औद्योगिक विकास के इस दौर में निजी क्षेत्र में आरक्षण का सवाल

हम जिस समय देश को एक सूत्र में पिरोने की बात करते हैं, इस तरह की सोच हमें पीछे ले जाना चाहती है। देश की राजनीतिक व्यवस्था क्षेत्रीय दलों के स्तर पर कमोबेश जाति पर आधारित हो गई है, समस्या यहीं से पैदा हो रही है। प्राइवेट सेक्टर पर अगर आरक्षण के ऐसे मनमाने फैसले थोपे जाने लगे तो निवेश करने वालों और उद्योग लगाने वालों के मध्य हताशा ही बढ़ेगी।

पिछले दिनों दो बड़ी खबरें अख़बारों के मुख्य पृष्ठ की सुर्खियाँ नहीं बन पाईं। दक्षिण भारत के एक बड़े राज्य आंध्र प्रदेश में यहाँ के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने प्राइवेट सेक्टर के लिए 75 फीसद आरक्षण की घोषणा कर दी। यह एक ऐसा फैसला था, जिसके ऊपर अब तक बहस भी नहीं हुई थी और एक आम राय नहीं बन सकी है। वहीं दूसरी तरफ एक और खबर आई मध्य प्रदेश से जहाँ की सरकार ने फैसला किया कि राज्य की 70 फीसद नौकरियों पर वहां के स्थानीय लोगों का पहला अधिकार होगा।

सांकेतिक चित्र

यह कुछ ऐसे फैसले हैं जो आज के औद्योगिक विकास के समय में न उचित दिखते हैं और न संभव ही। भारत एक ऐसा देश है जहाँ मजदूर एक राज्य से दूसरे राज्यों में साल के कई हिस्सों में पलायन करते हैं और वापस अपने घर चले जाते हैं। खासकर कृषि के क्षेत्र में इस तरह की प्रवृत्ति देखी जाती है, जहाँ लाखों मजदूर एक राज्य से दूसरे राज्यों में जाते रहते हैं। क्या संभव है कि कृषि क्षेत्र में भी काम कर रहे दिहाड़ी मजदूरों के लिए ऐसा आरक्षण लागू होगा?

दरअसल इस तरह की सोच संघीय ढांचे के विकास के लिए हानिकारक है। हम जिस समय देश को एक सूत्र में पिरोने की बात करते हैं, इस तरह की सोच हमें पीछे ले जाना चाहती है। देश की राजनीतिक व्यवस्था क्षेत्रीय दलों के स्तर पर कमोबेश जाति पर आधारित हो गई है, समस्या यहीं से पैदा हो रही है। प्राइवेट सेक्टर पर अगर आरक्षण के ऐसे मनमाने फैसले थोपे जाने लगे तो निवेश करने वालों और उद्योग लगाने वालों के मध्य हताशा ही बढ़ेगी।

भारत विकासशील देशों के साथ मुकाबला करने में लगा है, लेकिन अनेक राज्यों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ निवेश के लिए उत्साहजनक माहौल बनाने में नाकाम रही है। दुनिया भर में कहीं भी न तो इस तरह का सरकारी आरक्षण ही है और न ही तरक्की पसंद देश इस तरह की व्यवस्था को लागू करने के बारे में कोई सोच ही रखते हैं। जहाँ हम चीन जैसे बड़े देश के साथ मुकाबला करने की सोचते हैं, तो क्या इस तरह की नीतियों के बीच चीन या विकसित देशों से कोई बड़ा निवेशक भारत में पैसा लगाएगा।

अगर हमारे देश के नेता यह निर्धारित करने लगेंगे कि किसी कंपनी का सीईओ कौन बने तो समस्या पैदा होनी स्वाभाविक है।आरक्षण की वजह से देश में पहले से ही असंतोष का माहौल है। अगर निजी क्षेत्रों में इस तरह की कोशिश की गई तो इससे सामाजिक के साथ साथ देश के आर्थिक विकास की राह भी अवरुद्ध हो जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)