मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का दमन करने वाला है तीन तलाक, लगना चाहिए प्रतिबन्ध

तीन तलाक का मामला चर्चा में बना हुआ है। 1937 में मुस्लिम पर्सनल क़ानून यानि शरिया में मिले इस अधिकार ने देश भर में लाखों नुस्लिम महिलाओं की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ किया है। स्त्री-पुरुष असमानता सहित मुस्लिम औरतों के बुनियादी हक़ से उन्हें वंचित करने वाली इस शरियाई व्यवस्था पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग करते हुए 50,000 से ज्यादा दस्तख़त वाला एक मांगपत्र प्रधानमंत्री को भेजा जा चुका है और अब सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से इस अमानवीय  परंपरा से मुस्लिम औरतों को निजात मिलने की उम्मीदें भी बढ़ गयी हैं।

तीन तलाक की सभी प्रक्रियाओं की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इनमें तलाक लेने के सारे अधिकार मर्दों को दिए गए हैं; औरत के पास कोई अधिकार नहीं है। अर्थात मर्द जब चाहे तो औरत को तलाक दे सकता है, मगर औरत ऐसा नहीं कर सकती। इस तरह स्पष्ट है कि तीन तलाक की यह शरियाई व्यवस्था केवल मुस्लिम महिलाओं के शोषण पर आधारित हैं, बल्कि भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के मूलभूत अधिकार के भी खिलाफ है। अतः इसको ख़त्म किया जाना हर प्रकार से आवश्यक है।

गौर करें तो इस्लाम में तलाक के तीन तरीके होते हैं – तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) जिसमें मासिक धर्म की अवधि के अलावा अन्य दिनों में यदि पति अपनी पत्नी के प्रति लिखित अथवा मौखिक रूप से ‘तलाक है’ जैसे साधारण वाक्य को तीन बार दोहरा दे तो इसे आधिकारिक रूप से तलाक मान लिया जाता है। तलाक-ए-बिद्दत को इस्लाम में हराम माना गया है, फिर भी शरई अदालत (दारुलकजा) इसे मान्य समझती है। दूसरा तरीका है तलाक-ए-अहसन और तीसरा तरीका है तलाक-ए-हसन जिनमें तीन चरण होते हैं। इन सबके अलावा एक त्रासदी यह भी है कि यदि तलाक के बाद दुबारा पति-पत्नी निकाह करना चाहें तो इसके लिए मुस्लिम महिलाओं को हलाला जैसी बेहद अमानवीय व्यवस्था से गुजरना पड़ता है, जिसके तहत औरत को निकाह से पूर्व किसी अन्य मर्द के साथ हमबिस्तर होना पड़ता है। इसके अलावा तीन तलाक की इन शरियाई व्यवस्थाओं की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इनमें तलाक लेने के सारे अधिकार मर्दों को दिए गए हैं; औरत के पास कोई अधिकार नहीं है। अर्थात मर्द जब चाहे तो औरत को तलाक दे सकता है, मगर औरत ऐसा नहीं कर सकती। इस तरह स्पष्ट है कि तीन तलाक की यह शरियाई व्यवस्था न केवल मुस्लिम महिलाओं के शोषण पर आधारित हैं, बल्कि भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के मूलभूत अधिकार के भी खिलाफ है। अतः इसको ख़त्म किया जाना हर प्रकार से आवश्यक है।

गौरतलब है कि 2016 में 15 साल की शादी, कई बार हिंसक हमले और जबरन गर्भपात का शिकार सायरा बानो से लेकर आज तक हज़ारो मामले ऐसे देखने को मिले हैं, जिसमे औरतों ने दारुलकजा के बजाय कानूनी मदद के लिए दरख्वास्त लगायी है। एक आंकड़े के मुताबिक केवल लखनऊ में तीन तलाक़ से सम्बंधित औसतन सौ मामले प्रतिमाह अदालत में पहुँच रहे हैं। इसके अलावा आंकड़े यह भी बताते हैं कि 92% औरतें मौखिक या एकतरफा तलाक पर  पूर्ण प्रतिबंध चाहती हैं और 88% औरतें चाहती है कि वे तीन तलाक पर नोटिस भेज सकें। लेकिन, महिलाओं की इन मांगों के खिलाफ खड़े मुस्लिम संगठन और मौलवी आदि इस बात का दावा कर रहे हैं कि उनकी मौजूदा व्यवस्था तलाक की बेहतर व्यवस्था है, लेकिन वास्तविकता यही है कि औरतें इन व्यवस्थाओं में अधिकार से पूरी तरह से वंचित हैं। इसी कारण उन्हें तलाक के लिए अदालत का रुख करना पड़ रहा हैं।

वैसे, भाजपा के अलावा अन्य किसी दल ने मुस्लिम महिलाओं की इस त्रासदी पर आवाज नहीं उठाई है। लेकिन, भाजपा का तीन तलाक के मसले पर मुस्लिम महिलाओं के साथ खड़ा होना भी विपक्षी दलों को रास नहीं आ रहा और वे इसे राजनीतिक हथकंडा बताने में लगे हैं। यहाँ तक कि वे इसे समान नागरिक संहिता से जोड़ने तक से बाज़ नहीं आ रहे। गौरतलब है कि बीस से ज्यादा इस्लामिक देशों में तीन तलाक की प्रथा में या तो संशोधन किया गया अथवा उसपर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। जो लोग इसे पर्सनल लॉ के खिलाफ जाने वाली बात कह कर इस प्रतिबन्ध की मांग को दरकिनार करने की फ़िराक में हैं, उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि मुस्लिम-बहुल देशों में भी तीन तलाक का उन्मूलन पर्सनल लॉ के खिलाफ नहीं माना जाता, फिर भारत जैसे पंथनिरपेक्ष देश में हम ऐसा ऊटपटांग तर्क कैसे दे सकते है?

समय समय पर परम्पराओं को बदलना पड़ता है और उनमें नयेपन को जगह दी जाती है। धार्मिक आचरण को संवैधानिक रूप से कायम रखना भी इस देश के नागरिकों की ही जिम्मेदारी है; साथ ही स्त्री की सामाजिक भूमिका को ध्यान में रखते हुए आज वक़्त की यह मांग है कि औरतों को समानता और प्रतिष्ठा का उतना ही अवसर मिले जितना कि एक पुरुष को यह समाज देता है। किसी भी धर्म में, वर्ग में उन प्रथाओं का खात्मा बहुत ही आवश्यक है, जो सामाजिक विकास में रुकावट और सामाजिक दृष्टिकोण में हीनता व संकीर्ण मानसिकता को प्रश्रय देती हैं। हिन्दू धर्म में भी समस्याएँ रही हैं, लेकिन हिन्दुओं ने उनका बचाव नहीं किया, बल्कि खुद उन्हें ख़त्म किया। अतः उचित होगा कि मुस्लिम समुदाय भी हिन्दू समाज से सीख लेते हुए तीन तलाक के खात्मे की दिशा में सरकार का सहयोग करे। मुस्लिमों को याद रखना चाहिए कि भारत एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र है और यह उनके शरीयत से नहीं, अपने संविधान से चलेगा।

(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं ये उनके निजी विचार हैं।)