रामनवमी विशेष : भारतीय पंथनिरपेक्षता के प्रतीक पुरुष श्रीराम

निश्चय ही अगर सेकुलरिज्म ही आज के युग का धर्म है तो तय मानिए ‘जय श्री राम’ से बढ़कर पंथनिरपेक्षता का और कोई मन्त्र नहीं हो सकता। भारत के सर्वधर्म समभाव के शुभंकर भी अपने सियाराम ही हो सकते हैं। राक्षसों की संस्कृति तक को, यवनों के मत तक को भी भारतीयता में पिरो देने का काम श्रीराम का ही हो सकता है। सौमित्र लक्ष्मण की नगरी लखनऊ से जब भारत के प्रधानमंत्री अपनी समूची ताकत से ‘जय श्रीराम’ का तुमुल नाद कर रहे थे तो तय मानिए कि वह भारत के पंथनिरपेक्षता के सबसे बड़े इश्वर का गुणानुवाद कर भारतीय संविधान की आत्मा के साथ साक्षात्कार ही कर रहे थे।

पंथनिरपेक्षता का विचार तो खैर अभारतीय है ही, इसलिए आज भी देश का बड़ा मानस इस विचार के साथ खुद को असहज पाता है, कभी खुद को इस विचार के साथ जोड़ नहीं पाता है। अन्य देशों का नहीं पता लेकिन भारत के लिए यह कथित विचार कृतिम है, कोस्मेटिक है, थोपा सा है, अप्राकृतिक है। हालांकि यह भी तथ्य है कि इससे मिलते-जुलते विचार को भारत अनादि काल से जीता आ रहा है। वह विचार है सर्व पंथ समादर का। तबसे जबसे कि राजनीतिक सेकुलरिज्म का विचार देने वाले समाजों में जब अभी सामान्य साभ्यतिक समझ भी नहीं आई थी, तब से भारत ने इस विचार के साथ सभ्यता की दूरियां तय की है। जी, सर्व पंथ समादर, जिसे भाजपा ने सकारात्मक पंथनिरपेक्षता कहते हुए अपनी संवैधानिक निष्ठा (पञ्च निष्ठा) के रूप में स्वीकार किया है। अस्तु।

ऐसे में, अगर आज इस सम भाव को ही सेकुलरिज्म मान लें तो भारत के लिए इस विचार के प्रतीक पुरुष यानी इसका शुभंकर भी हमें श्रीराम को ही मानना होगा। इस अर्थ में भी मर्यादा पुरुषोत्तम से बड़ा सेक्युलर भी आपको तब से लेकर आजतक कभी देखने को नहीं मिलेगा। चूंकि, उस समय इस्लाम जैसे कथित धर्मों के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था, फिर भी तब के असुरों की उपासना पद्धतियों को आप आज के इस्लाम-इसाइयत आदि के बरक्स रखकर देख सकते हैं। आप रामचरित मानस पढ़ें, उसमें पायेंगे कि भगवान जहां भी गए वहां की लोक-मान्यताओं, परम्पराओं के प्रति सम्मान व्यक्त करने को उन्होंने हमेशा अपना ध्येय बनाया। सभी की विभिन्न पूजा पद्धतियों में खुद को प्रकट कर भी उन्होंने इसी विचार को पुष्ट किया। बात चाहे शबर जनजाति की प्रिय भक्तिन के जूठे बेर को ही उसकी पूजा समझ लेने की हो या फिर पहले केवट समाज के तबके अटपटे सुन्दर से प्रार्थना को पूजा के रूप में मान्यता देने की, किष्किन्धा के बानरों-रीछों के परम्परानुसार ही उन्हें इश्वर की प्राप्ति होने देने में सहायक बनने की हो या फिर आगे जटायु, काग जैसे ‘अधम’ पक्षी तो आगे गरुड़ जैसे पुनीत पक्षी तक को अपने-अपने रास्ते से खुद को पाने देने की सहूलियत उपलब्ध कराने की हो; भक्ति मार्ग से विभीषण को सायुज्य मुक्ति देने की तो युद्ध मार्ग से ही रावण को सारुप्य मुक्ति देने, हनुमान जैसे अपनों के लिए सामीप्य मोक्ष तो महाराज दशरथ को सालोक्य मुक्ति देने की अर्थात कि जिन्होंने जैसा चाहा, जिनका जो मार्ग था, उन्हें उसी रास्ते से परम पिता तक यानी खुद तक पहुचा देने का श्रीराम के उद्यम से बढ़कर पंथनिरपेक्षता का और क्या उदाहरण हो सकता है भला ?

साभार : यंगिस्तान डॉट इन

आगे देखिये..अयोध्यापति को शायद बेहतर अनुमान था कि भविष्य में शैव, वैष्णव आदि मतों में कुछ मनमुटाव संभव है, तो खुद ही उन्होंने अनेक अवसरों पर ‘शिवद्रोही मम भगत कहावा, ते नर सपनेहु मोहि न पावा’ जैसे अनेक उद्धरण खुद देकर दोनों मतों में समन्वय और सहकार का सन्देश दिया। फिर भारत के उत्तरी छोर से जाकर सुदूर अंतिम दक्षिणी छोर पर पहुच कर वहां शिव जी की ‘रामेश्वरम’ के रूप में स्थापना कर भी कौशल्यानंदन ने सर्वपंथ समादर के इसी सन्देश को मज़बूत किया। इसी तरह सगुण और निर्गुण, निराकार और साकार ब्रम्ह संबंधी विवादों का भी एक से एक तर्कों के साथ उन्होंने अपनी गाथाओं में ही निवारण कर ऐसे हर साम्प्रदायिक विभेद से भारतीय अध्यात्म को मुक्त करने की सफल चेष्टा की। ‘गिरा अर्थ जल बीच सम कहिअत भिन्न न भिन्न..’ से ज्यादा सरल शब्दों में द्वैत और अद्वैत के सहकार को और कैसे स्थापित किया जा सकता है भला ? है कि नहीं ? ऐसे दर्ज़नों उद्धरणों के द्वारा आप सीतापति भगवान श्रीराम के समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय रामायण में आप पग-पग पर प्राप्त कर सकते हैं।

निश्चय ही अगर सेकुलरिज्म ही आज के युग का धर्म है तो तय मानिए ‘जय श्री राम’ से बढ़कर पंथनिरपेक्षता का और कोई मन्त्र नहीं हो सकता। भारत के सर्वधर्म समभाव के शुभंकर भी अपने सियाराम ही हो सकते हैं। राक्षसों की संस्कृति तक को, यवनों को मत तक को भी भारतीयता में पिरो देने का काम श्रीराम का ही हो सकता है। सौमित्र लक्ष्मण की नगरी लखनऊ से जब भारत  के प्रधानमंत्री अपनी समूची ताकत से ‘जय श्रीराम’ का तुमुल नाद कर रहे थे तो तय मानिए कि वह भारत के पंथनिरपेक्षता के सबसे बड़े इश्वर का गुणानुवाद कर भारतीय संविधान की आत्मा के साथ साक्षात्कार ही कर रहे थे। उस आत्मा के साथ जिसने साकार रूप  हो  लिया  है, श्रीराम के रूप में।

सो, जब भी आपको भारत में सेक्युलरिज्म के गौरवगान का मन हो तो बस आंख मूंदिये, सांस भीतर खीचिये, अपने-अपने इश्वर का ध्यान कीजिये और समूची ताकत से कह बैठिये – जय जय श्रीराम..जय-जय श्रीराम।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)