कांग्रेस का भारत बंद तो विफल रहा ही, इसके बहाने विपक्षी एकजुटता की मंशा भी हुई फुस्स!

कांग्रेस के भारत बंद को लेकर जिस बात का अंदेशा था, वही हुआ। देश भर की सरकारी संपत्तियों को निशाना बनाया गया। देश में बंद के नाम पर अराजकता का तांडव मचा दिया गया, जिसमें सरकारी संपत्ति का तो नुकसान हुआ ही, एक दो साल की बच्ची की बिहार के जहानाबाद में अस्पताल नहीं पहुँच पाने की वजह से मौत भी हो गई। कांग्रेस बताएगी कि देश का नुकसान छोड़कर इस बंद का हासिल क्या रहा?

बंद का आह्वान करना राजनीतिक दलों का लोकतान्त्रिक अधिकार है, लेकिन बंद के नाम पर हिंसा करना कतई उचित नहीं कहा जा सकता। आज जब कांग्रेस के नेतृत्व में दर्जन भर पार्टियों ने बंद का आयोजन किया तो लक्ष्य यही था कि पेट्रोल उत्पादों की बढ़ती कीमत के बारे में सरकार पर दबाव बनाया जाए।

सांकेतिक चित्र [साभार : हरिभूमि]

लेकिन इस बंद को लेकर जिस बात का अंदेशा था, वही हुआ। देश भर की सरकारी संपत्तियों को निशाना बनाया गया। देश में बंद के नाम पर अराजकता का तांडव मचा दिया गया, जिसमें सरकारी संपत्ति का तो नुकसान हुआ ही, एक दो साल की बच्ची की बिहार के जहानाबाद में अस्पताल नहीं पहुँच पाने की वजह से मौत भी हो गई।

बंद के दौरान सबसे ज्यादा हिंसा बिहार में देखने को मिली है। राजद और कांग्रेस के लोगों ने आम जनता को काम पर जाने से रोका ही नहीं रोका, बल्कि लोगों में भय पैदा करने की भी कोशिश की। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि पेट्रोल की बढ़ती कीमत को कम करने के लिए सरकार काम कर रही है और हमें सफलता भी मिलेगी।

विपक्षी एकजुटता की मंशा भी हुई विफल

बंद के बहाने कांग्रेस ने विपक्षी एकजुटता को भी दिखाने की कोशिश की, लेकिन इस मामले में भी उसका बंद सफल नहीं कहा जा सकता। दिल्ली में राहुल गांधी रामलीला मैदान में धरने पर बैठे थे, वहां अरविन्द केजरीवाल ने इस बंद से खुद को दूर रखने का फैसला किया। 

यह बंद एक बहुप्रचारित बंद था लेकिन महागठबंधन की एक बड़ी नेता ममता बनर्जी ने भी बंद का समर्थन नहीं किया। खबर तो यह भी थी कि ममता ने अपने अधिकारियों को नियमित तौर पर ऑफिस आने के निर्देश दिए थे। ममता बनर्जी ने इस बंद को गलत ठहराते हुए कहा कि बंद का आयोजन करना ही गलत है, इससे राज्य का और देश का ही नुकसान होता है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने से पहले ममता बात-बात पर सड़क जाम और बंद का आयोजन करती रहती थीं।

लेकिन इस बंद पर ममता के सुर भी बदल गए। जाहिर है, वे कांग्रेस के इस बंद में शामिल होकर उसके नेतृत्व में एकजुटता का कोई सन्देश नहीं देना चाहती थी। शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में मोदी सरकार की आलोचना करती रही है, लेकिन जब बात बंद के समर्थन की आई तो उसकी तरफ से इसे कोई समर्थन नहीं मिला। 

क्या मिला इस बंद से?

कांग्रेस इस बंद के ज़रिये यह कोशिश कर रही थी कि देश भर में उसे मुख्य विपक्षी दल के तौर पर अन्य दलों का समर्थन मिल जाए, जिसमें उसे काफी हद तक निराशा ही हाथ लगी। अब सवाल उठता है कि कांग्रेस जो उपदेश बीजेपी और अन्य दलों को दे रही है, उस पर अमल भी करेगी?

अगर उसे पेट्रोल-डीजल की कीमतों की इतनी ही चिंता है तो इस बंद से पूर्व उसे अपने शासन के राज्यों में पेट्रोल की कीमत कम कर देनी चाहिए थी। बहरहाल, राहुल गांधी के पास विपक्षी दलों को लामबंद करने का यह बहुत बड़ा मौका था, लेकिन उन्होंने बगैर तैयारी के देशव्यापी बंद बुलाकर यह साबित किया कि बड़े अवसरों के लिए वह अभी भी परिपक्व नहीं हुए हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)