इतिहास में महाराणा का नाम इसलिए भी स्वर्णाक्षरों में अंकित होना चाहिए कि युद्ध-कौशल के अतिरिक्त उनका सामाजिक-सांगठनिक कौशल भी अनुपमेय था। उन्होंने भीलों के साथ मिलकर ऐसा सामाजिक गठजोड़ बनाया था, जिसे भेद पाना तत्कालीन साम्राज्यवादी ताकतों के लिए असंभव था। ऊँच-नीच का भेद मिटाए बिना समरसता का ऐसा दिव्य रूप साकार-संभव न हुआ होगा।
जिनका नाम लेते ही नस-नस में बिजलियाँ-सी कौंध जाती हों; धमनियों में उत्साह, शौर्य और पराक्रम का रक्त प्रवाहित होने लगता हो; मस्तक गर्व और स्वाभिमान से ऊँचा हो उठता हो- ऐसे परम प्रतापी महाराणा प्रताप की आज जयंती है। आज का दिवस मूल्यांकन-विश्लेषण का दिवस है। क्या हम अपने गौरव, अपनी धरोहर, अपने अतीत को सहेज-सँभालकर रख पाए? क्या हम अपने महापुरुषों, उनके द्वारा स्थापित मानबिन्दुओं, जीवन-मूल्यों की रक्षा कर सके? क्या हमने अपनी नौजवान पीढ़ी को साहस, शौर्य और पराक्रम का पाठ पढ़ाया, क्या त्याग और बलिदान की पुण्यसलिला भावधारा को हम अबाध आगे ले जा सकेंगें?
ऐसे तमाम प्रश्न आज भी राष्ट्र के सम्मुख यथावत खड़े हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात जिनके कंधों पर इस राष्ट्र को आगे ले जाने का भार था उन्होंने जान-बूझकर इन प्रश्नों के समाधान की दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया। गुलामी की ग्रन्थियाँ उनमें गहरे पैठी थीं। और उन्होंने इन्हीं ग्रन्थियों को पालने-पोसने-सींचने-फैलाने का काम किया।
इन ग्रन्थियों के रहते क्या हम अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा कर सकेंगें? और जो पीढ़ी अपने मानबिन्दुओं, जीवन-मूल्यों, महापुरुषों के गौरव आदि की रक्षा न कर पाए, क्या उनका कोई भविष्य होता है? स्वाभिमानशून्य पीढ़ियों के निर्माण का दोष हम किनके माथे धरें? यह उत्तर माँगने का समय है कि क्यों और किसने हमारे नौनिहालों के भीतर हीनता की इतनी गहरी ग्रन्थियाँ विकसित कीं कि आज उनमें से उनका निकल पाना कठिन लगता है?
किसने उनके मन-मस्तिष्क में यह भर दिया कि भारत का इतिहास तो पराजय का इतिहास है? क्या भारत का इतिहास पराजय का इतिहास है? नहीं, वह संघर्षों का इतिहास है। साहस, शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान का इतिहास है। समय साक्षी है, हमने कभी अनायास घुटने नहीं टेके। सामर्थ्य भर प्रतिकार किया।
जब हमें यह पढ़ाया जाता है कि भारत तो निरंतर आतताइयों-आक्रांताओं के पैरों तले रौंदा गया, तब यह क्यों नहीं बताया जाता कि हर युग और हर काल में ऐसे रणबाँकुरे हुए जिन्होंने आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ा दिए। उनके प्रतिकार ने या तो उन आक्रमणकारियों को लौटने पर विवश कर दिया या बार-बार के प्रतिरोध-प्रतिकार से उन्हें भी निरापद शासन नहीं करने दिया। और परिणामस्वरूप ऐसे आक्रांताओं के शासन का भी असमय-अस्वाभाविक अंत हुआ।
क्या यह सत्य नहीं कि जिन-जिन देशों पर विदेशी-विधर्मी आक्रांताओं ने आक्रमण किया वहाँ की संस्कृति समूल नष्ट हो गई? पर भारत अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखने में सफल रहा, क्या कोई पराजित जाति ऐसा कर सकती है? हमने अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए अनेक स्तरों पर संघर्ष किए, उन संघर्षों पर गौरव करने की बजाय हम उसे भी विस्मृति के गर्त्त में धकेलते जा रहे हैं, जो सर्वथा अनुचित और अराष्ट्रीय है। क्या पराजय का वृत्तांत सुना-सुना हम उत्साहहंता नहीं बन रहे। क्या कर्ण के पराजय में शल्य की महती भूमिका का दृष्टांत हमें याद नहीं?
महाराणा की जयंती पर आज यह प्रश्न सर्वथा उपयुक्त होगा कि क्या हमारे इतिहासकारों ने उनके विराट व्यक्तित्व के साथ न्याय किया? क्या अकबर के साथ ‘द ग्रेट’ का स्थायी विशेषण जोड़कर, जान-बूझकर महाराणा को संकुचित और छोटा सिद्ध करने की चेष्टा नहीं की गई? मातृभूमि की मान-मर्यादा, स्वाभिमान-स्वतंत्रता के लिए जंगलों-बीहड़ों की ख़ाक छानने वाले, घास की रोटी खाने वाले और अपने जाँबाज सैनिकों के बल पर दुश्मन के छक्के छुड़ा देने वाले महाराणा के संघर्ष, साहस, त्याग और बलिदान की तुलना साम्राज्य-विस्तार की लपलपाती-अंधी लिप्सा से भला कैसे की जा सकती है? वह भी तब जब उसने संधि के अत्याकर्षक प्रस्ताव को ठुकराकर स्वेच्छा से संघर्ष और स्वाभिमान का पथ चुना हो!
इतिहास में महाराणा का नाम इसलिए भी स्वर्णाक्षरों में अंकित होना चाहिए कि युद्ध-कौशल के अतिरिक्त उनका सामाजिक-सांगठनिक कौशल भी अनुपमेय था। उन्होंने भीलों के साथ मिलकर ऐसा सामाजिक गठजोड़ बनाया था, जिसे भेद पाना तत्कालीन साम्राज्यवादी ताकतों के लिए असंभव था। ऊँच-नीच का भेद मिटाए बिना समरसता का ऐसा दिव्य रूप साकार-संभव न हुआ होगा।
मिथ्या अभिमान पाले जातियों में बंटे समाज के लिए महाराणा का यह उदाहरण आज भी प्रासंगिक और अनुकरणीय है। सोचिए, उनकी प्रजा का उन पर कितना अपार विश्वास होगा कि भामाशाह ने उन्हें अपनी सेना का पुनर्गठन करने के लिए सारी संपत्ति दान कर दी। कहते हैं कि यह राशि इतनी बड़ी थी कि इससे 25000 सैनिकों के लिए 5 साल तक निर्बाध रसद की आपूर्त्ति की जा सकती थी। क्या महाराणा के व्यक्तित्व के इन धवल-उज्ज्वल पक्षों को प्रखरता से सामने नहीं लाया जाना चाहिए? क्यों कथित इतिहासकार इस पर मौन रह जाते हैं?
बिना किसी रणनीतिक कौशल के हल्दी घाटी के युद्ध में हारे भूभाग को पुनः प्राप्त कर पाना क्या महाराणा के लिए संभव था? शासन के अंतिम दिनों में न केवल उनका मेवाड़ के अधिकांश भूभाग पर कब्ज़ा था, बल्कि उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं में पर्याप्त विस्तार भी किया था।
खलनायकों को नायकों की तरह प्रस्तुत करने वाले फिल्मकारों-इतिहासकारों ने जोधा-अकबर की कहानी को एक अमर प्रेमकहानी की तरह प्रस्तुत करने में कोई कोर कसर बाक़ी नहीं रखी। यह जानते हुए भी कि जोधाबाई का अकबर से विवाह पराजय से उत्पन्न अपमानजनक संधि का परिणाम था, उसे महिमामण्डित किया जाता रहा।
लोक ने जिसे कलंक का अमिट टीका माना, कतिपय इतिहासकारों-फिल्मकारों ने उसे सहिष्णुता का मान-मुकुट पहनाने का षड्यंत्र किया। जबकि चारित्रिक शुचिता की दृष्टि से अकबर महाराणा के समक्ष कहीं टिकता ही नहीं। एक घटना का उल्लेख ही इसे सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होगी। एक बार उनके पुत्र शत्रु पक्ष की बेग़मों को बंदी बनाकर ले आए। प्रसन्न होने की बजाय महाराणा इससे क्षुब्ध और क्रुद्ध हुए। सहिष्णुता एवं सच्ची उदारता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने शत्रु-पक्ष की महिलाओं को ससम्मान उनके शिविर वापस भिजवाने का आदेश दिया। कवि रहीम ने इस प्रसंग का सादर उल्लेख भी किया है।
महाराणा की जयंती पर यह विचार आवश्यक है कि वर्तमान पीढ़ी को कैसा और कौन-सा इतिहास पढ़ाया जाय? वह जो पराजय की ग्रन्थियाँ विकसित और मज़बूत करे या वह जो विजय का पथ प्रशस्त करे? वह जो परमुखापेक्षी, परावलंबी, स्वाभिमानशून्य बनाए या वह जो आत्मनिर्भर, स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनाए? निर्णय आपको करना है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)