हिंदी पत्रकारिता में भाषा का संकटकाल

आज अधिकांश समाचार-पत्रों की ख़बरों और आलेखों में न्यूनाधिक रूप से व्याकरणीय त्रुटियाँ मिल ही जाती हैं। कहीं मात्रात्मक त्रुटियाँ दिखती हैं, तो कहीं अटपटे वाक्य दिख जाते हैं और सबसे ज्यादा तो शब्दों की वर्तनी का दोष नज़र आता है। अनुस्वार (बिंदु) और अनुनासिक (चंद्रबिंदु) के प्रयोग को लेकर भी हिंदी समाचार-पत्र भ्रम की स्थिति में नज़र आते हैं।

हिंदी भाषा के उत्थान में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान अविस्मरणीय है। साहित्यिक पत्रकारिता और सूचनात्मक पत्रकारिता, दोनों ने अपने-अपने स्तर पर न केवल हिंदी भाषा को प्रचारित-प्रसारित किया, बल्कि उसका एक सम्यक स्वरूप-निर्धारण भी इन्हीके माध्यम से हुआ। ये आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक पत्रकारिता ही थी, जिसने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हिंदी भाषा का एक व्यवस्थित व मानक स्वरूप निर्धारित किया।

साभार : Quora

दूसरी तरफ हिंदी के समाचार-पत्रों में भी यह परम्परा बनी रही और वे भी हिंदी भाषा के प्रति पूरी सजगता और गंभीरता दिखाते हुए इसको समृद्ध बनाते रहे। वह दौर हमने देखा है कि जब हिंदी के किसी शब्द की वर्तनी आदि को लेकर किसीको कोई भ्रम होता, तो वह समाचार-पत्र में वो शब्द देखकर अपना भ्रम दूर कर लेता। समाचार-पत्रों की ऐसी भाषाई विश्वसनीयता थी।

परन्तु, आज हिंदी दिवस के अवसर पर यदि हिंदी के समाचार-पत्रों की भाषाई स्थिति पर दृष्टि डालें तो अत्यंत निराशा होती है। आज हिंदी समाचार-पत्रों ने जहां एक ओर  साज-सज्जा और प्रस्तुतिकरण के स्तर पर अत्यधिक प्रगति की है, वहीं दूसरी ओर भाषा के स्तर पर उनकी स्थिति अवनतिसूचक नज़र आती है। विडंबना ही है कि जिस हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से कभी हिंदी भाषा ने प्रचार और प्रसार पाया था, आज वही पत्रकारिता हिंदी के प्रति अगंभीर और असावधान हो चुकी है।  

गंभीरतापूर्वक अवलोकन करें तो वर्तमान हिंदी पत्रकारिता में भाषा को लेकर कई प्रकार की समस्याएँ नज़र आती हैं। इनमें से एक बड़ी समस्या अंग्रेज़ी शब्दों के प्रति अत्यधिक आकर्षण की है। आज देश के अधिकांश हिंदी समाचार-पत्रों की ख़बरों को ध्यान से पढ़ें तो यह स्पष्ट रूप से दिखेगा कि ज्यादातर ख़बरों में कुछ न कुछ अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग हुआ है।

ऐसा नहीं कह रहे कि हिंदी पत्रों में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग अनुचित है। जिन अंग्रेज़ी  शब्दों का हिंदी में कोई अच्छा विकल्प नहीं है, उनका प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन, समस्या तब होती है, जब हिंदी समाचार-पत्रों में अंग्रेज़ी के ऐसे बहुतायत शब्द दिखते हैं, जिनके लिये हिंदी में बेहतर शब्द मौज़ूद हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदी के ऐसे तमाम समाचार-पत्र मिलेंगे, जो ‘विद्यालय’ की जगह स्कूल, ‘विभाग’ की जगह डिपार्टमेंट, नक़दी की जगह कैश, दल की जगह टीम, प्रशिक्षण की जगह ट्रेनिंग आदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं।

अंग्रेज़ी  शब्दों के इस प्रयोग के पक्ष में बहुत से लोगों के पास ‘भाषाई उदारता’ का तर्क अक्सर मिल जाता है। लेकिन, प्रश्न यह है कि किसी भाषा को इतना उदार बना देना कहाँ तक सही है कि उसका अपना स्वरूप ही संकट में पड़ जाये ?

तिसपर ये भी देखने वाली बात है कि अंग्रेज़ी के ऐसे कितने समाचार-पत्र या चैनल हैं, जो इस उदारता के साथ हिंदी शब्दों का प्रयोग करते हैं – एक-दो नाम भी नहीं मिलेंगे। ऐसे में, इस एकपक्षीय भाषाई उदारता का क्या औचित्य है ? कहने की आवश्यकता नहीं कि भाषाई उदारता का यह तर्क एकदम कमज़ोर और अमान्य है। 

साभार : Dainik Jagran

दूसरी महत्वपूर्ण समस्या भाषाई दोषों की है। आज अधिकांश समाचार-पत्रों की ख़बरों और आलेखों में न्यूनाधिक रूप से व्याकरणीय त्रुटियाँ मिल ही जाती हैं। कहीं मात्रात्मक त्रुटियाँ दिखती हैं, तो कहीं अटपटे वाक्य दिख जाते हैं और सबसे ज्यादा तो शब्दों की वर्तनी का दोष नज़र आता है। अनुस्वार (बिंदु) और अनुनासिक (चंद्रबिंदु) के प्रयोग को लेकर भी हिंदी समाचार-पत्र भ्रम की स्थिति में नज़र आते हैं।

अक्सर समाचार-पत्रों में इनका प्रयोग घालमेल तरीके से होता दिखता है, जबकि ये भी अर्थ का अनर्थ करने की क्षमता रखने वाली त्रुटि है। अब जैसे कि एक शब्द है ‘हँस’, तमाम समाचार-पत्रों में इसे ‘हंस’ के रूप में लिखा हुआ देखा जा सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये किस तरह से अर्थ का अनर्थ कर रहा है। इन वर्तनी दोषों के अतिरिक्त वाक्य, मात्रा आदि की भी न्यूनाधिक रूप से गलतियाँ नज़र आती हैं। 

ये अत्यंत विचित्र प्रतीत होता है कि एक समय था, जब वर्तमान समय की तरह ई-मेल, कंप्यूटर जैसे आधुनिक संसाधन नहीं थे, इसके बावज़ूद सरस्वती के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी लेखकों की त्रुटियों को न केवल सम्यक प्रकार से सुधारते थे, बल्कि उन्हें इस विषय में अवगत भी कराते थे, जिससे कि वे भविष्य में इस सम्बन्ध में अपेक्षित सुधार कर सकें। द्विवेदी जी ही नहीं, और भी संपादक इस तरह की कार्यप्रणाली को अपनाते थे।

आज संसाधन हैं, मगर संपादक और लेखक के बीच की ये संवाद-प्रणाली कम हो गई है। लेखक बार-बार ग़लती करके भेजते रहते हैं और संपादक नज़र में आ जाने पर उसे सुधार लेते हैं, लेकिन लेखक से इस विषय में कोई चर्चा नहीं करते कि उन्हें अपने लेखन में भाषा के स्तर पर फलां सुधार की जरूरत है। सभी की तो नहीं, लेकिन अधिकांश समाचार-पत्रों की यही स्थिति है। वैसे, इस सम्बन्ध में समाचार-पत्रों से भी अधिक बुरी स्थिति तो समाचार चैनलों की है, लेकिन वे पत्रकारिता के दृश्य और श्रव्य माध्यम हैं, इसलिये उनके मूल्यांकन की कसौटी कुछ भिन्न है। 

हिंदी-पत्रकारिता के भाषाई दोषों की इस समस्या के कारणों पर विचार करें तो कई बातें सामने आती हैं। समाचार-पत्रों का हिंदी भाषा के प्रति असावधानी और अगम्भीरतापूर्ण रवैया इस सम्बन्ध में एक बड़ा कारण है, जिसके तहत ‘चलता है’ वाली मानसिकता काम करती है। इस मानसिकता से बाहर आने की ज़रूरत है। लेकिन, इस समस्या के सबसे प्रमुख कारण की अगर पड़ताल करनी है तो पत्रकारिता के कुछ नये छात्रों के लिखे आलेख पढ़ लीजिये।

आप देखेंगे कि ज्यादातर छात्रों के आलेखों में भारी मात्रा में भाषागत त्रुटियाँ मौज़ूद होंगी। त्रुटियाँ होना उतना बुरा नहीं है, लेकिन इनमें से अधिकांश छात्र अपनी त्रुटियों से पूरी शिक्षा के दौरान अपरिचित ही रह जाते हैं, यह बड़ी समस्या है। आगे जब यही छात्र पत्रकारिता के किन्हीं संस्थानों में जाकर कोई दायित्व संभालते हैं, तो वहाँ भी उन ग़लतियों की पुनरावृत्ति करते रहते हैं। वो काम करने का स्थान होता है, इसलिये वहाँ सुधार कम ही हो पाता है।

कहने का आशय ये है कि पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों को अपने यहाँ छात्रों को पत्रकारीय सिद्धांतों और कार्यों के अतिरिक्त अपनी भाषा के प्रति भी सजग बनाने के लिये विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता है। हालांकि इसके लिये शिक्षकों को पहले स्वयं इस सम्बन्ध में सजग होना होगा। त्रुटियों को अनदेखा करने और ‘चलता है’ की प्रवृत्ति से बाहर आना होगा। यह न केवल वर्तमान हिंदी पत्रकारिता के लिये अत्यंत आवश्यक है, बल्कि भारतीय जनमानस द्वारा राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत हिंदी के गुणवत्तापूर्ण उत्थान की दिशा में भी इसका अत्यधिक महत्व है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)