‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ है कांग्रेसी सेकुलरिज्म का असल चेहरा

जुमे की नमाज के लिए मुस्लिम कर्मचारियों को 90 मिनट का अवकाश देकर उत्तराखंड सरकार ने सिद्ध कर दिया है कि कांग्रेस ने सेकुलरिज्म का लबादा भर ओढ़ रखा है, असल में उससे बड़ा सांप्रदायिक दल कोई और नहीं है। कांग्रेस के साथ-साथ उन तमाम बुद्धिजीवियों और सामाजिक संगठनों के सेकुलरिज्म की पोलपट्टी भी खुल गई है, जो भारतीय जनता पार्टी या किसी हिंदूवादी संगठन के किसी नेता की ‘कोरी बयानबाजी’ से आहत होकर ‘भारत में सेक्युलरिज्म पर खतरे’ का ढोल पीटने लगते हैं, लेकिन यहाँ राज्य सरकार के निर्णय पर अजीब खामोशी पसरी हुई है। उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार के घोर सांप्रदायिक निर्णय के खिलाफ तथाकथित प्रगतिशील और बुद्धिजीवी समूहों से कोई आपत्ति नहीं आई है। सोचिए, यदि किसी भाजपा शासित राज्य में निर्णय हुआ होता कि सोमवार को भगवान शिव पर जल चढ़ाने के लिए हिंदू कर्मचारियों-अधिकारियों को 90 मिनट का अवकाश दिया जाएगा, तब देश में किस प्रकार का वातावरण बनाया जाता? सेक्युलरिज्म के नाम पर यह दोमुंहापन  पहली बार उजागर नहीं हुआ है। यह विडम्बना है कि वर्षों से इस देश में वोटबैंक की राजनीति के कारण समाज को बाँटने का काम कांग्रेस और उसके प्रगतिशील साथियों ने किया है, लेकिन सांप्रदायिक दल होने की बदनामी समान नागरिक संहिता की माँग करने वाली भारतीय जनता पार्टी के खाते में जबरन डाल दी गई है।   

जुमे की नमाज के लिए 90 मिनट का अवकाश देकर कांग्रेस की नज़र मुसलमानों के 14 फ़ीसदी  वोटबैंक पर है। कांग्रेस वर्षों से इसी प्रकार मुसलमानों को लुभाकर अपने राजनीतिक हित साधती रही है। लेकिन, अब मुसलमानों को सोचना चाहिए कि वह इस प्रकार की लॉलीपोप से कब तक अपना दिल बहलाएंगे? सरकार के इस निर्णय से उनकी भी कम बदनामी नहीं हो रही है। उन्हें भी संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है कि गैर जरूरी सुविधाओं के लालच में मुसलमान एकमुश्त वोट करता है।

सांप्रदायिकता और सेकुलरिज्म की परिभाषा तय करने के लिए आज देश में एक व्यापक बहस कराने की जरूरत है। आखिर सेकुलरिज्म के मापदण्ड क्या हैं? कैसे तय होगा कि कौन सांप्रदायिक है और कौन नहीं? एक तरफ वर्षों से विशेष वर्ग के तुष्टीकरण की राजनीति को पाल-पोष रहे तमाम राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और बुद्धिजीवी सेक्युलर कहलाते हैं। वहीं, एक देश-एक नीति की बात करने वाले राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और बुद्धिजीवी सांप्रदायिक कहलाते हैं? यह किस प्रकार संभव है? किसी भी सामान्य बुद्धि के व्यक्ति के लिए यह समझना मुश्किल है कि धर्म के आधार पर विशेष संप्रदाय को लाभ पहुँचाना कैसे सेक्युलर कार्य हो सकता है? यह भारतीय समाज के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस और उसके प्रगतिशील साथी प्रारंभ से ही सेक्युलरिज्म और सांप्रदायिकता की मनमाफिक परिभाषाएं गढ़कर बड़ी चालाकी से अपनी राजनीतिक दुकान चलाने के लिए समाज को धार्मिक आधार पर बाँटते रहे हैं। कांग्रेस की इसी तुष्टीकरण की नीति से समाज और देश की एकता-अखंडता को गहरी चोट पहुँची है। धर्म को लेकर समाज में आज जिस प्रकार का वातावरण बन गया है, उसके लिए सीधे तौर पर कांग्रेस और उसके प्रगतिशील साथी जिम्मेदार हैं। एक वर्ग के तुष्टीकरण और बहुसंख्यक समाज की उपेक्षा की नीति से सामाजिक ताने-बाने को गहरी क्षति पहुँची है। अपनी सहिष्णुता के लिए विश्वविख्यात हिंदू समाज अब अनेक अवसर पर प्रतिक्रिया जाहिर कर देता है, क्यों? मुस्लिम समाज अपने आप को देश का सामान्य नागरिक मानने के लिए तैयार नहीं है, क्यों? वह सब जगह अपने लिए सहूलियतें माँग रहा है, क्यों? यदि हम इन प्रश्नों का उत्तर ईमानदारी से तलाशेंगे, तब हमें ज्ञात होगा कि आखिर देश की सेक्युलर छवि को किसने सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है? समाज में विभाजनकारी सोच को बढ़ावा किसने दिया? समाज में असहिष्णुता के बीज किसने बोए?

namazada

कांग्रेस ने उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के चुनावों को ध्यान में रखकर आजमाया हुआ कार्ड खेला है। जुमे की नमाज के लिए 90 मिनट का अवकाश देकर कांग्रेस की नज़र मुसलमानों के 14 फ़ीसदी  वोटबैंक पर है। कांग्रेस वर्षों से इसी प्रकार मुसलमानों को लुभाकर अपने राजनीतिक हित साधती रही है। लेकिन, अब मुसलमानों को सोचना चाहिए कि वह इस प्रकार की लॉलीपोप से कब तक अपना दिल बहलाएंगे? सरकार के इस निर्णय से उनकी भी कम बदनामी नहीं हो रही है। उन्हें भी संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है कि गैर जरूरी सुविधाओं के लालच में मुसलमान एकमुश्त वोट करता है। भाजपा की अपेक्षा मुस्लिम समाज को उत्तराखंड सरकार के इस निर्णय का अधिक मुखर होकर विरोध करना चाहिए। मुसलमानों को सोचना चाहिए कि आखिर उत्तराखंड सरकार के इस निर्णय से उनके जीवन-स्तर में क्या परिवर्तन आएगा? मुस्लिम समाज के उत्थान की नीति बनाने की बात उन्हें करनी चाहिए। नमाज अदा करने के लिए उन्हें कार्यालय से अवकाश वास्तव में चाहिए क्या? जब एक नमाजी मुस्लिम चलती ट्रेन में तय समय पर अपनी नमाज अदा कर सकता है, तब कार्यालय में उसे क्या दिक्कत है? इसलिए उत्तराखंड सरकार का यह निर्णय मुसलमानों को मूर्ख बनाने के अलावा कुछ नहीं है। कांग्रेस ने सदैव से मुसलमानों को बरगलाने का ही काम किया है। अब यह निर्णय मुसलमानों को ही करना है कि उन्हें मुख्यधारा में आना है या फिर ऐसे ही तुष्टिकरण से काम चलाना है।

बहरहाल, उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार के इस निर्णय से बहुसंख्यक समाज में असंतोष फैल सकता है। भाजपा नेता नलिन कोहली ने सच ही कहा है कि इस तरह तो हिंदू कर्मचारी भी सोमवार को शिव पूजा और मंगलवार को हनुमान पूजा के लिए अवकाश की माँग कर सकते हैं। सिख पंथ भी गुरुद्वारे में अरदास के लिए अवकाश माँग सकता है। अल्पसंख्यक जैन समुदाय को भी प्रार्थना के लिए समय चाहिए। सोमवार और मंगलवार ही क्यों, हिंदुओं को बुधवार को गणेश, गुरुवार को बृहस्पति भगवान, शुक्रवार को संतोषी माता, शनिवार को शनिदेव की अर्चना के लिए अवकाश चाहिए होगा। जुमे की नमाज के लिए 90 मिनट के अवकाश से प्रेरित होकर यदि अन्य पंथ के लोगों ने अवकाश की माँग शुरू कर दी, तब कांग्रेस सरकार क्या करेगी? सरकारी कर्मचारियों को धार्मिक मान्यताओं के निर्वहन के लिए इस प्रकार की सुविधा देना निहायत सांप्रदायिक और गैरज़रूरी निर्णय है। समाज और देश हित में उत्तराखंड सरकार को अपने इस अतार्किक फैसले को तुरंत वापस लेना चाहिए।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)