नवरात्र विशेष : सृष्टि की ऊर्जा हैं देवी दुर्गा

योगमाया सृष्टि की वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक है, जबकि योगनिद्रा सृष्टा की समाधि की अवस्था में आई निद्रा है। यह स्थिति चेतन अवस्था से अंधकार के क्षेत्र में प्रवेश को दर्शाती है, जो प्रलय की भी द्योतक है। अंततः यही आदि शक्तियां क्षीरसागर में शेषशय्या पर लेटे भगवान नारायण को चेताती हैं कि समाधि के शून्य-भाव से जागो और अंधकारमयी विरोधी ताकतों से ब्रह्माण्ड को मुक्त कराओ। देवी की प्रकृति रूपी यही अवस्थाएं सत्व, रज और तम गुणों में रूपांतरित होकर सृष्टि को संतुलित बनाए रखने का काम करती हैं। इसीलिए देवी को आद्य या असाधारण शक्ति कहा गया है। विश्व की इस जननी के बिना शिव भी ‘शव’ मात्र हैं।

भारत में देवी की पूजा वैदिक युग में ही आरंभ हो गई थी। ऋग्वेद के देवी सूक्तम में सभी देवताओं की आंतरिक शक्ति की बात कही गई है, जो ऊर्जा की प्रतीक है। हरिवंश पुराण में कालरात्रि, निद्रा और योगमाया के समन्वित रूपों के बारे में बताया गया है कि जब भगवान विष्णु नींद में होते हैं, तब देवी दुर्गा ही विश्व की रक्षा करती हैं। 

देवी कालरात्रि की काया का रंग घने अंधकार की तरह काला है और सिर के बाल बिखरे हुए है। गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला डली है। इनकी तीन आंखें हैं। तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सामान अंडाकार हैं। इन चक्षुओं से तीव्र विद्युत की किरणें निरंतर प्रवाहित होती रहती है। जो अक्षय ऊर्जा की द्योतक हैं। यही ऊर्जा सृष्टि में फैली हुई है। इसी ऊर्जा में भगवान शिव का अर्धनारीश्वर रूप दृष्टिगोचर होता रहता है।

इस रूप का संबंध स्त्री रूप में शरीर विज्ञान सम्मत मानव संरचना में ‘एक्स’ तत्व से है और पुरुष रूप में ‘वाय’ तत्व से है। अर्थात यह रूप स्त्री-पुरुष में समानता जताता है। भारतीय वांग्मय में काम-ऊर्जा को सबसे शक्तिशाली ऊर्जा माना गया। इसीलिए मानव में जब ‘वाय’ गुणसूत्र की अधिकता होती है तो पुरुष और स्त्रीयोचित गुण एक्स की अधिकता होती है तो स्त्री का जन्म होता है।  

नवरात्रों का आयोजन दो ऋतुओं की परिवर्तन की जिस वेला में होता है, वह इस बात का द्योतक है कि जीवन में बदलाव की स्वीकार्यता अनिवार्य है। नवरात्रों का आयोजन अश्विन मास के शुक्ल पक्ष में किया जाता है। शुक्ल पक्ष घटते अंधकार या अज्ञान का प्रतीक है। 

मार्कंडेय पुराण में प्रकाश और ऊर्जा के बारे में कहा गया है कि देवों ने एक प्रकाश पुंज देखा, जो एक विशाल पर्वत के समान प्रदीप्त था। उसकी लपटों से समूचा आकाश भर गया था। फिर यह प्रकाश पुंज एक पिंड में बदलता चला गया, जो एक शरीर के रूप में अस्तित्व में आया। फिर वह कालांतर में एक स्त्री के शरीर के रूप में आश्चर्यजनक ढंग से परिवर्तित हो गया। इससे प्रस्फुटित हो रही किरणों ने तीनों लोकों को आलोकित कर दिया। प्रकाश और ऊर्जा का यही समन्वित रूप आदि शक्ति या आदि मां कहलाईं। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि अव्यक्त से उत्पन्न तीन तत्वों अग्नि, जल और पृथ्वी के तीन रंग सारी वस्तुओं में अंतर्निहित हैं। अतः यही सृष्टि और जीवन के मूल तत्व हैं। अतएव प्रकृति की यही ऊर्जा जीवन के जन्म और उसकी गति का मुख्य आधार है।‘ 

इस अवधारणा से जो देवी प्रकट होती हैं, वही देवी महिषासुर मर्दिनी हैं। इन्हें ही पुराणों में ब्रह्माण्ड की मां कहा गया है। इनके भीतर सौंदर्य और भव्यता, प्रज्ञा और शौर्य, मृदुलता और शांति विद्यमान हैं। चरित्र के इन्हीं उदात्त तत्वों से फूटती ऊर्जा इस देवी के चेहरे को प्रगल्भ बनाए रखने का काम करती है। ऋषियों ने इन्हें ही स्त्री की नैसर्गिक आदि शक्ति माना है और फिर इसी का दुर्गा के नाना रूपों में मानवीकरण किया है। 

उपनिषदों में इन्हीं विविध रूपों को महामाया, योगमाया और योग निद्रा के नामों से चित्रित व रेखांकित किया गया। इनमें भी महामाया को ईश्वर  या प्रकृति की सर्वोच्च सत्ता मानकर विद्या एवं अविद्या में विभाजित किया गया है। विद्या व्यक्ति में आनंद का अनुभव कराती हैं, जबकि अविद्या सांसरिक इच्छाओं और मोह के जंजाल में जकड़ती है। विद्या को ही योगमाया या योगनिद्रा के नामों से जाना जाता है। 

योगमाया सृष्टि की वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक है, जबकि योगनिद्रा सृष्टा की समाधि की अवस्था में आई निद्रा है। यह स्थिति चेतन अवस्था से अंधकार के क्षेत्र में प्रवेश को दर्शाती है, जो प्रलय की भी द्योतक है। अंततः यही आदि शक्तियां क्षीरसागर में शेषशय्या पर लेटे भगवान नारायण को चेताती हैं कि समाधि के शून्य-भाव से जागो और अंधकारमयी विरोधी ताकतों से ब्रह्माण्ड को मुक्त कराओ। देवी की प्रकृति रूपी यही अवस्थाएं सत्व, रज और तम गुणों में रूपांतरित होकर सृष्टि को संतुलित बनाए रखने का काम करती हैं। इसीलिए देवी को आद्य या असाधारण शक्ति कहा गया है। विश्व की इस जननी के बिना शिव भी शव’ मात्र हैं। 

जब ब्रह्मांड र्में ऊर्जा का विघटन होता है तो आसुरी शक्तियां जागृत हो जाती हैं। ऊर्जा जब अव्यवस्थित हो जाती है, तब ध्वंसात्मक स्थितियों का निर्माण होता है। आज विध्वंसकारी वैज्ञानिक प्रयोगों के चलते दुनियाभर में ऊर्जा का ध्वंसात्मक रूप दिखाई दे रहा है। अराजक बनता यही परिवेश नकारात्मक यानी आसुरी ऊर्जा को बढ़ाता है। इस ऊर्जा को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम ब्रह्मा, विष्णु और महेश करते हैं। देवी माहात्म्य में कहा भी गया है कि देव और असुरों के बीच जब महायुद्ध हुआ तो वह सौ दिन तक चला। इस समय राक्षस महिष असुरों का राजा था और इंद्र देवताओं के अधिपति थे। इस संघर्ष में असुरों ने देवताओं का परास्त कर दिया। फलतः महिष देवों का भी सम्राट बन बैठा। 

पराजित देवता, प्रजापति ब्रह्मा के नेतृत्व में विष्णु व शिव के पास गए। उन्होंने युद्ध और फिर पराजय का दुखद वृत्तांत विष्णु व शिव को सुनाया। इसे सुनकर दोनों आक्रोश से लाल हो गए। विष्णु ने मुख खोला और उससे तीव्र गति से अक्षय ऊर्जा बाहर आई। ऐसा ही रोष ब्रह्मा और शिव ने ऊर्जा के रूप में मुख से प्रकट किया। इंद्र के शरीर से भी ऊर्जा का प्रस्फुटन हुआ। अन्य देवों ने भी अपने-अपने मुखों से ऊर्जा छोड़ी। ऊर्जा के इस प्रवाह से नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित होने लग गई। मुखों से उत्सर्जित इन ऊर्जा रूपी लपटों ने एक पर्वत का आकार ग्रहण कर लिया। इसी पर्वत से कात्यायनी प्रकट हुईं। दुर्गा का यही रूप महिषासुर मर्दिनी कहलाया। 

लीला भाव में यही दुर्गा सिंह की पीठ से टिककर खड़ी हैं। सिंह भी क्रूर शक्ति का प्रतीक है, लेकिन देवी द्वारा उसे वश में कर लिया गया है। देवी अराजक महिषासुर के शरीर को रौंद रही हैं। उनका एक पैर असुर के सिर पर है। महिष शक्तिशाली तो है, लेकिन उसका आचरण क्रूर है, इसलिए वह ब्रह्माण्ड के आध्यात्मिक आधार के अनुकूल नहीं है। यही कारण है कि कात्यायनी महिषासुर को पददलित कर उसके अहंकार को चूर कर देती हैं। महिष के प्राण हरने के बाद कात्यायनी महिषासुर-मर्दिनी कहलाती हैं। 

ऋग्वेद में कहा गया है कि ज्ञान के सभी विषय और क्रियाकलाप अंततः देवी के रूप हैं।सृष्टि-सृजन के आरंभ से लेकर अब तक नारियां मां का रूप हैं। नारी के मातृत्व की डिंब में स्थित इस ऊर्जा को प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयं विभाजित करके मानव के अस्तित्व को सृजित किया था। वह शक्तिस्वरूपा नारी ही है, जो अपनी ऊर्जा से मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है तथा भगवती दुर्गा मूल प्रकृति का वह रूप हैं, जिसमें समस्त शक्तियां समाहित हैं। इस अर्थ में संसार की समस्त ऊर्जा देवी दुर्गा का ही स्वरूप है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)