मकर संक्रांति : भारतीय संस्कृति के समरस स्वरूप का महोत्सव

मकर संक्रान्ति के दिन देव भी धरती पर अवतरित होते हैं। अंधकार का नाश व प्रकाश का आगमन होता है। इस दिन पुण्य, दान, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अनन्य महत्व है। इस दिन गंगा स्नान व सूर्योपासना के बाद यथाशक्ति दान की महिमा बताई गई है। इस पर्व में अंधकार से प्रकाश की ओर चलने और सामाजिक समरसता का विचार समाहित है।

भारत के सभी पर्व उत्सव प्रकृति संरक्षण और सामाजिक समरसता की भावना से युक्त होते हैं। इनसे जहां एक ओर प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन का संदेश मिलता है, दूसरी तरफ समाजिक समरसता का संदेश मिलता है। मकर संक्रांति भी इसी प्रकार का पर्व है। मकर संक्रांति भारत में विविध रूप से मनायी जाती है। इसमें भारतीय संस्कृति की विविधता झलकती है। लेकिन भाव भूमि समान है।

पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आते हैं, तभी इस पर्व को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाया जाता हैं। कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे संक्रांति ही कहते हैं। सूर्य के उत्तरायण होने के अर्थ में इस पर्व को उत्तरायण भी कहते हैं।

पृथ्वी का झुकाव हर छह माह तक निरंतर उत्तर ओर फिर छह माह दक्षिण की ओर बदलता रहता है। सूर्य का मकर राशि में प्रवेश मकर संक्रान्ति है। पौराणिक मान्यता के अनुसार ऋषि विश्वामित्र ने इस उत्सव का शुभारंभ किया था।

महाभारत के अनुसार, पांडवों ने अपने वनवास की अवधि में मकर संक्रांति मनाई थी। देवी संक्रांति का उल्लेख भी मिलता है। कहा जाता है कि उन्होने राक्षस शंकरासुर का वध किया था। मकर संक्रांति के एक दिन बाद देवी ने राक्षस किंकरासुर का वध किया था। इस आधार पर संक्रांति के अगले दिन को किंक्रान कहा गया।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव जी ने इस दिन भगवान विष्णु जी को आत्मज्ञान का दान दिया था। देवताओं के दिनों की गणना इस दिन से ही प्रारम्भ होती है। सूर्य जब दक्षिणायन में रहते हैं तो उस अवधि को देवताओं की रात्रि व उत्तरायण के छ: माह को दिन कहा जाता है। महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये मकर संक्रान्ति का दिन ही चुना था। आज ही के दिन गंगा जी भगीरथ के पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थी। इसीलिए आज के दिन गंगा स्नान व तीर्थ स्थलों पर स्नान दान का विशेष महत्व माना गया है।

मकर संक्रान्ति के दिन से मौसम में बदलाव आना आरम्भ होता है। यही कारण है कि रातें छोटी व दिन बड़े होने लगते हैं। सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध की ओर जाने के कारण ग्रीष्म ऋतु का प्रारम्भ होता है। सूर्य के प्रकाश में गर्मी और तपन बढ़ने लगती है। इसके फलस्वरुप प्राणियों में चेतना और कार्यशक्ति का विकास होता है।

मकर संक्रान्ति के दिन देव भी धरती पर अवतरित होते हैं। अंधकार का नाश व प्रकाश का आगमन होता है। इस दिन पुण्य, दान, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अनन्य महत्व है। इस दिन गंगा स्नान व सूर्योपासना के बाद यथाशक्ति दान की महिमा बताई गई है। इस पर्व में अंधकार से प्रकाश की ओर चलने और सामाजिक समरसता का विचार समाहित है।

वस्तुतः सामाजिक समरसता का भाव भारतीय संस्कृति के मूल में ही विद्यमान रहा है, जो संक्रांति के पर्व में भी प्रकट होता है। भारत में तो प्राचीन काल से सभी मत-पंथ व उपासना पद्धति को सम्मान दिया गया। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः ही भारत की विचार दृष्टि है।

निःस्वार्थ सेवा और सामाजिक समरसता भारत की विशेषता रही है। सेवा-कार्य में कोई भेदभाव नहीं होता। हमारी संस्कृति का आचरण सद्भाव पर आधारित है। यह हिंदुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत में रहने वाले ईसाई और मुस्लिम परिवारों के भीतर भी यह भाव साफ देखा जा सकता है। एक सौ तीस करोड़ का समाज, भारतमाता का पुत्र है। हमारा बंधु है। क्रोध और अविवेक के कारण इसका लाभ लेने वाली अतिवादी ताकतों से सावधान रहना है। सेवा-समरसता आज की आवश्यकता है। इस पर अमल होना चाहिए। इसी से श्रेष्ठ भारत की राह निर्मित होगी। संक्रांति की उत्सवी विविधता में सनातन की सांस्कृतिक एकता का भाव यही संदेश देता है।

वर्तमान परिस्थिति में आत्मसंयम और नियमों के पालन का भी महत्व है। समाज में सहयोग, सद्भाव और समरसता का माहौल बनाना आवश्यक है। भारत दूसरे देशों की सहायता करता रहा है, क्योंकि यही हमारा विचार है। समस्त समाज की सर्वांगीण उन्नति ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। जब हिंदुत्व की बात आती है, तो किसी अन्य पंथ के प्रति नफरत, कट्टरता या आतंक का विचार स्वतः समाप्त हो जाता है। तब वसुधैव कुटुंबकम व सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव ही जागृत होता है।

भारत जब विश्वगुरु था, तब भी उसने किसी अन्य देश पर अपने विचार थोपने के प्रयास नहीं किये। भारत शक्तिशाली था, तब भी तलवार के बल पर किसी को अपना मत त्यागने को विवश नहीं किया। दुनिया की अन्य सभ्यताओं से तुलना करें तो भारत बिल्कुल अलग दिखाई देता है। जिसने सभी पंथों को सम्मान दिया और सभी के बीच बंधुत्व का विचार दिया। ऐसे में भारत को शक्ति संम्पन्न बनाने की बात होती है तो उसमें विश्व के कल्याण का विचार ही समाहित होता है। भारत की प्रकृति मूलतः एकात्म और समग्र है। अर्थात भारत संपूर्ण विश्व में अस्तित्व की एकता को मानता है।

इसलिए हम टुकड़ों में विचार नहीं करते। हम सभी का एक साथ विचार करते हैं। समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म में सत्य, अहिंसा, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय, संतोष, तप को महत्व दिया गया। समरसता व सद्भाव से ही देश का कल्याण होता है।

जब भारत एवं भारत की संस्कृति के प्रति भक्ति जागती है व भारत के पूर्वजों की परंपरा के प्रति गौरव जागता है, तब सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। भारत ही एकमात्र देश है, जहाँ पर सबके सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश है, जहाँ उस देश के वासियों की सत्ता में दूसरा संप्रदाय रहा हो। हमारे यहाँ मुसलमान व ईसाई हैं। उन्हें तो यहाँ सारे अधिकार मिले हुए हैं।

संघ देश के नव संक्रांति के महाभियान को लेकर चल रहा है। हमें समानता एवं समरसता के मंत्र को जीवन में उतारना चाहिए। इसी से हमारा समाज संगठित और शक्तिशाली बनेगा। भेदभाव के लिए समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इतिहास में हमारे बिखराव का लाभ विदेशी आक्रमणकारी उठाते रहे हैं। लेकिन आज का भारत मजबूत है। दुनिया में भारत का महत्त्व और प्रभाव बढ़ रहा है।

भारतीय दर्शन ने कण कण में ईश्वर का वास माना है। यही भारतीय चिन्तन है।  सृष्टि किसी के साथ भेदभाव नहीं करती है। सूर्य, नदी, पेड़ बिना भेदभाव के लोगों को उपकृत करते हैं। ऐसा ही भाव समाज के प्रति होना चाहिए।

भारतीय सभ्यता संस्कृति सर्वाधिक प्राचीन और शास्वत है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हमारी गौरवशाली  विरासत है। इसको समझने और उस पर गर्व करने की आवश्यकता है। मकर संक्रांति का यह महापर्व भारतीय संस्कृति के महान स्वरुप को ही प्रतिबिंबित करता है।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)