जायरा वसीम को मिल रही धमकियों पर वामपंथी बौद्धिकों की शर्मनाक ख़ामोशी

कश्मीर की सोलह साल की लड़की जायरा वसीम ने फिल्म ‘दंगल’ में अपनी भूमिका से लोगों का दिल जीत लिया था । गीता फोगट के बचपन का रोल करनेवाली जायरा ने अपने सशक्त अभिनय से ना केवल आमिर खान को प्रभावित किया था, बल्कि दर्शकों पर भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी थी । हाल ही में जायरा नसीम जब फिल्म की सफलता के बाद जब अपने घर कश्मीर गईं तो सूबे की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से मिलीं । शनिवार को मुख्यमंत्री से उनकी मुलाकात की फोटो सोशल मीडिया पर आने के बाद उनको ट्रोल किया जाने लगा । परेशान जायरा वसीम ने सोशल मीडिया पर ही इस मुलाकात को लेकर पोस्ट लिखी और माफी मांगी । उन्होंने लिखा कि हाल ही में उनकी मुलाकात से कुछ लोग खफा हो गए हैं लिहाजा वो माफी मांगती हैं । उन्होंने दो पोस्ट लिखे और दोनों को बाद में डिलीट भी कर दिया । एक पोस्ट में तो उन्होंने यहां तक लिख दिया कि कश्मीरी युवा उनको रोल मॉडल नहीं मानें, सूबे में और भी लोग हैं । जायरा ने यह भी लिखा कि उनकी मंशा किसी को भी ठेस पहुंचाने की नहीं थी । इसके बाद सोशल मीडिया पर उनको घेरा जाने लगा तो उन्होंने एक और पोस्ट लिखी और अनुरोध किया इस मसले को तूल ना दिया जाए लेकिन इसके बाद अपने इस पोस्ट को भी डिलीट कर दिया ।

सवाल समर्थन का तो है, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की खामोशी का है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बुक्का फाड़कर ‘लेक्के रहेंगे आजादी’ चिल्लानेवाले भी खामोश हैं । उनकी जुबान पर ताला लग गया है । जायरा को कश्मीरी कट्टरपंथियों की तरफ से जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं, लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन खामोश हैं ।

दरअसल कश्मीर में पिछले दिनों जिस तरह का बवाल रहा उसके बाद वहां के चंद लोगों ने जायरा को मुख्यमंत्री के बहाने से निशाने पर ले लिया । किसी ने यह सोचने की कोशिश भी नहीं की कि एक सोलह साल की बच्ची पर क्या गुजरेगी । अभी जिसने अपनी सफलता को ठीक से एंजॉय भी नहीं किया उसपर इस तरह का हमलावर रुख अख्तियार कर कश्मीरी अलगाववादी वहां के युवाओं को क्या संदेश देना चाहते हैं ? जायरा वसीम को जान से मारने तक की धमकी दी गई । इस बच्ची का जुर्म क्या है । क्यों इसको राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है । जायरा को जान से मारने की धमकी का मुद्दा जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भी उठा और आसन ने सरकार को इस मसले पर ध्यान देने का निर्देश दिया । शनिवार से जायरा वसीम के साथ यह सब घटित हो रहा है, लेकिन इस बारे में छिटपुट प्रतिक्रिया ही देखने को मिल रही है । सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और लेखक-गीतकार जावेद अख्तर ने जरूर ट्वीट कर इस मुद्दे पर जायरा को समर्थन दिया ।

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जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती के साथ दंगल गर्ल जायरा वसीम

सवाल समर्थन का तो है, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की खामोशी का है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बुक्का फाड़कर ‘लेक्के रहेंगे आजादी’ चिल्लानेवाले भी खामोश हैं । उनकी जुबान पर ताला लग गया है । जायरा को कश्मीरी कट्टरपंथियों की तरफ से जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं, लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन खामोश हैं । जायरा वसीम एक कलाकार हैं और कलाकार को मिल रही धमकियों पर कलाकारों और लेखकों का खामोश रहना चिंता का विषय है । बात-बात पर देश में फासीवाद की आहट सुननेवाले भी जायरा पर जारी शोरगुल को सुन नहीं पा रहे हैं । जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच भी तीन दिन बीत जाने के बाद भी इस घटना पर आधिकारिक प्रतिक्रिया देने से बच रहे हैं । ऐसा क्यों होता है, इसको जब सूक्ष्मता से विश्लेषित करते हैं, तो बौद्धिक पाखंड का बहुत ही वीभत्स और सांप्रदायिक रूप सामने आता है ।

जायरा को अगर इसी तरह की धमकी किसी अनाम से हिंदू संगठन से मिली होती तो फिर देखते ये लोग किस तरह से आसमान सर पर उठा लेते । पाठकों को याद होगा कि किस तरह से जेएनयू में उमर खालिद के मसले पर बड़े बड़े लेख लिखे गए थे । उस वक्त जिनको भी सामाजिक ताना-बाना टूटता नजर आ रहा था उनको भी जायरा को मिल रही धमकी दिखाई नहीं देती है । यह चुनी हुई चुप्पी देश के लिए तो खतरनाक है ही, लोकतंत्र के लिए भी बेहद नुकसानदायक है । जब एक समुदाय यह देखता है कि दूसरे समुदाय के मसले पर अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियन खामोश हो जाते हैं, तो एक खास किस्म की प्रतिक्रिया घर करने लगती है जिसका विस्फोट तुरंत नहीं होता है, लेकिन लंबे समय तक जब बार बार इस तरह की चुनी हुई चुप्पी देखी जाती है तो विरोध का स्वर मजबूत होने लगता है । ऐसे कई मौके आए हैं जब खुद को गरीबों, शोषितों और वंचितों की मसीहा बताने वाली विचारधारा के पोषक चुनी हुई चुप्पी ओढ़ लिए । पिछले दिनों जब केरल की सरकार ने लेखक कमल चवारा पर देशद्रोह का मुकदमा लगाया तब भी कमोबेश वामपंथी विचारधारा के ध्वजवाहक खामोश रहे । खामोश इस वजह से रहे कि वहां उनकी विचारधारा वाली पार्टी का शासन था, वर्ना अगर किसी अन्य विचारधारा वाली पार्टी का शासन होता तो फिर ये बताते नहीं थकते कि दिल्ली के बाद अब केरल में भी फासीवाद आ पहुंचा है । तमिल लेखक मुरुगन ने जब नहीं लिखने का ऐलान किया था और कहा था कि एक लेखक की मौत हो गई है, तब भी देशभर के एक खास विचारधारा के लोगों ने जमकर शोरगुल मचाया था । जब कमल चवारा ने ये ऐलान किया कि अगर उनपर से देशद्रोह का मुकदमा नहीं हटाया गया तो अपनी सारी किताबें जला देंगे तो कहीं कोई स्पंदन तक नहीं हुआ । अब वक्त आ गया है कि देशभर के उन बौद्धिकों को अगर अपनी साख बचानी है तो समान भाव से सवाल खड़े करने होंगे बगैर विचारधारा या धर्म-संप्रदाय पर ध्यान दिए, वर्ना हाशिए पर जा चुके ये लोग इतिहास के बियावान में बिला जाएंगें ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)