हिन्दी भाषा के मुद्दे पर दो नावों की सवारी कर रहे शशि थरूर !

अब जरा देख लीजिए कि हिन्दी का विरोध वो शख्स कर रहा है, जो हिन्दी की ताकत को जानता है। उसे भली-भांति पता है कि हिन्दी में किताब के छपने से उसकी प्रसार संख्या बढ़ेगी, उसे अधिक पाठक मिलेंगे। लेकिन, यही थरूर प्रधानमंत्री मोदी के दावोस में हिन्दी में  अपनी बात ऱखने का ये कहते हुए विरोध करने लगे कि हिन्दी में बोलने से उनकी बात को दुनियाभर का मीडिया जगह नहीं देगा। जबकि मोदी के संबोधन को न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी ने शानदार तरीके से कवर किया। क्या थरूर को इस तथ्य की जानकारी है? क्या ये तीनों दुनिया के नामवर मीडिया संस्थान नहीं हैं?

शशि थरूर को अभी तय करना है कि वे हिन्दी विरोधी हैं या प्रेमी। वे संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को आधिकारिक दर्जा देने से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दावोस के वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में हिन्दी में भाषण देने का विरोध करते हैं। पर, थरूर साथ ही अपनी किताबों का हिन्दी में अनुवाद भी करवाने लगे हैं। शशि थरूर की नयी पुस्तक ​’अन्ध​कार काल : भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ का कुछ समय पूर्व लोकार्पण किया गया था। निश्चित ही ‘अन्धकार काल : भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ एक महत्वपूर्ण किताब है।

अब जरा देख लीजिए कि हिन्दी का विरोध वो शख्स कर रहा है, जो हिन्दी की ताकत को जानता है। उसे भली-भांति पता है कि हिन्दी में किताब के छपने से उसकी प्रसार संख्या बढ़ेगी, उसे अधिक पाठक मिलेंगे। लेकिन, यही थरूर प्रधानमंत्री मोदी के दावोस में हिन्दी में  अपनी बात ऱखने का ये कहते हुए विरोध करने लगे कि हिन्दी में बोलने से उनकी बात को दुनियाभर का मीडिया जगह नहीं देगा। जबकि मोदी के संबोधन को न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी ने शानदार तरीके से कवर किया। क्या थरूर को इस तथ्य की जानकारी है? क्या ये तीनों दुनिया के नामवर मीडिया संस्थान नहीं हैं?

अपनी भाषा से परहेज क्यों

शशि थरूर तो अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं, क्या उन्हें मालूम नहीं कि संयुक्त राष्ट्र और वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम जैसे महत्वपूर्ण मंचों पर जर्मन, जापान, रूस, चीन वगैरह के राष्ट्राध्यक्ष अपना संबोधन अपनी राष्ट्रभाषा में ही रखते हैं? सही है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है; पर ये संसार की सबसे अधिक बोली-समझी जाने वाली भाषाओं में तो है ही।

गौरतलब है कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने के सरकारी प्रयासों पर संसद में विगत दिनों हो रही चर्चा में भाग लेते हुए  शशि थरूर ने  कहा था कि, ‘हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा है। हिंदी सिर्फ एक ही देश भारत में बोली जाती है। इसलिए इसको संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा नहीं बनाया जा सकता। आज प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री हिंदी बोलते हैं। भविष्य में कोई तमिलनाडु या पश्चिम बंगाल से प्रधानमंत्री बन सकता है, हमें उन्हें संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलने के लिए मजबूर क्यों करना चाहिए?’ समझ नहीं आता कि थरूर इस तरह की अनाप-शनाप राय क्यों रखते हैं? हमारे यहां कौन किसको किसी भाषा में बोलने के लिए बाध्य कर रहा है। और वे यह समझ लें कि हिंदी, भारत से बाहर भी बोली जा रही है।

हिंदी भारत के अलावा फिजी में बोली जाती है। जितने भी गिरमिटिया देश हैं, चाहे मॉरीशस हो, त्रिनिदाद टोबैगो, सूरीनाम हो, इन देशों में लोग हिंदी बोलते हैं। अमेरिका में अप्रवासी भारतीय हिंदी बोलते हैं। ये बात समझ से परे है कि शशि थरूर को कांग्रेस के जनार्दन दिवेदी जैसे हिन्दी के विद्वान नेता भी नहीं समझाते कि उन्हें हिन्दी का अकारण विरोध नहीं करना चाहिए।

शशि थरूर

विदेशी सीखते हिन्दी

और अब तो हिन्दी कोरपोरेट की दुनिया में भी दस्तक दे चुकी है। भारत में कारोबार करने वाली दर्जनों मल्टी नेशलन कंपनियों के विदेशी मूल के आला अधिकारी काम-चलाऊ हिन्दी सीखते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के कॉरपोरेट वर्ल्ड की शिखर हस्तियों से हिन्दी में ही बात करते हैं। कुछ साल पहले तक कोरपोरेट जगत के बारे में माना जाता था कि वहां पर हिन्दी के लिए कोई जगह नहीं है। हालांकि पहले भी मारवाड़ी और उत्तर भारत से जुड़ी कोरपोरेट जगत की हस्तियां जैसे कि  आर.पी.गोयनका, के.के.बिड़ला, केदार नाथ मोदी वगैरह अपने पेशेवरों से लेकर अपनी कंपनियों की खास बैठकों तक में हिन्दी में ही बातचीत करते थे।

दरअसल हाल के दौर में कॉरपोरेट दुनिया में हिन्दी ने तगड़ी दस्तक दे दी है। बोर्ड की बैठकों से लेकर शेयरधारकों की आम सभाओं तक में हिन्दी सुनाई दे रही है। अंग्रेजी के वर्चस्व को हिन्दी तोड़ नहीं रही है, पर वह अपने लिए नई जमीन अवश्य तैयार कर रही है। आनंद महिन्द्रा (महिन्द्रा एंड महिन्द्रा), ओंकार सिंह कंवर ( अपोलो टायर्स), सुनील भारती मित्तल (भारती एयरेटल), सज्जन जिंदल (जिंदल साउथ वेस्ट), जैसे हिन्दी पट्टी से संबंध रखने वाले प्रमोटरों के अलावा जिन कंपनियों का प्रबंधन मारवाड़ियों के हाथों में है, वहां पर हिन्दी पूरी ठसक  के साथ है। इनमें गोयनका, गौड़, बिड़ला, रुईया, बजाज, पीरामल, मित्तल समूह वगैरह शामिल हैं।

भारती एयरटेल मैनेजमेंट की बैठकों में बीच-बीच में हिन्दी में संवाद शुरू होना मामूली बात हो गई है। अपोलो टायर्स के चेयरेमन और मैनेजिंग डायरेक्टर ओंकार सिंह कंवर अपनी बोर्ड की बैठकों में अंग्रेजी के साथ हिन्दी मजे से बोलते हैं। अगर उन्हें कहीं कोई भाषण देना होता है, तो वे आमतौर पर लिखा हुआ भाषण ही पढ़ते हैं। भाषण में जटिल अंग्रेजी शब्द हिन्दी या गुरुमुखी में लिखे होते हैं। बोर्ड रूम में गुजराती, सिंधी और अन्य भारतीय भाषाएं भी सुनाई देती हैं। कहते हैं, धीरूभाई अंबानी तो हिन्दी और गुजराती में ही बात करना पसंद करते थे। उनके दोनों पुत्र मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी भी हिन्दी-गुजराती में ही अपनी बोर्ड की बैठकों में बोलते हैं। हालांकि इन्हें अंग्रेजी भी आती है। वैसे बोर्ड की बैठकों में अंग्रेजी इसलिए चलती है, क्योंकि कई डायरेक्टर विदेशी भी होने लगे हैं।

एमएनसी में हिन्दी

और तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों के पेशेवर तो बड़े पैमाने पर हिन्दी का ज्ञान हासिल कर रहे हैं। इसलिए ताकि उनका यहां का समय ज्यादा सार्थक हो सके। अपनी कंपनी के उत्पादों का फीडबैक आम हिन्दुस्तानी से उसकी जुबान में बात करके ले सकें। चूंकि, एमएनसी के पेशेवर हिन्दी सीखने लगे हैं तो इऩ्हें हिन्दी का गुजारे-लायक ज्ञान देने वाले इंस्टिट्यूट भी खुल गए हैं।

इन सब बातों को देखते हुए कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदी लगातार अधिकाधिक रूप से मजबूत होती जा रही है। ऐसे में,  शशि थरूर से आशा की जाती है कि वे सोच-समझकर हिन्दी पर अपनी राय रखें। कम से कम तथ्यों को तो देख लें। हिन्दी का विरोध करके वे क्यों यह साबित करने पर तुले हुए हैं कि वे वास्तव में जमीनी समझ नहीं रखने वाले नेता हैं।

(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)