पाक उच्च सदन में पहुँची कृष्णा कुमारी की हालत जोगेंद्र नाथ मण्डल जैसी न हो जाए !

कृष्णा कुमारी के पाकिस्तान के उच्च सदन में जाने को इस तरह से पाकिस्तान में पेश किया जा रहा है, जैसे कि वहां पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित हो गए। अब उन्हें अपने देश में जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी का हक मिलेगा। मंडल को जब जिन्ना ने अपनी कैबिनेट में विधि मंत्री का दायित्व सौपा तब भी यही कहा जा रहा था कि इस्लामिक पाकिस्तान में सबके हक सुरक्षित हैं। पर हुआ इसके ठीक विपरीत। मंडल पाकिस्तान के पहले और शायद आखिरी हिन्दू मंत्री बने।

पाकिस्तान में कृष्णा कुमारी नाम की हिन्दू महिला का नेशनल एसेंबली के उच्च सदन के लिए चुना जाना और सन 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना की कैबिनेट में जोगेंद्र नाथ मंडल को शामिल किए जाने को जोड़कर देखने की आवश्यकता है। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में थार से आती हैं कृष्णा कुमारी। वो सिंध की सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की सदस्य हैं। कहा जा रहा है कि कृष्णा कुमारी मुस्लिम देश में ‘पहली महिला दलित हिन्दू’सेनेटर बनीं। कृष्णा कुमारी के पाकिस्तान के उच्च सदन में जाने को इस तरह से पाकिस्तान में पेश किया जा रहा है, जैसे कि वहां पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित हो गए। अब उन्हें अपने देश में जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी का हक मिलेगा।

मंडल को जब जिन्ना ने अपनी कैबिनेट में विधि मंत्री का दायित्व सौपा तब भी यही कहा जा रहा था कि इस्लामिक पाकिस्तान में सबके हक सुरक्षित हैं। पर हुआ इसके ठीक विपरीत। मंडल पाकिस्तान के पहले और शायद आखिरी हिन्दू मंत्री बने। मंडल का संबंध ईस्ट बंगाल ( अब पाकिस्तान) से था। वे वहां पर मुस्लिम लीग के नेता थे। मंडल अपने को बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों से बहुत प्रभावित बताते थे। वे दलित थे। वे 1946 में पंडित नेहरु के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार में भी विधि मंत्री थे।

जोगेंद्र नाथ मण्डल

मंडल ने पाकिस्तान में रहना इसलिए स्वीकार किया था, क्योंकि जिन्ना ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि पाकिस्तान में हिन्दुओं और दलितों के हितों का ध्यान रखा जाएगा। पर मंडल की जिन्ना की 11 सितंबर, 1948 में मौत के बाद पाकिस्तान में अनदेखी होने लगी। नतीजा ये हुआ कि वे पाकिस्तान को छोड़कर भारत आ गए। ये 1951 के आसपास की बातें हैं। उन्होंने आरोप लगाया था कि पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ नाइंसाफी होती है। इसलिए उनका पाकिस्तान में रहना मुमकिन नहीं होगा।

मंडल उसके बाद कलकत्ता आ गए। वे कलकत्ता में बहुत सक्रिय नहीं रहे। उनका 1968 में निधन हो गया। मंडल ने जो 70 साल पहला कहा था, वह सही निकला। पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ कभी न्याय नहीं हुआ। इसीका नतीजा था कि जिन्ना का करीबी हिन्दू मंत्री पाकिस्तान में नहीं रह सका।

नहीं बदलेगा पाक

कृष्णा कुमारी का पाक उच्च सदन के लिए निर्वाचित होना अपने आप में सुखद है, पर इससे पाकिस्तान बदलने वाला नहीं है। वहां पर हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों की तो छोड़िए, अहमदिया और शिया मुसलमानों की ही स्थिति क्या है।  शिया मुसलमान मारे जा रहे हैं। वे वहां की आबादी का 10 से 15 फीसदी है। विभाजन के समय लगभग 25 फीसद थे। कुछ समय पहले बलूचिस्तान प्रांत में शिया मस्जिद में हमले में 20 से अधिक  शिया मुसलमान मारे गए। बीते कई सालों से शिया धार्मिक स्थलों को आतंकवादी हमलों में निशाना बनाया जा रहा है। उनके मानवाधिकारों को कोई देखने-सुनने वाला नहीं है। ये हालत मुसलमानों के ही एक वर्ग की है, वह भी एक इस्लामिक देश में।

कृष्णा कुमारी

सिर्फ सुन्नी मुसलमान

वहां पर सुन्नी मुसलमानों के अलावा बाकी किसी का रहना अब मुश्किल होता जा रहा है। पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों की आबादी एक करोड़ के आसपास थी 1947 में। इसमें पूर्वी पाकिस्तान(अब बांग्लादेश) शामिल नहीं था। अब वहां पर मात्र 12 लाख हिन्दू और 10 हजार सिख रह गए हैं। हिन्दुओं और सिखों की इतनी बड़ी संख्या जो लगभग 88 लाख के करीब बनती है, आख़िरकार  गई कहां? क्या हुआ इनका?

पाकिस्तान में हिन्दू और सिख समुदाय के लोगों की स्थिति बेहद दयनीय है। वे हमेशा डर और आतंक के साये में जीते हैं। पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रान्त में हिन्दू लड़कियों के साथ जबरन शादी के मामले बार-बार सामने आते रहे हैं। पाकिस्तान के हिन्दू समुदाय ने एक सेमिनार कराची में कुछ समय पहले किया था। विषय था- “पाकिस्तान में हिन्दू मुद्दे और समाधान।” इसमें शामिल वक्ताओं ने पाकिस्तान में हिंदुओं की बहन-बेटियों का हो रहा जबरन धर्म परिवर्तन मीडिया के माध्यम से सारी दुनिया के सामने उजागर किया था।

शिकार ईसाई भी

अब तो ईसाइयों को भी गाजर-मूली की तरह से काटा जा रहा है। पहले वे काफी हद तक बचे हुए थे। दो साल पहले लाहौर के एक पार्क में  दर्जनों ईसाई मारे गए थे। इस तरह के हमले पाकिस्तान के कुछ और शहरों में भी हुए।सुन्नी मुस्लिम बहुसंख्यक देश पाकिस्तान में हिंदुओं के बाद ईसाई दूसरा सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है। पाकिस्तान में लगभग 18 करोड़ की आबादी में 1.6 प्रतिशत ईसाई हैं। इधर बीते कुछेक  सालों में पाकिस्तान के अन्दर ईसाइयों को निशाना बनाकर कई बड़े हमले किए गए हैं।

2013 में पेशावर के चर्च में हुए धमाकों में 80 लोग मारे गए थे। 2009 में पंजाब में एक उग्र भीड़ ने 40 घरों को आग लगा दी थी। इसमें आठ ईसाई मारे गए थे।2005 में क़ुरान जलाने की अफ़वाह के बाद पाकिस्तान के फ़ैसलाबाद से ईसाइयों को अपने घर छोड़कर भागना पड़ा था। हिंसक भीड़ ने चर्चों और ईसाई स्कूलों को आग लगा दी थी। 1990 के बाद से कई ईसाइयों को क़ुरान का अपमान करने और पैगंबर की निंदा करने के आरोपों में दोषी ठहराया जा चुका है। अब वे भी निशाने पर हैं। वहां पर तो हिन्दू कुछ सौ भी नहीं हैं।

हिन्दी की हत्या

हिन्दुओं से नफरत का आलम ये है कि पाकिस्तान में हिन्दी की हत्या कर दी गई। पाकिस्तान के विश्व मानचित्र में आने के बाद हिन्दी के प्रकाशन बंद हो गए। स्कूलों- कॉलेजों में हिन्दी की कक्षाएं लगनी समाप्त हो गई। वर्ना पंजाब की राजधानी लाहौर के गर्वंमेंट कालेज, फोरमेन क्रिश्चियन कालेज, खालसा कालेज, दयाल सिंह कालेज, डीएवी वगैरह में हिन्दी की स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई की व्यवस्था थी।

इसी तरह से पंजाब के एक दूसरे खास शहर रावलपिंडी में डीएवी कालेज, गॉर्डन कालेज, इस्लामिया कालेज में भी हिन्दी पढ़ी-पढ़ाई जा रही थी। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की सांस्कृतिक राजधानी लाहौर में 1947 तक कई हिन्दी प्रकाशन सक्रिय थे। इनमें राजपाल प्रकाशन खास था। हिन्दी के प्रसार- प्रचार के लिए कई संस्थाएं जुझारू प्रतिबद्धता के साथ जुटी हुई थीं। इनमें धर्मपुरा स्थित हिन्दी प्रचारिणी सभा का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। निश्चित रूप से उस दौर में पंजाब में उर्दू और पंजाबी का  वर्चस्व था। पर, हिन्दी ने अपने लिए जगह बनाई हुई थी। हिन्दी पढ़ी-लिखी जा रही थी। लाहौर से ‘आर्य गजट’ और ‘प्रकाश’ तथा अमर भारत नाम से हिन्दी के अखबार प्रकाशित हो रहे थे। इनकी प्रसार संख्या हजारों में थी।

भीष्म साहनी, देवेन्द्र सत्यार्थी, उपेन्द्रनाथ अश्क समेत दर्जनों हिन्दी के लेखक अपना रचनाकर्म जारी रखे हुए थे। रावलपिंडी में रहकर ही बलराज साहनी, भीष्म साहनी तथा हिन्दी फिल्मों के दो बेहतरीन गीतकार शैलेन्द्र और आनंद बख्शी ने हिन्दी जानी-समझी थी। शैलेन्द्र रेलवे में नौकरी करते थे। रावलपिंडी में मार्च, 1947 में हुए भयावह सांप्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि पर भीष्म साहनी ने अपना कालजयी उपन्यास ‘तमस’ लिखा था।

‘तमस’ कुल पांच दिनों की कहानी को लेकर बुना गया उपन्यास है। परंतु कथा में जो प्रसंग, संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उससे यह पांच दिवस की कथा न होकर बीसवीं सदी के हिन्दुस्तान के अब तक के लगभग सौ वर्षो की कथा हो जाती है। भीष्म साहनी की विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ भी बेजोड़ है। पाकिस्तान से आए हिन्दी के रचनाकारों की भाषा में उर्दू तथा पंजाबी का मिश्रण होता था। इन्होंने ‘किन्तु-परन्तु’ के स्थान पर ‘अगर-मगर’ लिखने से परहेज नहीं किया।

सिंध सूबे की राजधानी कराची, बलूचिस्तान और  पाकिस्तान के शेष भागों में भी हिन्दी पढ़ी-लिखी जा रही थी। हिन्दू परिवारों की महिलाएं तो हिन्दी का अध्ययन घर में रहकर ही कर लेती थीं। लेकिन, पाकिस्तान बनने के साथ ही अन्य स्थानों पर भी हिन्दी पढ़ने-लिखने की सुविधाएं खत्म हो गईं। कराची यूनिवर्सिटी का हिन्दी विभाग भी काफी समृद्ध हुआ करता था, वो भी नहीं रहा।

ऐसे में, आज कृष्णा कुमारी के सांसद बनने को बहुत बड़ी उपलब्धि मानने वालों को शायद मालूम नहीं कि  पाकिस्तान में हिन्दी को शत्रुओं की भाषा माना गया। इसलिए इसका उधर कोई भविष्य नहीं बचा। पाकिस्तान सुधरने वाला नहीं है। उसकी प्राण और आत्मा में भारत और हिन्दू  से नफरत भरी है।

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)