यूपी निकाय चुनावों में जीएसटी, नोटबंदी और ईवीएम के विरोधियों को जनता ने दिखाया आईना!

उत्तर प्रदेश के  मतदाताओं ने नोटबन्दी, जीएसटी और ईवीएम पर विपक्ष  की दलील खारिज कर दी, जबकि गुजरात में राहुल गांधी  जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बता रहे हैं। इस मुद्दे का क्या असर होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने ऐसे सभी नेताओं को यूपी विधानसभा चुनाव के बाद एकबार फिर आईना दिखा दिया है। निकाय चुनाव ने सपा, बसपा कांग्रेस सभी को निराश किया है, जबकि भाजपा का मनोबल बढ़ाया है। योगी ने चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा लगा दी थी। अपने कार्यों के प्रति यह उनका आत्मविश्वास था। इसी के बल पर वह लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के दावेदार बनकर उभरे हैं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मेहनत सफल हुई। भाजपा की विजय का सिलसिला यूपी के निकाय चुनावों में भी जारी रहा। निकाय चुनाव में विपक्षी पार्टियां बहुत पीछे रह गईं। ऐसा नहीं कि योगी आदित्यनाथ ने केवल कुछ दिन प्रचार किया, वह तो मुख्यमंत्री बनने के साथ ही विकास के लिए जी-जान से जुट गए थे। किसानों की कर्ज माफी से शुरुआत हुई। फिर उनकी सरकार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। गेहूं-धान की खरीद, आवास, बिजली कनेक्शन  के रिकार्ड बनने लगे।

सांकेतिक चित्र

पिछली सपा सरकार केंद्र की लोक कल्याणकारी नीतियों पर तंज करती थी। प्रदेश की भलाई के लिए योगी ने इन योजनाओं को प्राथमिकता दी। यह पूरा कार्य अपनी निगरानी में ले लिया। विकास यात्रा आगे बढ़ने लगी। किसानों, व्यापारियों, वंचितों को योजनाओं का लाभ मिलने लगा। निवेश हेतु बड़ा अभियान हाथ में लिया गया। घोटालों की जांच कराई जा रही है। योगी सरकार ने घोटाले रोकने और पारदर्शिता के लिए कई कारगर कदम उठाए हैं। चुनाव प्रचार के दौरान इन योजनाओं का क्रियान्वयन देखने का प्रयास किया।  जीएसटी, नोटबन्दी, ईवीएम पर विपक्ष का विलाप  आमजन को प्रभावित नहीं कर सका। इस चुनाव का सबसे बड़ा सबक यही है कि अब विपक्ष को जीएसटी, नोटबन्दी, ईवीएम पर हंगामे से तौबा कर लेनी चाहिए।

मायावती की पार्टी को मिली दो सीट यह साबित करती है कि चुनाव आयोग पर उनके हमले दुर्भावना से प्रेरित थे। बाद में   सपा, कांग्रेस, आप ने भी  यही राग अलापना शुरू कर दिया था। लेकिन, जब चुनाव आयोग ने इन्हें आरोप सिद्ध करने की खुली चुनौती दी, तब ये सब भाग खड़े हुए। इनमें से किसी का प्रतिनिधि चुनाव आयोग नहीं पहुंचा। इसके बाद उम्मीद थी कि यह मुद्दा भविष्य में नहीं उठाया जाएगा। लेकिन, उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव  में इसे फिर उठाया गया। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव नोटबन्दी के बाद हुए थे। इसमें विपक्ष ने इसे प्रमुख मुद्दा बनाया था। इसे जनता को बेहाल करने वाला बताया गया। कई नेताओं ने तो इसे देश का सबसे बड़ा घोटाला घोषित कर दिया। लेकिन, परिणाम आये तो विपक्ष ही बेहाल दिखाई दिया।

इसके बाद उम्मीद थी कि नोटबन्दी के मुद्दे से विपक्ष आपने को दूर कर लेगा। लेकिन, निकाय चुनाव में यह हांडी फिर चढ़ा दी गई। इसका बेअसर होना तय था। जीएसटी को पारित कराने में विपक्षी भी शामिल थे। लेकिन, इतने बड़े देश में इसका क्रियान्वयन चुनौतीपूर्ण था। कांग्रेस सहित कई पार्टियों ने यही सोच कर हमला बोलना शुरू कर दिया। जबकि जीएसटी काउंसिल में उनके मुख्यमंत्री शामिल है। इसकी बैठकों में लोगों की कठिनाई दूर करने के निर्णय लिए जा रहे हैं। इधर सुधार के कई फैसले हुए। लेकिन कांग्रेस ने इसे समझने का प्रयास नहीं किया। वह हंगामा करती रही । कहती रही कि नोटबन्दी और जीएसटी ने उद्योग  व्यापार को बर्बाद कर दिया ।

यह कहने से काम नहीं चलेगा कि निकाय में स्थानीय मुद्दे होते हैं। बेशक स्थानीय मुद्दे थे, लेकिन विपक्ष ने  नोटबन्दी, जीएसटी को इस चुनाव में स्थानीय मुद्दे के रूप में ही उठाया था। उनका कहना था कि स्थानीय कारोबार चौपट हो गया है। स्पष्ट है कि विपक्ष ने जमीनी सच्चाई देखने का प्रयास नहीं किया।

यह ठीक है कि नोटबन्दी, जीएसटी से लोगों को प्रारंभ में परेशानी हुई थी। लेकिन शासक की नेक नीयत का भी बहुत महत्व होता है। नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की नेक नीयत पर लोगों का विश्वास कायम है। विपक्ष के नेता अपना मूल्यांकन खुद करें। यह सही है कि निकाय चुनाव में पहले किसी मुख्यमंत्री ने  इतना व्यापक प्रचार नहीं किया था। योगी आदित्यनाथ पर तंज भी किये गए। लेकिन योगी की रणनीति व्यापक सन्दर्भों में थी।

मुख्यमंत्री के रूप में वह प्रदेश के विभिन्न इलाकों में गए। यह पार्टी का प्रचार मात्र नहीं था, बल्कि योगी  आठ महीने में सरकार द्वारा किये गए कार्यों का आमजन से सीधे फीडबैक भी ले रहे थे। मायावती और अखिलेश मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन निकाय चुनाव प्रचार के द्वारा लोगों  की प्रतिक्रिया समझने के इस अंदाज  को समझ ही नहीं सके। वह तंज कसते रहे, योगी आगे चलते रहे।

अपना गढ़ तक नहीं बचा सकी सपा (सांकेतिक चित्र)

सपा, बसपा और कांग्रेस ने पार्टी सिंबल पर चुनाव लड़ने का फैसला तो किया। लेकिन, इसके अनुरूप उनमें मनोबल नहीं था। इन पार्टियों के नेताओं ने इसीलिए अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए चुनाव प्रचार से अपने को दूर रखा। इतना ही था, तो सिंबल देने की क्या जरूरत थी। लेकिन इन नेताओं ने सोचा होगा कि जीत गए तो श्रेय मिलेगा, हार गए तो ईवीएम जिंदाबाद।  

अखिलेश यादव  ट्विटर से प्रचार करते रहे। योगी सरकार को नाकाम बताते रहे। अपनी प्रशंसा के पुल बांधते रहे। यह भी कहा कि भाजपा विधानसभा चुनाव में लोगों को भ्रमित करके जीती थी, अब लोग उसकी असलियत समझने लगे हैं। लेकिन मतदाताओं का फैसला अखिलेश की धारणा के विपरीत रहा। सपा अपने गढ़ तक को बचा नहीं सकी।

उत्तर प्रदेश के निकाय और गुजरात विधानसभा चुनाव के बीच  समानता तलाशना अजीब लग सकता है। लेकिन, इससे संबंधित कई तथ्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक तो दोनों ही प्रदेशों में विपक्ष भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए बेकरार  रहा है। दूसरा यह कि दोनों प्रदेशों में विपक्ष के चुनावी मुद्दे भी एक जैसे  हैं।

उत्तर प्रदेश के  मतदाताओं ने नोटबन्दी, जीएसटी पर विपक्ष  की दलील खारिज कर दी, जबकि गुजरात में राहुल गांधी  जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बता रहे हैं। इस मुद्दे का क्या असर होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।  उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने ऐसे सभी नेताओं को आइना  दिखाया है। निकाय चुनाव ने सपा, बसपा कांग्रेस सभी को निराश किया है, जबकि भाजपा का मनोबल बढ़ाया है। योगी ने चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा लगा दी थी। अपने कार्यों के प्रति यह उनका आत्मविश्वास था। इसी के बल पर वह लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन के दावेदार बनकर उभरे हैं।

(लेखक हिन्दू पीजी कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)