वो जगह जहां नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा देने के बाद किराए पर रहने लगे थे बाबा साहेब !

सन 2000 के आसपास देशभर के अंबेडकवादी मांग करने लगे कि 26, अलीपुर रोड के बंगले को बाबा साहेब के स्थायी स्मारक के रूप में विकसित किया जाए। इस मांग के जोर पकड़ने के बाद तत्कालीन सरकार ने जिंदल परिवार से बंगले को लिया। बदले में उसे बंगले के बराबर जमीन उसी क्षेत्र में दी। 2003 से पहले तो बहुत ही कम लोगों को मालूम  था कि इस बंगले का बाबा साहेब से कितना करीबी संबंध रहा है।

डॉ. भीमराव अंबेडकर के अंतिम पांच साल  राजधानी के अलीपुर रोड में बीते। उन्होंने पंडित नेहरू की कैबिनेट से 31 अक्तूबर, 1951 को इस्तीफा दे दिया था और उसके अगले ही दिन वे 26, अलीपुर रोड के  बंगले में आ गए थे। पंडित नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा देने के अगले ही दिन यानी 1 नवंबर को उन्होंने अपने सरकारी बंगले को छोड़ दिया था। यानी वे एक दिन भी सरकारी बंगले में मंत्री पद को छोड़ने के बाद नहीं रहे।

जाहिर है, अगर चाहें तो आजकल के तमाम नेता उनसे प्रेरणा ले सकते हैं जो सरकारी बंगले से निकलने का नाम ही नहीं लेते मंत्री या संसद सदस्य ना रहने के बावजूद। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2 दिसंबर, 2003 को अलीपुर रोड वाले बंगले को देश को समर्पित किया बाबा साहेब के स्मारक के रूप में।

डॉ. भीमराव अंबेडकर

26, अलीपुर रोड पर आने के बाद वे 6 दिसंबर, 1956 तक यानी अपनी मृत्यु तक यहां पर ही रहे। दरअसल उनसे सांकेतिक रेंट पर इस बंगले में रहने का आग्रह किया था राजस्थान के सिरोही के तत्कालीन राजा ने। उनके आग्रह पर वे इधर आ गए। वे मुफ्त में इसमें नहीं शिफ्ट करना चाहते थे। पर सिरोही के राजा के आग्रह पर उन्होंने शर्त रखी कि वे सांकेतिक रेंट अवश्य देंगे। 

बाबा साहेब ने 26, अलीपुर रोड में रहते ही ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’ नाम से अपनी  कालजयी पुस्तक लिखी। बाबा साहब का उस दौर में ज्यादातर वक्त अध्ययन और लेखन कार्यों में ही गुजरता था। उनके पीए नानक चन्द्र रत्तू, खाना पकाने वाले सुदामा आमतौर पर उनके पास रहते थे। आप जैसे ही 26 अलीपुर रोड के अंदर पहुंचते हैं तो आपको कहीं ना कहीं लगता है कि बाबा साहेब यहां पर ही कहीं होंगे। वे कभी भी कहीं से आपके सामने खड़े हो जाएंगे।

बेशक, जिस जगह पर बाबा साहेब जैसी शिखर हस्ती ने अपने जीवन के कुछ बरस बिताए वह जगह अपने आप में खास तो है। अलीपुर रोड के इस बंगले में कई कमरे हैं। बंगले के आगे एक सुंदर सा बगीचा भी है। बाबा साहेब के घर के दरवाजे सबके लिए हमेशा खुले रहते थे। कोई भी उनसे कभी मिलने के लिए आ सकता था। वे सबको पर्याप्त वक्त देते थे। मेहमानों को सादा भोजन या चाय भी मिलती था।

२६ अलीपुर रोड स्थित डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक

होती थीं बैठकें

26 अलीपुर रोड प्रवास के दौरान उनसे तमाम चिंतक, छात्र, पत्रकार, अध्यापक, दलित एक्टिविस्ट वगैरह उनकी पुस्तकों पर बात करने के लिए भी आते थे। चूंकि, कुछ साल पहले ही देश का बंटवारा हुआ था, इसलिए उनकी किताब  ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ पर खासतौर पर बहस होती थी। इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश मांग की आलोचना की।

इसके अलावा ‘हू वेयर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) पर भी लंबी बैठकें होती थीं। वे बीच-बीच में देश के विभिन्न भागों में लोगों से मिलने-जुलने के लिए जाते भी थे। बाबा साहेब की मृत्यु के बाद सविता जी करीब 3 सालों तक इसी बंगले में रहीं। उसके बाद सिरोही के राजा ने बंगले को किसी मदन लाल जैन नाम के स्थानीय व्यापारी को बेच दिया। जैन ने आगे चलकर बंगले को स्टील व्यवसायी जिंदल परिवार को बेचा।

दरअसल अलीपुर रोड को आप राजधानी का एलिट इलाका मान सकते हैं। इसे अंग्रेजों के दौर में ही विकसित कर दिया गया था। इससे सटे हैं फ्लैग स्टाफ रोड,राजपुर रोड, माल रोड, कमला नगर वगैरह। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी  इसी क्षेत्र में रहते हैं। इधर ही है दिल्ली विधानसभा और दिल्ली विश्वविद्यालय भी। सुबह से शाम तक यह सारा क्षेत्र गुलजार रहता है। जगह-जगह पर बड़े-बड़े बगीचे हैं। कुल मिलाकर बेहद शानदार इलाका है यह।

सन 2000 के आसपास देशभर के अंबेडकवादी मांग करने लगे कि 26, अलीपुर रोड के बंगले को बाबा साहब के स्थायी स्मारक के रूप में विकसित किया जाए। इस मांग के जोर पकड़ने के बाद तत्कालीन सरकार ने जिंदल परिवार से बंगले को लिया। बदले में उसे बंगले के बराबर जमीन उसी क्षेत्र में दी। 2003 से पहले तो बहुत ही कम लोगों को मालूम  था कि इस बंगले का बाबा साहेब से कितना करीबी संबंध रहा है।

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)