तय करें मुसलमान, वे हैदर रज़ा के साथ हैं या मकबूल फ़िदा हुसैन के साथ ?

पंकज कुमार झा
सैयद हैदर रज़ा साहब के बारे में सोचते हुए यह लेख लिख रहा हूँ जो अभी 23 जुलाई को ही दिवंगत हुए हैं। स्वभाव की तरह यहां भी एंगल राष्ट्रवादी ही है और इस बड़े आदमी की तुलना अकस्मात मकबूल फ़िदा हुसैन जैसे दोयम दर्जे के व्यक्ति से कर बैठ रहा हूं। एक तरफ हैदर रजा हैं दूसरी तरफ मकबूल। दोनों विश्वविख्यात चित्रकार और दोनों ही मुसलमान। एक व्यक्ति ने भारत से कुछ नहीं लिया लेकिन मिट्टी यहां की ही चाहा और अपनी मिटटी में दफन होने फ्रांस से वापस आ गया। मध्य प्रदेश की अपनी मंडला को जिसने कभी भी भूलना गवारा नहीं किया। दूसरा जीवन भर लगभग यहीं के किसानों का उपजाया खा कर पैसा बनाता रहा और जीवन के अंत में एक भारत-विरोधी की तरह देश को और खुद को लांछित करते हुए क़तर की मिट्टी में जाना पसंद किया। हालांकि बाद में यह भी पता चला कि वहां भी हुसैन एक वित्तीय कॉन्ट्रेक्ट पूरे करने ही गये था।

भारत में जहां हर समय साम्प्रदायिकता और सेक्युलरिज्म के नाम पर तलवारें खिची रहती है, ऐसे में मुसलामानों को इस कंट्रास्ट या ऐसे अनेक कंट्रास्टों को मद्देनज़र अवश्य रखना चाहिए। केवल कला ही नहीं, राजनीति से लेकर हर क्षेत्र में उन्हें ऐसे कंट्रास्ट मिलेंगे और उन्हें तय करना होगा कि वह किस तरफ हैं। हुसैन की तरफ या हैदर रज़ा की तरफ ? अब्दुल कलाम की तरफ या आज़म-ओवैसी की तरफ ? अब्दुल हमीद की ओर या बुरहान वानी की ओर ? निश्चय ही इस सश्य श्यामला धरती पर जीने-खाने का नैतिक अधिकार आप छोड़ देते हैं जब आप इस देश के साथ विश्वासघात कर रहे चंद बुद्धिजीवियों, नेताओं, पत्रकारों के बहकावे में आकर हुसैन की तरफ हो लेते हैं अथव हाफ़िज़ और याकूब-अफ़ज़ल-कसाब की तरफ हो लेते हैं।

सोचिये एक (हैदर रज़ा) ने विभाजन के बाद अपने सारे परिवारजनों के पाकिस्तान चले जाने के बाद भी यह कह कर भारत छोड़ने से इनकार कर दिया था कि ऐसा करना महात्मा गांधी से विश्वासघात होगा। बाद में भले रजा साहब फ्रांस गए, वहीं अपनी छात्रा से शादी भी की लेकिन दिल में हमेशा अपना कस्बा बाबरिया ही वे जीते रहे। उतनी प्रसिद्धि के बावजूद उन्हें हर वक़्त यही लगता रहा कि उस कला का क्या करना जिसमें ‘भारत’ ही न हो, जहां अध्यात्म ही न हो। वैश्विक सफलता और शोहरत के बावजूद रज़ा साहब अज़ीब से छटपटाहट और बेचैनी के शिकार हो गए थे और उन्हें लगने लगा था कि कुछ किया ही नहीं उन्होंने। इसी वजह से फिर भारत आ कर अजंता, एलोरा, बनारस, गुजरात, राजस्थान आदि की यात्रा करते हुए भारतीयता से ओत-प्रोत होने की दुबारा शुरुआत की और तब जैसे उन्हें नए सिरे से अपने जीने और अपनी कला के साफल्य का मकसद मिल गया हो। उन्होंने फिर भारतीय अध्यात्म की अंतर्दृष्टि हासिल किया और कुंडलिनी, नाग, महाभारत आदि विषयों पर आधारित चित्र बनाए। मैं यहां क्यों हूं, मैं कहां जा रहा हूं, क्यों जा रहा हूं, आदि चीज़ों पर उनका चिंतन उन्हें अध्यात्मिकता से ओत-प्रोत करता रहा और वे हमेशा भारत के और भारत उनका दुलारा बना रहा।

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इसके उलट हुसैन को देखें तो खुद की मां की सर से लेकर पांव तक ढकी प्रतिमा बनाने वाले हुसैन को अंततः अपने कला का चरम तब समझ में आया जब उन्होंने मां सरस्वती की नग्न तस्वीर बनाना शुरू किया। इसके अलावा भारत के देवी-देवताओं का अपमानजनक तस्वीरें बनाने को ही जीवन का मकसद बनाने से लेकर, हिन्दू परिवार में पैदा हुए कुछ हिन्दू-द्रोहियों के द्वारा ही समर्थित-सुरक्षित होते रहने के बावजूद अंततः भारत को असहिष्णु साबित करने की कोशिश कर जीवन के अंतिम समय में हुसैन यहां से भाग गये । इधर अपनी पत्नी के देहावसान के बाद हैदर रज़ा साहब फ्रांस से वापस भारत आ गए। जबकि इसके उलट सारा कलाकर्म उनका अपने इसी देश के इर्द-गिर्द, अपनी उसी मध्य भारत की माटी में लोटते-लपटते संपन्न हुआ। भारत में जहां हर समय साम्प्रदायिकता और सेक्युलरिज्म के नाम पर तलवारें खिची रहती है, ऐसे में मुसलामानों को इस कंट्रास्ट या ऐसे अनेक कंट्रास्टों को मद्देनज़र अवश्य रखना चाहिए। केवल कला ही नहीं, राजनीति से लेकर हर क्षेत्र में उन्हें ऐसे कंट्रास्ट मिलेंगे और उन्हें तय करना होगा कि वह किस तरफ हैं। हुसैन की तरफ या हैदर रज़ा की तरफ ? अब्दुल कलाम की तरफ या आज़म-ओवैसी की तरफ ? अब्दुल हमीद की ओर या बुरहान वानी की ओर ? निश्चय ही इस सश्य श्यामला धरती पर जीने-खाने का नैतिक अधिकार आप छोड़ देते हैं जब आप इस देश के साथ विश्वासघात कर रहे चंद बुद्धिजीवियों, नेताओं, पत्रकारों के बहकावे में आकर हुसैन की तरफ हो लेते हैं अथव हाफ़िज़ और याकूब-अफ़ज़ल-कसाब की तरफ हो लेते हैं। सय्यद रज़ा साहब की सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब यहां के मुसलमान सच में वैसे ही भारतीयता से ओत-प्रोत रहेंगे जैसे रज़ा साहब रहे आजन्म, और उतना ही नफरत उस हुसैन से करेंगे जितना हम सब करते हैं। यही सच है, शेष तो राजनीति है। विनम्र प्रणाम और अनेक श्रद्धांजलि रज़ा साहब।

ये लेखक के निजी विचार हैं