग उड़ा जाय – इस गाने का मतलब तो तब समझ में नहीं आताथा, पर पाँच-छः साल की उम्र से ही हमने इसपर नाचना शुरू कर दिया था। तबसे आजतक मानो वो मेंरे संगीत जीवन का हिस्सा रहा हो।

आप अवधी क्षेत्र से आती हैं लेकिन लोकप्रियता भोजपुरी संगीत की वजह से है! इसकी क्या वजह है ?
पिताजी एवं परिवार के लोग अवधी में ही बात करते थे। लेकिन, चूंकि पिताजी डॉक्टर थे तो उनका अधिकांश समय मरीजों के बीच ही गुजरा करता था। उनके जो मरीज आते थे, वे अधिकत्तर ग्रामीण ही हुआ करते थे। उनमे से अधिकांश भोजपुरी में ही बोला करते थे जैसे – डाक्टर साहब बानी का ? – तो उनके ऐसे सवालों का जवाब मै उन्ही की भाषा अर्थात भोजपुरी में ही देने की कोशिश किया करती थी। अब शायद उस दौरान खेल-खेल में हुए ऐसे वार्तालापों के कारण भोजपुरी से अनायास एक जुड़ाव सा होता गया, जिसका ठीक-ठीक पता मुझे भी नहीं चला। खैर अब तो भोजपुरी भी अपनी ही लगती है और भोजपुरी संगीत भी अपना ही लगता है।

क्या आपको लगता है कि टीवी पर भोजपुरी भाषी चैनलों के आने से आपकी ख्याति में और प्रसार हुआ है ?
यह स्वीकारना होगा कि आज टीवी की प्रसिद्धि अपने आप में बहुत बड़ी है। टीवी के माध्यम से मुझे सबसे ज्यादा चर्चा और पहचान २००८ में आए एनडीटीवी के कार्यक्रम जूनून से मिली। इसी कार्यक्रम के बाद सुर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी ने एक अखबार को दिए साक्षत्कार में कहा कि उन्हें मेरा गाना पसंद है। वो एक बड़ी उपलब्धि उस दौर में रही। इसी कार्यक्रम के निर्माता ने फिर सुर संग्राम का विचार रखा और सुंर संग्राम आया, जिसने चैनल समेत उससे जुड़े हर कलाकार की प्रसिद्धि को एक नया आयाम दिया। लेकिन, मोटे तौर पर यही कहूँगी कि एनडीटीवी के जूनून से मुझे जो पहचान मिली, वो और किसी कार्यक्रम से नहीं मिली।

आप जिस भाषा के संगीत का प्रतिनिधित्व करती हैं, वो गीत में अश्लीलता के लिए काफी विवादित है। आपकी क्या चिंता है इसपर ?
देखिये, भोजपुरी में अश्लील गीतों की बहुलता पिछले एक दशक में खूब हुई है। पहली बात तो ये हैं कि मै इसका पुरजोर विरोध करती हूं। दुसरी बात ये कि इस तरह के गीतों की लम्बी उम्र नहीं होती और न ही ये संगीत कालजयी होते हैं। अगर अश्लील गीतों के भरोसे को छणिक चर्चा प्राप्त भी कर ले तो भोजपुरी संगीत के भावी इतिहास में उसका नाम सम्मान से लिखा जाएगा, ऐसा कतई नही है। तीसरी एक और बात ये है कि ऐसे गीतों की स्वीकार्यता ही कितनी है ? महज उतनी ही है जितनी समाज में बुराई की स्वीकार्यता है। यह समाजिक चिन्तन का विषय है, न कि चिंता का!